नोटबंदी के दो हफ्ते बाद उसकी राजनीति ने अँगड़ाई
लेना शुरू कर दिया है. बुधवार को संसद भवन में गांधी प्रतिमा के पास तकरीबन 200
सांसदों ने जमा होकर अपनी नाराजगी को व्यक्त किया. वहीं तृणमूल कांग्रेस की नेता
ममता बनर्जी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर जंतर-मंतर पर रैली की. गुरुवार को
संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस, सीपीएम तथा बसपा ने सरकार की घेराबंदी की. कांग्रेस
ने पूर्व प्रधानमंत्री को इस फैसले के खिलाफ खड़ा किया, जबकि अमूमन मनमोहन सिंह
बोलते नहीं हैं. कांग्रेस मनमोहन की विशेषज्ञता का लाभ लेना चाहती थी. पर मनमोहन सिंह ने इस फैसले की नहीं, उसे लागू करने वाली व्यवस्था की आलोचना की, उधर मायावती ने कहा कि हिम्मत है तो लोकसभा भंग
करके चुनाव करा लो. पता लग जाएगा कि जनता आपके साथ है या नहीं. उम्मीद थी कि संसद
के इस सत्र पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ हावी होगा, पर नोटबंदी
ने विपक्ष की मुराद पूरी कर दी.
नोटबंदी की घोषणा के बाद विपक्ष पहले दो-तीन दिन सन्नाटे
में रहा. फिर ममता ने सबसे पहले 16 नवम्बर को राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया. उनके
साथ शिव सेना,
नेशनल कांफ्रेंस
और आम आदमी पार्टी के नेताओं सहित 40 के आसपास सांसद भी शामिल थे. उस मार्च और
बुधवार की रैली तक विरोधी प्रतिक्रिया के स्वरों में काफी बदलाव आ चुका है. अब 28
नवम्बर को इस आंदोलन का दूसरा चरण ‘आक्रोश दिवस’ के रूप में शुरू
होगा. फिलहाल इस हफ्ते के घटनाक्रम पर नजर डालें तो नजर आएगा कि ममता बनर्जी ने
पहल ले ली है.
दिल्ली में पूछे गए एक सवाल के जवाब में ममता बनर्जी ने कहा
कि मैं यहाँ चुनाव की रणनीति पर बात करने नहीं आई हूँ. मैं केवल इतना कह रही हूँ
कि विमुद्रीकरण से गाँव और खेती को बड़ा धक्का लगने जा रहा है. पर क्या यह आंदोलन
चुनाव की दूरगामी राजनीति का हिस्सा नहीं है? जंतर-मंतर की रैली में सपा के धर्मेन्द्र यादव और
एनसीपी मजीद मेमन ने कहा कि हमारी पार्टी ममता के नेतृत्व में केन्द्र सरकार के
खिलाफ लड़ने को तैयार है. इस बयान का बड़ा मतलब न भी निकालें तब भी ममता की रैली
से ‘राष्ट्रीय स्तर पर
महागठबंधन’ के संकेत दे रही है.
ममता बनर्जी, जेडीयू, सपा, एनसीपी और आम आदमी पार्टी से सम्पर्क
करके नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की योजना बना रही हैं. क्या यह आंदोलन सफल
होगा? क्या मोदी सरकार
नोटबंदी के भँवर में फँसकर रह जाएगी? जंतर-मंतर रैली
के बाद अचानक ममता बनर्जी का कद मोदी की बराबरी पर नजर आने लगा है. खबरें हैं कि अब
ममता बनर्जी लखनऊ, पटना और पंजाब के शहरों में रैलियाँ करने की योजना बना रहीं हैं.
यानी नोटबंदी के खिलाफ राजनीति इसके आगे जाएगी. ममता बनर्जी की इस पहल के पहले शरद
पवार इस बात को कह चुके हैं कि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस
एक-दूसरे के करीब आ सकते हैं. तीनों पार्टियाँ कांग्रेस से निकली हैं.
पुराने कांग्रेसी और जनता परिवार के बिछड़े दोस्त क्या
मिलकर राष्ट्रीय विकल्प बनकर उभर सकते हैं? ऐसा है तो कांग्रेस का
क्या होगा? क्या कांग्रेस किसी
राष्ट्रीय महागठबंधन में शामिल होने को तैयार है? क्या वह ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकार कर सकती
है? क्या उसके पास चुनाव
को जीतने का कोई फॉर्मूला है? क्या अब भी एनडीए का विकल्प यूपीए है? क्या कांग्रेस विपक्षी सीढ़ी पर एक
पायदान और नीचे चले जाएगी? ऐसे तमाम सवाल एक साथ उभर कर आ रहे हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के पास
फिलहाल राज्यसभा में सरकार को घेरने और लोकसभा में व्यवधान पैदा करने से आगे की
रणनीति पर नहीं चल पा रही है. इसमें उसे सीपीएम का सहयोग मिला है. उत्तर प्रदेश और
पंजाब में पार्टी अकेले चुनाव मैदान में उतरी है. यदि सरकार बनाने की सम्भावना हुई
तो उसका फैसला क्या होगा, अभी यह स्पष्ट नहीं है. पंजाब में यदि किसी को स्पष्ट
बहुमत नहीं मिला तो क्या वह आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है? यह स्थिति उत्तर प्रदेश में हुई
तो क्या वह बसपा या सपा के साथ मिलकर सरकार बनाएगी?
जरूरी नहीं कि इन सवालों के जवाब
आज ही दिए जाएं, पर इन सम्भावनाओं को अपने आंतरिक विमर्श में तो शामिल करना ही
होगा. ज्यादा बड़ी बात यह है कि पार्टी अगले तीन साल में किस प्रकार की सम्भावनाओं
को देख रही है. सन 2004 में
यूपीए बनने के पहले से सोनिया गांधी ने दूसरे विरोधी दलों के साथ सम्पर्क शुरू कर
दिया था. पर अब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सम्भावना बनती नजर नहीं आ रही है.
सोनिया गांधी ने अपने व्यक्तिगत प्रभाव से पार्टी को एक
नाजुक मौके पर बचाकर रखा था. अब नेतृत्व में बदलाव की घड़ी है. लगता नहीं कि राहुल
गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चा खड़ा होगा. ऐसे में
ममता बनर्जी का उभर कर सामने आना कांग्रेस के लिए अच्छी खबर नहीं है. राहुल गांधी
मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार के बराबर कद के नेता भी नजर नहीं आते हैं. और
यह भी साफ है कि विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में आने से संकोच कर रहा है.
कांग्रेस का इरादा था कि संसद में सरकार को घेरेंगे. ममता
बनर्जी ने इसे आंदोलन का शक्ल देकर इसे दूसरी शक्ल दे दी है. इस वक्त हो रहा विरोध
प्रदर्शन किसी एक संगठन के झंडे तले नहीं है और न इसका समन्वय किसी ने किया है, पर
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस इसमें सबसे आगे होने का आभास
नहीं दे पाई है. विरोधी दलों में केवल कांग्रेस पार्टी के पास राष्ट्रीय स्तर पर संगठन है.
इसलिए उसका महत्व है. अपने महत्व के अनुरूप क्या वह सबसे आगे आएगी?
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अपने
आक्रामक इरादों की घोषणा कर भी दी है. आज शुक्रवार को पार्टी कानपुर में रिजर्व
बैंक के कार्यालय को घेरने जा रही है. इसके बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश में रैलियाँ
आयोजित करेगी. इन रैलियों को राहुल गांधी सम्बोधित करने की योजना बना रहे हैं.
कांग्रेस के पास इसके अलावा रास्ता भी नहीं है. सवाल है कि इस राजनीतिक संग्राम को
जनता किस तरीके से देख रही है. नकदी की स्थिति सुधरी नहीं तो अगले दो-तीन हफ्तों
में खाद्य वस्तुओं को लेकर दिक्कत पैदा हो सकती है. ट्रकों के संचालन के लिए नकदी
की जरूरत है. फिलहाल विपक्ष से ज्यादा सरकार की परीक्षा है.
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