कोरोना की बाढ़
का पानी उतर जाने के बाद दुनिया को कई तरह के प्रश्नों पर विचार करना होगा। इनमें
ही एक सवाल यह भी है कि दुनिया का तकनीकी विकास क्या केवल बाजार के सहारे होगा या
राज्य की इसमें कोई भूमिका होगी? इन दो के अलावा
विश्व संस्थाओं की भी कोई भूमिका होगी? तकनीक के सामाजिक प्रभावों-दुष्प्रभावों पर विचार करने वाली कोई वैश्विक
व्यवस्था बनेगी क्या? इससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ
कौन लेने वाला है?
इस हफ्ते की खबर
है कि मोबाइल फोन बनाने वाली कम्पनी एपल और गूगल ने नोवेल कोरोनावायरस के विस्तार
को ट्रैक करने के लिए आपसी सहयोग से स्मार्टफोन प्लेटफॉर्म विकसित करने का फैसला
किया है। ये दोनों कंपनियां मिलकर एक ट्रैकिंग टूल बनाएंगी, जो सभी स्मार्टफोनों में मिलेगा। यह टूल कोरोना वायरस की
रोकथाम में सरकार, हैल्थ सेक्टर और आम प्रयोक्ता की मदद करेगा। यह
टूल आईओएस और एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम में कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग का काम करेगा। यह
काम तभी सम्भव है, जब दुनिया के सारे स्मार्टफोन यूजर्स एक ही
ग्रिड या ऐप पर हों।
दुनिया के अधिकतर
स्मार्टफोन एपल के आईओएस या गूगल के एंड्रॉयड ओएस पर चलते हैं। कुछ फोन विंडोज़ पर
भी हैं। बहरहाल कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग के लिए जरूरी है कि ये सभी कंपनियां मिलकर
कोरोना ट्रैकिंग टूल बनाएं। दोनों कंपनियां मई में कोरोना वायरस ट्रैकिंग एपीआई
(एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस) जारी करेंगी। कोविड-19 व्यक्तियों के संपर्क में आने से फैलता है। किसी एक
व्यक्ति के संक्रमित होने के बाद जरूरी हो जाता है कि पता लगाया जाए कि उसका
संपर्क कितने लोगों से हुआ है, ताकि उनकी जाँच भी हो
सके। वायरस की चेन तोड़ने के लिए यह जरूरी है। इन फोनों के सॉफ्टवेयर ब्लूटूथ के
मार्फत उसके सम्पर्क में आए दूसरे फोनों का पता लगा लेंगे। इससे पता लग सकेगा कि
व्यक्ति कितने लोगों के सम्पर्क में आया। हालांकि इस तकनीक की जरूरत कोरोना वायरस
के संदर्भ में ही हुई, पर आप अब सोचें कि इस तकनीक का इस्तेमाल कितने तरीकों से हो
सकेगा।
दुरुपयोग भी संभव
फिलहाल दोनों
कंपनियों ने कहा है कि वे लोगों की निजता का उल्लंघन नहीं करेंगी, पर इस तकनीक का
इस्तेमाल अपराधों की छानबीन और गुमशुदा व्यक्तियों की तलाश से लेकर युद्धक्षेत्र
तक कहीं भी हो सकता है। हाल में ऑक्सफोर्ड के एक शोधकर्ता समूह ने कहा था कि
कोरोना वायरस की कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग परंपरागत तरीकों से कर पाना खासा मुश्किल काम
है। व्यक्ति की याददाश्त का भरोसा नहीं। वह कुछ लोगों के नाम याद रख सकता है, कुछ
के भूल जाएगा। इससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि वह बाजार में, मेट्रो और बस में
कितने लोगों से मिला, इसका तो हिसाब ही नहीं रखा जा सकता। पर यदि सबके पास फोन है,
जो कि आज के जमाने में आम बात है, तब उस व्यक्ति के मोबाइल फोन में हरेक संपर्क की
याद कायम रहेगी। याद ही नहीं समय और स्थान भी याद रखा जा सकता है।
इस तकनीक का
जिक्र आते ही शंकालु मन कहता है कि इससे से तो करोड़ों लोगों की निजता भंग होने का
खतरा पैदा हो जाएगा। क्या इसके लिए प्रयोक्ता से उसकी अनुमति ली जाएगी? क्या इसके लिए सब लोग तैयार होंगे? निजता के पक्षधरों का कहना है कि इसके दुरुपयोग
की संभावनाएं तो बनी ही रहेंगी। फिर भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इसमें सुधार की
संभावनाएं फिर भी बनी हुई हैं। अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन की कानूनी सलाहकार
जेनिफर ग्रैनिक ने कहा है कि हम प्रयास करेंगे कि यह ऐप स्वैच्छिक हो और इसका
इस्तेमाल केवल स्वास्थ्य संबद्ध कार्यों के लिए ही और केवल महामारी के समय में ही
किया जाए।
इस तकनीक के एक
और पहलू की तरफ कुछ विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया है। उनका कहना है कि मान लिया आप
किसी अपार्टमेंट के दो घरों में रहते हैं। दोनों के कमरे एक-दूसरे से जुड़े हैं।
ब्लूटूथ तो उन्हें भी कॉण्टैक्ट में दिखाएगा, जबकि ऐसा नहीं है। इस तकनीक की
जानकारी जितनी तेजी से दुनिया के सामने आई है उतनी ही तेजी से उससे जुड़े पहलू भी
सामने आ रहे हैं।
गलत जानकारियाँ
कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग के साथ-साथ इस महामारी के जिस दूसरे
पहलू का समाधान तकनीक के सहारे खोजने की कोशिश की जा रही है, वह है ‘इंफोडेमिक’ या फर्जी जानकारी या फेक न्यूज़। इंटरनेट पर इन
दिनों फैक्ट चेकिंग का कारोबार तेजी पकड़ रहा है। फैक्ट चेकिंग संस्थाएं खड़ी हो
रही हैं, पर उनकी साख का सवाल भी है। बुनियादी बात यह है कि फेक न्यूज़ किसी
उद्देश्य के साथ तैयार की जाती है। इनकी तादाद इतनी बड़ी है कि उनकी गिनती करना भी
संभव नहीं। और मान लिया सारी दुनिया की सारी फेक न्यूज़ को संकलित कर भी लिया जाए,
तब तक एक-एक जानकारी की करोड़ों आवृत्तियाँ प्रसारित-प्रचारित हो चुकी होती हैं।
फेक न्यूज़ राजनीतिक परिघटना है।
भारत में लोकसभा के 2014 के चुनाव में फेकन्यूज़ शब्द
गढ़ा भी नहीं गया था। पिछले पाँच-छह साल में इस
शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ है। किसी की छवि बनाने या बिगाड़ने, तथ्यों का हेरफेर
करने और झूठ का मायाजाल खड़ा करने की यह कला क्या तकनीक के विस्तार के साथ और
फैलेगी? क्या वैश्विक स्तर पर इसके खिलाफ कुछ
नहीं हो सकता? क्या यह वैश्वीकरण का अंतर्विरोध है
या लोकतंत्र को बेहतर बनाने के रास्ते में खड़ी एक नई चुनौती? सच
को घुमा-फिराकर पेश करना भी एक मायने में झूठ है और इस लिहाज से हम अपने मीडिया पर
नज़र डालें तो समझ में आने लगता है कि बड़ी संख्या में पत्रकार जानबूझकर या अनजाने
में अर्ध-सत्य को फैलाते हैं और यह भी मानते हैं कि हम फेकन्यूज़
के दायरे से बाहर हैं।
मुख्यधारा के मीडिया का महत्व इसलिए
है, क्योंकि वही मीडिया है, जिसपर तथ्यों की पुष्टि करने की जिम्मेदारी है। समस्या
का केन्द्र सोशल मीडिया है। संयोग से कोरोना वायरस की खबरें भी ‘इंफोडेमिक’ की शिकार हुई हैं, जिसे लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन
ने चिंता व्यक्त की है। एक छोटी सी बात पर आपने ध्यान दिया होगा। जिस
तरह एपल और गूगल ने कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग में आपसी सहयोग का निश्चय किया है, उसी तरह
कोरोना वायरस के संदर्भ में आईटी कंपनियों ने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को
पुष्ट सूचनाओं से जोड़ने का प्रयास किया है। यदि आप गूगल सर्च में किसी उपभोक्ता
सामग्री का नाम डालें, तो तमाम तरह की व्यावसायिक जानकारियाँ आपके सामने आएंगी।
इनमें ज्यादातर प्रायोजित हैं। किसी कंपनी ने इसके लिए पैसा दिया है। पर यदि आप
कोरोना वायरस के बारे में जानकारी पाना चाहें, तो सर्च इंजन आपको सीधे आधिकारिक
स्रोत का रास्ता दिखाएंगे।
वैश्विक सहयोग
फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, रेडिट, इंस्टाग्राम और पिंटरेस्ट
पर पॉप-अप सामने आएगा, जो आपको देश के स्वास्थ्य मंत्रालय या विश्व स्वास्थ्य
संगठन का रास्ता दिखाएगा। बेशक इतने मात्र से ‘इंफोडेमिक’ को रोका नहीं जा सकेगा, पर लोगों को यह बताना जरूरी है कि पुष्ट सूचनाएं कहाँ
हैं। सूचनाओं के स्रोत खुले तो हैं, पर सूचनाएं प्राप्त करना लोगों को नहीं आता
है। गूगल सर्च को कुछ लोग जादू मानकर चलते हैं। ऐसा नहीं है। गूगल सर्च से आप
उपयोगी जानकारी भी हासिल कर सकते हैं, गलत भी। यह आपकी समझदारी पर निर्भर करता है।
बहरहाल आईटी कंपनियों ने कोरोना को लेकर सामूहिक प्रयास शुरू किए हैं, जो नजर आ
रहे हैं। इसके पहले ये कंपनियाँ सामूहिक प्रयासों के लिए तैयार नहीं होती थीं।
कोरोना के खतरे ने उन्हें एक जगह आने को मजबूर किया है। इंटरनेट की विश्वव्यापी
व्यवस्था तैयार तो हो गई है, पर उसकी कोई ऐसी वैश्विक व्यवस्था नहीं है, जिसे राज
व्यवस्थाएं वैधानिक रूप से स्वीकार करें। इंटरनेट मूलतः बाजार और निजी उद्यमों पर
केंद्रित व्यवस्था है। कोरोना वायरस ने दुनिया का ध्यान एक नए खतरे की ओर खींचा
है, जो नई विश्व व्यवस्था की जरूरत बता रहा है।
ऑक्सफोर्ड रायटर्स इंस्टीट्यूट ने कोरोना वायरस से जुड़ी
225 गलत या भ्रामक जानकारियों का अध्ययन करते हुए पाया है कि 88 फीसदी जानकारियाँ
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों से फैलीं। इनके मुकाबले 9 फीसदी गलत जानकारियाँ टीवी पर
और 8 फीसदी समाचार संस्थाओं की देन थीं। इनमें एक बड़ी जानकारी यह है कि कोविड-19
का जन्म किसी प्रयोगशाला में हुआ है। प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे से पता लगा है
कि अमेरिका के करीब 30 फीसदी वयस्क व्यक्ति इस बात को सच मानते हैं। वहाँ 5-जी
तकनीक को कोरोना वायरस से जुड़ी साजिश माना जा रहा है। एक अरसे से दुनियाभर में
माना जा रहा है कि सोशल मीडिया पर किसी किस्म की लगाम पड़नी चाहिए। कैसी हो यह
लगाम और किसके हाथ में हो उसकी बागडोर यह ज्यादा बड़ा सवाल है।
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