कोरोना संकट के
कारण देश की राजनीति में अचानक ब्रेक लग गए हैं या राजनीतिक दलों को समझ में नहीं
आ रहा है कि उन्हें करना क्या है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार अपनी
स्थिति मजबूत करती जा रही है, पर विरोधी दलों की स्थिति
स्पष्ट नहीं है। वे लॉकडाउन का समर्थन करें या विरोध? लॉकडाउन के बाद जब हालात सामान्य होंगे, तब इसका राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा? बेशक अलग-अलग राज्य सरकारों की भूमिका इस दौरान महत्वपूर्ण हुई
है। साथ ही केंद्र-राज्य समन्वय के मौके भी पैदा हुए हैं।
हाल में दिल्ली
की राजनीति में भारी बदलाव आया है और वह ‘कोरोना-दौर’ में भी दिखाई पड़ रहा है।
केरल, तमिलनाडु,
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा ने अपनी कार्यकुशलता को व्यक्त करने की
पूरी कोशिश की है, साथ ही केंद्र के साथ समन्वय भी किया है। पश्चिम
बंगाल और एक सीमा तक महाराष्ट्र की रणनीतियों में अकड़ और ऐंठ है। पर ज्यादातर
राज्यों की राजनीति क्षेत्रीय है, जिनका बीजेपी के साथ सीधी
टकराव नहीं है। महत्वपूर्ण हैं कांग्रेस शासित पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अनुभव।
‘कोरोना-दौर’ में करीब डेढ़ महीने की चुप्पी के
बाद राहुल गांधी सक्रिय हुए हैं। गुरुवार को उन्होंने अचानक एक संवाददाता सम्मेलन
बुलाकर अपनी कुछ बातें कहीं। हालांकि उन्होंने सीधे-सीधे कोई राजनीतिक बयान नहीं
दिया, पर परोक्ष रूप से केंद्र सरकार पर सुस्ती बरतने
का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन इस समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रेस
कांफ्रेंस के पहले उन्होंने एक ट्वीट किया,
जिसमें कहा गया, ‘टेस्ट किट ख़रीद में देरी की गयी,अब देश में इसकी भयंकर कमी है। हर 10 लाख देशवासियों के लिए मात्र 149 टेस्ट उपलब्ध हैं।…लाओस(157), नाइजर(182) जैसे देशों में हमारी गिनती हो रही है। बड़े स्तर पे
टेस्टिंग से कोविड-19 मरीज़ की पहचान/पृथक इलाज संभव है। इसमें हम
अब तक असफल हैं।’ इस ट्वीट के निहितार्थ राजनीतिक हैं और प्रेस कांफ्रेंस में इसी
बात पर जोर देना बता रहा है कि राहुल गांधी की राजनीति की भावी दिशा क्या होगी।
हालांकि राहुल ने
लॉकडाउन पर सीधे कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की है, पर ‘टेस्ट’ को
लेकर केंद्र पर निशाना साधा है। शायद इसी वजह से उनकी प्रेस कांफ्रेंस के अगले रोज
स्वास्थ्य मंत्रालय की दैनिक ब्रीफिंग के दौरान आईसीएमआर के संसर्गजन्य रोग विभाग
के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ रमण गंगाखेडकर ने काफी विस्तार से बताया कि देश ने कोरोना
टेस्ट को लेकर जो रणनीति तैयार की है, वह सही है और लॉकडाउन का
फैसला सही समय पर करते हुए देश ने कोरोना के विरुद्ध सही रणनीति को अपनाया है। राहुल
ने प्रवासी मजदूरों की परेशानियों का सवाल भी उठाया है, जिससे कोई भी असहमत नहीं
है।
राहुल गांधी की
प्रेस कांफ्रेंस के दो दिन पहले 14 अप्रेल को नरेंद्र मोदी
के राष्ट्र के नाम संदेश के ठीक पहले कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने
देशवासियों के नाम एक वीडियो संदेश जारी किया था। इस संदेश की भाषा गैर-राजनीतिक
थी। उसमें एक प्रकार से सरकारी प्रयत्नों का समर्थन ही किया गया था। इसके पहले
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें कुछ सुझाव थे। क्या सोनिया और राहुल की रणनीति में
विसंगतियाँ हैं? क्या राहुल गांधी के संवाददाता सम्मेलन का
विचार बाद में बना? क्या पार्टी के भीतर यह धारणा बन रही है कि
सरकार का समर्थन करना हमारी दीर्घकालीन राजनीति के विरुद्ध है? क्या पार्टी को दिखाई पड़ रहा है कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई
का सारा श्रेय नरेंद्र मोदी को मिल रहा है?
इससे विचलित होकर
राहुल गांधी ने सक्रिय होने का निश्चय किया है?
क्या इसमें
उन्हें सफलता मिलेगी?
इस प्रसंग के
परिप्रेक्ष्य में ‘कोरोना-दौर’ की कुछ परिघटनाओं पर भी ध्यान देना होगा। इनमें एक
है प्रवासी कामगारों का बड़ी संख्या में पलायन और दूसरे दिल्ली में तबलीगी जमात का
सम्मेलन। इन दोनों और इनसे जुड़े दूसरे प्रसंगों के राजनीतिक निहितार्थ हैं।
लॉकडाउन की शुरुआत शाहीनबाग के धरने की समाप्ति से हुई थी, जिसमें पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा था। यह प्रसंग भी
तबलीग प्रसंग से जुड़ेगा। इस प्रसंग को लेकर मीडिया और जनता के एक तबके ने पूरे
मुस्लिम समाज को लपेट लिया है। हालांकि सरकार या बीजेपी का यह औपचारिक दृष्टिकोण
नहीं है, पर देश के ‘प्रगतिशील’ वर्ग ने इस दृष्टि पर
प्रहार किए हैं।
इस तबके को
न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और इकोनॉमिस्ट जैसे पत्रों का
समर्थन प्राप्त है और संयोग है कि ये पत्र भी मानते हैं कि भारत में कोरोना
रोगियों की संख्या कम इसलिए है, क्योंकि टेस्ट की संख्या
बहुत कम है। सच यह है कि भारत के चिकित्सा विशेषज्ञ अपनी रणनीति को सही मानते हैं।
वे समय के साथ अपनी रणनीति बदल भी रहे हैं। कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और नागरिकता संशोधन कानून पर भी विदेश
से जुड़े इस तबके की राय भारत सरकार की राय के विपरीत रही है। प्रकारांतर से राहुल
गांधी इस तबके के साथ खड़े हैं। कोरोना प्रसंग पर भी यह दृष्टि भारत सरकार से मेल
नहीं खाती है। पर क्या देश की जनता इस तबके से सहमत है? देखना होगा कि ‘कोरोना-दौर’ का अनुभव बीजेपी के पक्ष में
जाएगा या खिलाफ? यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नरेंद्र मोदी के
जनता कर्फ्यू, शाम को पाँच बजे ताली-थाली बजाने और रात के नौ
बजे दीप जलाने के आह्वान से इस तबके ने प्रत्यक्ष या परोक्ष असहमति व्यक्त की थी।
कोरोना के
विरुद्ध भारत सरकार की रणनीति में छिद्र खोजे जा सकते हैं, पर देश के संसाधनों को देखते हुए यह रणनीति काफी हद तक सफल
साबित हुई है। इसके परिणाम सामने आने में समय लगेगा और यदि इस संकट से हम बाहर आ
भी गए, तो आर्थिक-संकट सामने खड़ा है। सरकार की कड़ी
परीक्षा है, पर अभी तक नरेंद्र मोदी के समर्थन आधार में कमी
नजर नहीं आ रही है, बल्कि ‘कोरोना-दौर’ में केंद्र और कुछ
गैर-बीजेपी राज्यों के बीच अच्छा समन्वय हुआ है। इनमें दक्षिणी राज्यों के साथ
ओडिशा भी शामिल है। ‘कोरोना-दौर’ मुस्लिम वोटरों के बीच काम करने वाले दलों की
परीक्षा भी कर रहा है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों को मुस्लिम
इलाकों में जाकर उन्हें समझाने का मौका मिला था। क्या उन्होंने अपनी भूमिका अदा की? राजनीतिक खामोशी के इस दौर में भी काफी राजनीति हो रही है।
उसे समझने की कोशिश कीजिए।
No comments:
Post a Comment