कोरोना वायरस अभी उभार पर है। शायद इसका उभार रोकने में हम जल्द
कामयाब हो जाएं। पर उसके बाद क्या होगा? इस असर का जायजा लेने के लिए कुछ देर के लिए
तेल बाजार की ओर चलें। सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री प्रिंस अब्दुल अज़ीज़ बिन सलमान
ने गत 13 अप्रेल को कहा कि काफी विचार-विमर्श के बाद तेल उत्पादन और उपभोग करने
वाले देशों ने प्रति दिन करीब 97 लाख बैरल प्रतिदिन की तेल
आपूर्ति कम करने का फैसला किया है।
इस फैसले के बाद हालांकि ब्रेंट क्रूड बाजार में तेल की
गिरती कीमतें कुछ देर के लिए सुधरीं, पर वैश्विक
स्तर पर असमंजस कायम है। दो हफ्ते पहले ये कीमतें 22 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे
पहुँच गई थीं। इस गिरावट को रूस ने अपना उत्पादन और बढ़ाकर तेजी दी। इस
प्रतियोगिता से तेल बाजार में वस्तुतः आग लग गई। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय ब्रेंट क्रूड की कीमत 28 डॉलर के आसपास थी और
अमेरिकी बाजारों में तेल 15 डॉलर के आसपास आने की खबरें थीं। इस कीमत पर इस उद्योग
की तबाही निश्चित है। इस खेल में वेनेजुएला जैसे देश तबाह हो चुके हैं, जो
पेट्रोलियम-सम्पदा के लिहाज से खासे समृद्ध थे।
उत्पादन में कटौती
बहरहाल अब ओपेक और रूस समेत सहयोगी देशों ने उत्पादन में
कटौती पर सहमति व्यक्त की है। उधर अमेरिका और कनाडा जैसे अन्य प्रमुख उत्पादकों ने
हालांकि यह घोषित नहीं किया है कि वे कितना उत्पादन घटाएंगे, पर उन्होंने भी कटौती
की योजना बनाई है। अमेरिकी ऊर्जा विभाग ने कहा है कि देश में शैल तेल का उत्पादन, जो कुल अमेरिकी उत्पादन
का लगभग 75 प्रतिशत है, लगभग चार लाख बैरल प्रतिदिन गिरने की उम्मीद है।
मोटा अनुमान है कि अमेरिकी शैल तेल का उत्पादन मई के महीने में 85 लाख बैरल
प्रतिदिन रह जाएगा। ये सब फौरी कदम हैं।
आने वाले समय में क्या होगा, कोई
नहीं जानता। कोरोना के बाद पेट्रोलियम की माँग बढ़ेगी, पर कितनी? विशेषज्ञों का अनुमान है कि सऊदी अरब जैसा देश अपने मजबूत मुद्रा भंडार के
सहारे दो-तीन साल निकाल लेगा, पर उसके बाद उसकी अर्थव्यवस्था डगमगाने लगेगी। रूसी
तेल की लागत कम है, इसलिए वह कई दशक तक सस्ता तेल बेचता रह सकता है। सस्ता मतलब है
करीब 40 डॉलर प्रति बैरल। मोटे तौर पर संकेत यह है कि तेल की कीमतों का यह दौर और
महामारी की मार दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुछ बड़े बदलावों का संदेश लेकर आई है।
जी-20 देशों के पेट्रोलियम
मंत्रियों की हाल में हुई टेली कांफ्रेंस में उत्पादन घटाने के प्रस्ताव पर
उत्पादक देशों के बीच खूब खींचतान हुई और 11 अप्रेल को जारी विज्ञप्ति कटौती की
बात पर मौन थी। हालांकि ओपेक और रूस समेत दूसरे देशों के बीच, जिन्हें ओपेक+ कहा जाता है, एक दिन पहले समझौता हुआ था कि मई और
जून में दैनिक तेल उत्पादन घटाया जाएगा। सऊदी अरब और रूस के बीच बाजार में हिस्सेदारी
बढ़ाने की होड़ के बीच तेल का भाव करीब दो दशक के न्यूनतम स्तर पर आ गया है। अब सब
मान रहे हैं कि यदि तेल की कीमतें 20 डॉलर के स्तर पर रहीं, तो इस उद्योग की तबाही
निश्चित है।
कोरोना
वायरस की मार से वैश्विक कारोबारी गतिविधियाँ और माल की आवाजाही रुकने का पहला असर
पेट्रोलियम की कीमतों पर पड़ा और देखते ही देखते 33 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गईं।
इसका असर तमाम पेट्रोलियम उत्पादक देशों पर पड़ा, क्योंकि लागत की दर इससे ऊपर थी।
ऐसा लगा कि पेट्रोलियम कारोबार एकबारगी ढह जाएगा। दुनिया के तीन चौथाई पेट्रोलियम
उद्योग की तो प्रति बैरल लागत ही इससे ज्यादा है। विश्व राजनीति के मानचित्र पर
कभी राज करने वाला पेट्रोलियम अपना सारा महत्व खो देगा। यह केवल कोरोना संकट की
बात ही नहीं है। पिछले दो साल से पेट्रोलियम कारोबार पर संकट के बादल घिरे हैं।
खपत
में एक तिहाई की कमी
कोरोना
वायरस की वजह से तेल की माँग कम हो गई है, जिसके कारण कीमतें यों
भी गिर रही थीं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि दुनिया में हर रोज ढाई से तीन करोड़
बैरल तेल की खपत कम हो गई है, जबकि अच्छे वक्त में भी ज्यादा से
ज्यादा खपत दस करोड़ बैरल की है। यानी कि एक तिहाई जरूरत खत्म हो गई है। इससे
पेट्रोलियम उद्योग में हड़कम्प है। अब सवाल है कि क्या पेट्रोलियम उद्योग के खत्म होने की घड़ी आ गई है? क्या प्रकृति ने जलवायु परिवर्तन की धारा मोड़ने के लिए कोरोना
वायरस का सहारा लिया है? गत
8 मार्च को सऊदी अरब ने कीमतों की इस लड़ाई को निर्णायक मोड़ पर पहुँचाने का फैसला
किया और खनिज तेल का उत्पादन बढ़ाने की घोषणा की। इससे तेल की कीमतें और गिर गईं। सऊदी अरब का यह फैसला रूसी प्रतिक्रिया के विरोध में
था। वस्तुतः रूस ने ओपेक देशों के साथ कोई डील न करने का रुख अपना रखा था।
दुनिया
के शेयर बाजारों में पेट्रोलियम कम्पनियों की कीमत आधी हो गई है। इस कारोबार में
पूँजी लगाने वाले अपना धन वापस निकालना चाहते हैं। छोटे कुओं से तेल निकालना बंद
किया जा रहा है, क्योंकि उससे लागत भी नहीं निकल पा रही है। बेशक सब मानते हैं कि
तेल उद्योग का अंततः अंत होना है, पर कब? ईंधन
के वैश्विक कारोबार पर नजर रखने वाले थिंकटैंक कार्बन ट्रैकर का 2018 में अनुमान था कि पेट्रोलियम की माँग सन
2023 तक बढ़ेगी, उसके बाद कम होने लगेगी। पर आज सवाल है कि क्या इसी साल यह
कारोबार धराशायी हो जाएगा? दूसरी
तरफ विशेषज्ञ मानते हैं कि पेट्रोलियम उद्योग इसके पहले भी बड़े झटके सहन करता रहा
है। वह इसे भी झेल जाएगा। ज्यादा बड़ा सवाल है कि कोरोना वापस कब जाएगा?
कोरोना
का असर कब तक रहेगा, अभी यह बताना मुश्किल है, पर इतना जरूर लग रहा है कि अब
वैश्विक शक्ति संतुलन में पेट्रोलियम की भूमिका कमतर होने जा रही है। आज नहीं तो
दो-एक साल में वैश्विक पूँजी अब किसी और कारोबार की ओर देखेगी। शायद
औद्योगिक संरचना बदलेगी, जिसमें पेट्रोलियम और कोयले की भी भूमिका कमतर होगी। क्या
ऊर्जा की जरूरतें कम होंगी? वह तभी सम्भव होगा, जब वैकल्पिक
उद्योगों की ऊर्जा आवश्यकताएं कम होंगी या फर्क होंगी। दुनिया तेजी से ऊर्जा के
वैकल्पिक स्रोतों को खोज रही है, पर पेट्रोलियम का विकल्प अभी तक मिला नहीं है। जलवायु
परिवर्तन के खतरों को देखते हुए इस उद्योग पर पहले से दबाव है। अब बाजार का दबाव
इसे तबाही की ओर ले जा रहा है।
वैश्विक
पुनर्निर्माण
हालांकि
भारत और चीन जैसे देश इसका फायदा उठाकर कुछ समय के लिए अपने यहाँ बड़े भंडार कायम
करने में कामयाब होंगे, पर कब तक? कोरोना
वायरस के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगे झटकों से उबरने के लिए जी-20 देशों ने
पाँच ट्रिलियन डॉलर के पैकेज की घोषणा की है। अमेरिका ने दो ट्रिलियन का रिलीफ
पैकेज घोषित किया है। ये पैकेज क्या अर्थव्यवस्थाओं को ‘ग्रीन’
बनाने में मददगार होंगे? क्या ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों
को इस दौरान विकसित किया जा सकेगा? भारत
जैसे देशों के लिए यह अच्छा मौका है। पिछले कुछ वर्षों से हमने सौर ऊर्जा के
क्षेत्र में जबर्दस्त प्रगति की है। नाभिकीय ऊर्जा की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं।
पर एक सुरक्षित, हितैषी और किफायती अक्षय ऊर्जा स्रोत अभी तक दिखाई पड़ नहीं रहा
है।
दुनिया का लगभग आधा तेल उत्पादित करने वाला ओपेक अब बिखरता
दिख रहा है। एक समय तक सऊदी अरब ने भी तेल की कीमतें गिरने दीं, ताकि अमेरिका के
लिए ‘शैल गैस’ की खोज और उत्पादन एक महंगा सौदा हो जाए। सऊदी अरब में तेल की प्रति
बैरल लागत 25 डॉलर से भी कम है। वहीं अमेरिका में यह प्रति
बैरल कम से कम 50 डॉलर है। सऊदी अरब का प्रयास था कहीं न कहीं
तेल की कीमतें 60 डॉलर के आसपास रहें, जिससे अमेरिका की ‘शैल-क्रांति’
धराशायी हो जाए। अमेरिका काफी हद तक ऊर्जा के मामले में स्वतंत्र हो चुका है। वह
अब तेल निर्यातक देश है। इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका में हुई शैल तेल और शैल गैस
क्रांति है।
सन 2015 के बाद से तेल बाजार में काफी बड़े परिवर्तन हुए
हैं। पिछले साल अमेरिका तेल का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया और सितम्बर 2019 में सबसे
बड़ा निर्यातक। एक जमाने में वह सबसे बड़ा तेल आयातक देश था। पर अमेरिका जिस शैल
तकनीक से तेल निकाल रहा है, वह महंगी है। यह तेल 70 डॉलर से कम पर नहीं बेचा जा
सकता। अब यदि तेल की कीमतें गिरीं, तो अमेरिकी कम्पनियाँ बैठ जाएंगी। अमेरिकी
कम्पनियाँ बैठीं, तो उनके बैंक और इनवेस्टमेंट कम्पनियाँ बैठेंगी। उसका असर
दुनियाभर पर होगा। सवाल केवल तेल का नहीं, पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था का है।
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