बीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत कोरोना वायरस जैसी दुखद
घटना के साथ हुई है। जिस देश से इसकी शुरुआत हुई थी, उसने हालांकि बहुत जल्दी इससे
छुटकारा पा लिया, पर उसके सामने दो परीक्षाएं हैं। पहली महामारी के आर्थिक
परिणामों से जुड़ी है और दूसरी है राजनीतिक नेतृत्व की। राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने
इस वायरस को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ‘बड़ी परीक्षा’ बताया है। वहाँ उद्योग-व्यापार
फिर से चालू हो गए हैं, पर दुनिया की अर्थव्यवस्था पर संकट छाया हुआ है, जिसपर
चीनी अर्थव्यवस्था टिकी है। सवाल है कि चीनी माल की वैश्विक माँग क्या अब भी वैसी
ही रहेगी, जैसी इस संकट के पहले थी?
दुनिया के लोगों के सामने अपनी जरूरतों का कम करने की
मजबूरी है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सन 2010 से 2020 के बीच अपनी अर्थव्यवस्था
को दुगना करने का लक्ष्य रखा था। उसे इस साल पूरा होना है। इसे पूरा करने के लिए
देश को इस साल कम से कम 5.6 प्रतिशत की दर से संवृद्धि करनी होगी, जबकि विशेषज्ञों
का कहना है कि यह 2.9 प्रतिशत से आगे नहीं जाएगी। चीन ने हाल के वर्षों में
उत्पादन क्षमताओं को काफी बढ़ा लिया है। यदि माँग नहीं रहेगी, तो यह क्षमता उल्टे
गले पड़ेगी। भारी संख्या में लोग बेरोजगार होंगे और सामाजिक असंतोष बढ़ेगा।
चीन का राजनीतिक तंत्र
इस साल अमेरिका
में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है, पिछले साल भारत में संसदीय चुनाव हुए थे,
असाधारण परिस्थितियों में ब्रिटेन के चुनाव भी हुए। चीन में भी राजनीतिक बदलाव
होता है, पर हम उसका शोर सुन नहीं पाते हैं, क्योंकि हम उस प्रकार के परिवर्तन को
देखने के आदी नहीं हैं। यह बात नवम्बर 2012 में हमें देखने को मिली थी, जब चीन में
सत्ता परिवर्तन हो रहा था। चीनी नेतृत्व की एक नई पीढ़ी उस वक्त सामने आई थी। शी
जिनपिंग देश के नए राष्ट्रपति बने और ली खछ्यांग नए प्रधानमंत्री। पर वहाँ केवल दो
नेता ही नहीं होते। चीन की सर्वोच्च राजनीतिक संस्था पोलित ब्यूरो के 25 सदस्य सबसे महत्वपूर्ण
राजनेता होते हैं। इनमें भी सबसे महत्वपूर्ण होते हैं पोलित ब्यूरो की स्थायी
समिति के नौ सदस्य। इनमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी शामिल हैं।
काफी लोगों के
लिए चीन अध्ययन का विषय है। हालांकि वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है, पर व्यवहार
में उसके मुकाबले भारत समाजवादी देश है। चीन के खुदरा बाज़ार में सौ फीसदी विदेशी
निवेश सम्भव है। भारत में मनमोहन सिंह की सरकार 49 फीसदी सीमित
निवेश लागू नहीं करा पाई थी। पश्चिमी देशों की निगाह में न सिर्फ पूँजी निवेश के
मामले में बल्कि व्यापार शुरू करने और उसे चलाने के मामले में भारत के मुकाबले चीन
कहीं बेहतर है। इसका लाभ उसे मिला और उसने बढ़त बनाई।
असाधारण शक्तियाँ
माओ जे दुंग के
बाद शी चिनफिंग चीन के ऐसे राजनेता हैं, जिनके पास शक्तियाँ असाधारण रूप से
केंद्रित हैं। कुछ समय पहले तक माना जा रहा था कि वे देश के आजीवन नेता बने
रहेंगे। मार्च 2018 में चीनी जन कांग्रेस ने एक सांविधानिक संशोधन कर देश में दो
बार से ज्यादा राष्ट्रपति न बन पाने की बाध्यता खत्म कर दी। उसके बाद से माना जा रहा है कि वे अनंत
काल तक राष्ट्रपति बने रह सकते हैं, पर अब कोरोना वायरस की त्रासदी के बाद माना जा
रहा है कि पानी उतर जाने के बाद पता लगेगा कि शी का नेतृत्व बचा रहेगा या नहीं। इस बात को याद रखना
चाहिए कि अपनी आर्थिक नीतियों के कारण माओ को हाशिए पर जाना पड़ा और उनके बाद 1978
में देंग श्याओ पिंग के नेतृत्व में चीन ने बड़ी पलटी खाई थी।
चीन की
कम्युनिस्ट पार्टी हालांकि कोरोना प्रकरण को बड़ी विजय बता रही है, पर देश के भीतर
से जो खबरें छनकर आ रही हैं, उनके अनुसार देश में भय और आतंक का माहौल है। मध्य
वर्ग के उदय के कारण चीनी समाज में अब ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं, जो पश्चिमी
मीडिया तक अपनी बातें पहुँचाने में सफल हैं। शी चिनफिंग ने
राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण जरूर कर लिया है, पर चीन के निजी निवेशकों और
पश्चिमी ताकतों का उनपर भरोसा कम हो रहा है। सुपर पावर बनने उनकी महत्वाकांक्षाओं पर
तीखी वैश्विक प्रतिक्रिया हो रही है।
अभी तक चीन अपनी समस्याओं का समाधान करता रहा है, पर लगता
है कि इसबार एकसाथ कई तरह की समस्याएं सामने आएंगी। कारोबारियों पर दबाव बढ़ेगा,
दूसरी तरफ बेरोजगारी और जनता के बीच असंतोष बढ़ेगा। कोरोना प्रसंग के ठीक पहले चीन
एक तरफ हांगकांग में बगावत से निपट रहा था, वहीं ताइवान सरकार भी किसी न किसी रूप
में उसे परेशान कर रही थी। कोरोना मामले में भी चीन की फज़ीहत कराने में ताइवान की
भूमिका रही है।
शी के दुर्ग में दरार
विशेषज्ञों का कहना है कि चीन के भीतर पनप रहा असंतोष
धीरे-धीरे सामने आ रहा है। वहीं शी चिनफिंग के दुर्ग में भी दरार दिखाई पड़ने लगी
हैं। जिस वक्त चीन में कोरोना संकट सिर उठा रहा था, शी चिनफिंग परिदृश्य से गायब
हो गए थे। गत 28 जनवरी को डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस गैब्रेसस से मुलाकात
के बाद वे सार्वजनिक रूप से 5 फरवरी को कम्बोडिया के राष्ट्रपति हुन सेन के साथ
मुलाकात में ही नजर आए। वे चीनी मीडिया में हर रोज प्रकट होने वाले राजनेता हैं।
ऐसे समय में जब देश में अफरा-तफरी है उनका एक हफ्ते से ज्यादा समय तक गायब रहना
सामान्य बात नहीं है। बेशक इसका मतलब यह नहीं कि सत्ता पर उनकी पकड़ कमजोर हो रही
है, पर इतना जरूर लगता है कि नेतृत्व परेशान है।
यह निष्कर्ष निकालना भी जल्दबाजी होगी कि चीन में फौरन
व्यवस्था परिवर्तन हो जाएगा, पर इसे एक ‘अंत की शुरुआत’ के रूप से देख
सकते हैं, जो वस्तुतः मार्क्सवादी जुमला है। अभी यह भी नहीं लगता कि शी चिनफिंग के
नेतृत्व को कोई चुनौती मिलने वाली है। हालांकि वे अनंत काल तक राष्ट्रपति पद पर
बने रह सकते हैं, पर अब उनकी पहली परीक्षा यह होगी कि क्या वे वर्तमान कार्यकाल
पूरा होने के बाद 2022 में फिर से राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं। यदि कम्युनिस्ट
पार्टी के भीतर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार हुआ और यदि बदलाव की बातें हुईं, तो साल
भर पहले से वह नजर आने लगेगा। क्योंकि चीन की राजनीतिक नीतियों की झलक सत्ता
परिवर्तन के पहले से ही नजर आने लगती हैं। चीन में बदलाव खामोशी से ही होता है।
जनता का गुस्सा
फिलहाल इतना दिखाई पड़ रहा है कि चीन के सोशल मीडिया पर
जनता का गुस्सा व्यक्त होने लगा है। मसलन ह्विसिल ब्लोवर डॉक्टर ली वेनलियांग की
मौत से काफी लोग व्यथित हैं। देश में अभी तक सोशल मीडिया जैसी कोई चीज होती नहीं
थी, पर जनता की नाराजगी को दर्ज करने वाली कोई व्यवस्था जरूर थी। सन 1958-62 के
बीच माओ जे दुंग ने देश को खेतिहर समाज से कम्युनिस्ट समाज में बदलने के लिए ‘लम्बी छलांग’ कार्यक्रम
चलाया था, जिसमें करोड़ों किसानों की जान गई थी। उसके बाद माओ नाम के नेता रह गए।
उनकी वापसी भी हुई तो ‘सांस्कृतिक क्रांति’ नाम से एक और कार्यक्रम
लेकर आए, जिसकी विफलता ने उनके नेतृत्व की धार कुंठित कर दी और देंग श्याओ पिंग के
रूप में नया नेता उभर कर आया, जिसने ‘चार आधुनिकीकरण’ का मुहावरा देश को
दिया।
चीनी राजनीति में
भी बैकरूम पॉलिटिक्स काम करती है। सिद्धांततः पार्टी कांग्रेस, केंद्रीय समिति के
सदस्यों का चुनाव करती है जो पोलित ब्यूरो और इसकी स्थायी समिति को चुनते हैं।
व्यावहारिक रूप से बड़े नेता महत्वपूर्ण फैसले करते हैं, जिन्हें पार्टी संगठन मान लेता है। माओ जे दुंग और देंग
श्याओपिंग के समय शीर्ष नेताओं ने अपने उत्तराधिकारियों का नाम खुद तय किया था।
अलबत्ता माओ ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में ह्वा ग्वो फेंग को चुना था या देंग
श्याओ पिंग को यह आज यह बता पाना मुश्किल है,
पर गैंग ऑफ फोर
के रूप में जिन नेताओं को धिक्कारा गया था, वे माओ के करीबी थे। फिलहाल शी चिनफिंग
के सामने सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को संभालने की है। परिणाम सामने आने में
कम से कम छह महीने तो लगेंगे।
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