Saturday, September 27, 2014

न्यूक्लियर डील के पेचो-ख़म

पहले जापान, फिर चीन और अब अमेरिका के साथ बातचीत की बेला में भारतीय विदेश नीति के अंतर्विरोध नज़र आने लगे हैं। सन 2005 के भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग के समझौते के बाद सन 2008 के न्यूक्लियर डील ने दोनों देशों को काफी करीब कर दिया था। इसी डील ने दोनों के बीच खटास पैदा कर दी है। विवाद की जड़ में है सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 की वे व्यवस्थाएं जो परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा देने की स्थिति में उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी पर जिम्मेदारी डालती हैं। खासतौर से इस कानून की धारा 17 से जुड़े मसले पर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं है। यह असहमति केवल अमेरिका के साथ ही नहीं है, दूसरे देशों के साथ भी है। जापान के साथ तो हमारा कुछ बुनियादी बातों को लेकर समझौता ही नहीं हो पा रहा है।


जब सन 2010 में यह कानून पास हो रहा था तब भारतीय जनता पार्टी भी कड़ी शर्तें लागू करने की पक्षधर थी। बाद में यूपीए सरकार पर जब अमेरिकी दबाव पड़ा तो रास्ते खोजे जाने लगे। भारत में परमाणु बिजली बनाने का काम सरकारी कम्पनी न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड करती है और कानून में ऑपरेटर यानी बिजली बनाने वाली संस्था के मुकाबले उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी की देनदारी काफी ज्यादा है। यह कानून पास हो गया, पर सरकार यह कहती रही कि इस कानून के तहत मुआवजे का ज्यादा बोझ पड़ने पर निवेशकर्त्ता परमाणु क्षेत्र में पैसा लगाने से पीछे हट जाएंगे। यों इस बिल में मुआवजे की राशि के अलावा अन्य कई मुद्दों पर भारी असहमतियाँ हैं। मसलन जो राशि इस वक्त दिखाई पड़ती है वह 1989 के भोपाल हादसे की राशि से भी कम है।

परमाणु ऊर्जा से जुड़े हादसों पर पेरिस कनवेंशन, वियना कनवेंशन और कनवेंशन ऑन सप्लीमेंट्री कम्पैंशेसन (सीएससी) जैसे तीन अंतरराष्ट्रीय संधियाँ हैं। भारत के न्यूक्लियर लायबिलिटी कानून में सीएससी से मुआवजा देने का अनुरोध करने की व्यवस्था भी है। पर जब तक चीजें साफ नहीं होतीं तब तक यह मामला अधर में रहेगा। भारत के साथ जब अमेरिका का न्यूक्लियर डील हुआ था तब अमेरिकी कम्पनियों को उम्मीद थी कि तकरीबन 140 अरब डॉलर के रिएक्टरों और अन्य उपकरणों के सौदे भारत के साथ होंगे। अमेरिका को अफसोस इस बात का है कि परमाणु अप्रसार लॉबी के भारी विरोध के बावजूद भारत का समर्थन किया, पर बदले में कुछ मिला नहीं।

जापान में फुकुशिमा हादसे के बाद से दुनिया परमाणु बिजली के इस्तेमाल को लेकर यों भी संवेदनशील है, पर अभी तक ऊर्जा प्राप्ति के लिए कोई वैकल्पिक पद्धति सामने नहीं आ पाई है। यह भी सही है कि परमाणु बिजलीघरों में हादसों की संख्या लगभग शून्य के आसपास है, पर जोखिम बहुत ज्यादा है। माना जाता है कि फुकुशिमा हादसा भी परमाणु उपकरणों की खराबी से नहीं दूसरे कारणों की देन था। बहरहाल इस वक्त नाभिकीय ऊर्जा का मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के कारण उठा है। पिछले साल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सितम्बर के महीने में अमेरिका यात्रा के समय भी यह मामला उठा था। तब एक खबर यह थी कि अमेरिकी कंपनियों के लिए सरकार नाभिकीय उत्तरदायित्व कानून में रियायत देने जा रही है। उस वक्त भाजपा ने इसे मनमोहन सरकार का अमेरिका के आगे झुकने वाला कदम बताया था। और अब वही सवाल भाजपा के सामने है।

फिलहाल नरेंद्र मोदी इस मामले से कन्नी काटना चाहते हैं। उनका कहना है कि हमारी सरकार नई है, इसलिए हम बड़े फैसले करने की स्थिति में नहीं हैं। गुजरात के मिठीविरदी में नाभिकीय संयंत्र के लिए अमेरिकी कंपनी वेस्टिंगहाउस से एक करोड़ 51 लाख 60 हजार डॉलर में 1000 मैगावाट के छह रिएक्टर खरीदे जाने हैं। लेकिन इस पर अंतिम समझौता करने से पहले वेस्टिंगहाउस कंपनी चाहती थी कि भारतीय संसद में पारित परमाणु दायित्व कानून उस पर नहीं थोपा जाए। यूपीए सरकार ने इस कानून को ढीला करने की काफी कोशिश की और अब यह कोशिश भाजपा सरकार भी करेगी। सरकार के पास एक तरीका तो ऑपरेटर और उपकरण सप्लाई करने वाली संस्था के बीच समझौते के रूप में है। यानी ऑपरेटर ही अपनी तरफ से छूट दे दे। दूसरा तरीका संसद में प्रस्ताव लाकर छूट देने का है, पर सरकार राज्यसभा से इस आशय का प्रस्ताव पास नहीं करा पाएगी। पिछले साल तक अमेरिका को छूट देने की समर्थक कांग्रेस इस साल इस मामले पर कड़ा रुख अख्तियार करेगी।

इस मामले को लेकर दो याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं। यदि अदालत नाभिकीय दायित्व कानून को अवैधानिक करार दे तब भी अमेरिकी कम्पनियों के साथ समझौते हो सकेंगे। भारत सन 2020 तक 20,000 मैगावॉट न्यूक्लियर बिजली बनाने की और 2032 तक 60,000 मैगावॉट की क्षमता हासिल करना चाहता है। नाभिकीय दायित्व कानून के अलावा लगभग हर उस जगह पर जहाँ बिजली घर बनाने की बात है जनांदोलन खड़े हो गए हैं। इनसे निपटने की चुनौती अलग है। फिलहाल नरेंद्र मोदी की यात्रा में बड़ा पेच न्यूक्लियर डील का है, जो लगता नहीं कि इस बार सुलझ पाएगा।






1 comment:

  1. काफी अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर
    अच्छा ब्लॉग है आपका !
    आपका ब्लॉग फॉलो कर रहा हूँ
    आपसे अनुरोध करता हूँ की मेरे ब्लॉग पर आये
    और फॉलो कर अपने सुझाव दे

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