जब
हम राजनीति में सक्रिय होते हैं तो जाने-अनजाने सिस्टम से जुड़े संवेदनशील सवालों से
भी रूबरू होते हैं। टू-जी घोटाले के कारण पिछले दो साल से भारतीय राजनीति में भूचाल
आया है। यह भूचाल केवल राजनीति तक सीमित रहता तब ठीक भी था, पर इसने हमारी सांविधानिक
संस्थाओं को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। संसद के कई सत्र परोक्ष या अपरोक्ष रूप
से पूरी तरह या आंशिक रूप से ठप हो गए। यह व्यवस्था की विसंगति है और राजनीति की भी।
सीएजी दफ्तर के पूर्व महानिदेशक आरपी सिंह के बयान के बाद और कुछ हो या न हो, इतना
ज़रूर झलक रहा है कि सीएजी की रपटें भी राजनीति के रंग से रंग सकती हैं। टू-जी के स्पेक्ट्रम
आबंटन की कीमत किस आधार पर तय होनी चाहिए थी और संभावित नुकसान कितना हुआ, उसे लेकर
लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी का नाम जुड़ गया है। इससे सीएजी विनोद
राय विवादास्पद हो गए हैं। इसके पहले कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी इस
बात को कह रहे थे, पर अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इस बात को रेखांकित किया
है। अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में यह विवाद किस दिशा में जाएगा। इसके
पहले पीएमओ में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने सीएजी की कार्यशैली पर टिप्पणी की थी
और कहा था कि सरकार सीएजी को एक के बजाय अनेक सदस्यों का बनाने पर विचार करेगी। इस
बयान के फौरन बाद प्रधानमंत्री ने सफाई दी कि ऐसा कोई विचार नहीं है, पर सीएजी को लेकर
सरकार के मन में कड़वाहट ज़रूर है।
भारतीय
लोकतंत्र की सफलता के पीछे उसकी सांविधानिक संस्थाओं की ताकत और उनकी प्रतिबद्धता है।
1975 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को
रद्द करने का फैसला किया तो शायद पहली बार दुनिया को लगा कि भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं
काम भी कर सकती हैं। हाई कोर्ट के उस फैसले के बाद देश की राजनीति ने दूसरी करवट ली
और संविधान की किताब से ही आपत्काल की व्यवस्था को निकाला गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू
की गई और सामान्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को स्थगित किया गया। यही 1976 में हमारी
संसद ने बयालीसवाँ संविधान संशोधन विधेयक पास करके सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक समीक्षा
अधिकार को सीमित कर दिया था। पर इससे क्या हुआ? 1977 में कांग्रेस पार्टी की
भारी हार हुई। उसके बाद बनी संसद ने उस अधिकार को पुनर्स्थापित किया। इसके अलावा ऐसी
व्यवस्थाएं कीं ताकि इमर्जेंसी दुबारा न लगाई जा सके। सवाल यह है कि जन भावना किस रूप
में और कब व्यक्त होगी। पर इसके लिए हमें समुचित संस्थाओं की ज़रूरत है। चुनाव आयोग
की भूमिका को देखें तो बात बेहतर समझ में आती है। दूसरी ओर राज्यपालों के पद और संसद
और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिकाओं के सवाल आज भी सामने हैं।
इनके जवाब इस व्यवस्था में से ही निकलकर आएंगे।
उत्तर
प्रदेश में मायावती की सरकार ने सरकारी खजाने से पार्कों स्मारकों का निर्माण कराया।
उनके पास विधान सभा में बहुमत था। जनता को पाँच साल में एक बार फैसला करने का मौका
मिलता है। उसने जो भी फैसला किया उसमें स्मारकों के निर्माण पर आपत्ति थी या नहीं,
यह निष्कर्ष निकालना राजनेताओं का काम है। मायावती के बाद आई समाजवादी पार्टी की सरकार
ने मुलायम सिंह के जन्म दिन पर किसानों के पचास हजार तक के कर्जे माफ कर दिए। प्रदेश
सरकार के सामने आर्थिक संकट है। उसे फैसले करने का अधिकार है, पर जनता को फैसला करने
के मौके रोज़-रोज़ नहीं मिलते। सीएजी का काम सरकारी खर्च में हुई अनियमितताओं पर नज़र
रखना है। उसे यह ज़िम्मेदारी संविधान ने दी है। सीएजी की ज़िम्मेदारी राजनीति से परे
रहकर काम करने की है। इसमें राजनीति का प्रवेश सम्भव भी है तो उसे रोकने की ज़िम्मेदारी
राजनीतिक दलों की है।
लम्बे
समय तक दबाव में रहीं कांग्रेस पार्टी आक्रामक होकर सामने आ रही है। लोकसभा का यह सत्र
शुरू होते ही ममता बनर्जी की पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया, जिसे विफल होना
ही था। सरकार सोमवार को कैश ट्रांसफर का जबर्दस्त कार्यक्रम लेकर आ रही है। यह पूरी
तरह लागू हुआ तो अपने किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम साबित होगा। इसमें गरीबों
को हर तरह की सब्सिडी सीधे उनके बैंक खातों में जाएगी, ताकि बीच के लोग उसमें डंडी
न मार सकें। यह राजनीतिक कार्यक्रम है। इसके फायदे और नुकसान कुछ समय बाद ही सामने
आएंगे। सरकार को इस काम की उपयोगिता जनता के सामने रखनी है। यह काम संसदीय मंच पर होता
है। दुर्भाग्य है हम संसद को शोर मचाने के प्लेटफॉर्म के रूप में ही देख पा रहे हैं।
संसद के इस सत्र में अनेक महत्वपूर्ण कानून पेश होने वाले हैं। सवाल है क्या वे पेश
हो पाएंगे? संसद विचार-विनिमय का सबसे ऊँचा फोरम है। हाल के वर्षों में सामाजिक बदलाव
में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सामाजिक न्याय, पंचायती राज
व्यवस्था, सार्वभौमिक शिक्षा के अधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसे अनेक कार्यक्रमों का श्रेय हमारी संसद को
जाता है। इस व्यवस्था के संचालन में सबसे बड़ी भूमिका संसद की है। जनता से सीधे वही
जुड़ती है। क्या यह संसद अपने सदस्यों की भूमिका की जाँच की जिम्मेदारी किसी संस्था
या व्यवस्था को देना चाहेगी? यह सवाल व्यवस्थागत सुधार का है।
हाल में संसद के सामने पैसे लेकर सवाल पूछने और सांसद निधि के दुरुपयोग के मामले सामने
आए। कुछ सदस्यों की सदस्यता खत्म हुई। यह व्यवस्थागत बदलाव ही है। पर इसी संसद के सामने
अनेक मामले ऐसे पड़े हैं, जो राजनीति के कारण आगे बढ़ नहीं पा
रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक पर सर्वदलीय बैठकों के बाद भी नतीज़ा शून्य रहता है,
क्यों? भोजन के अधिकार और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लेकर बिल
का मसौदा तैयार है। इस सत्र में यह आगे बढ़ेगा या नहीं कहना मुश्किल है। उद्योगों के
लिए जमीन के अधिग्रहण के कानून पर भी संसद को चर्चा करने का मौका नहीं मिल पा रहा है।
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के मामले पर चर्चा किस तरह हो, यह राजनीतिक सवाल है।
विपक्ष चाहता है कि इस पर नियम 184 के तहत चर्चा हो, जिसमें मतदान होता है। ऐसा होने
पर सपा और बसपा के अंतर्विरोध सामने आएंगे। राजनीति में खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग
होते हैं।
हमारी
न्याय व्यवस्था, सेना, रिज़र्व बैंक, पुलिस जैसी अन्य व्यवस्थाएं एक संवैधानिक ताने-बाने
से जुड़ी हैं। इन सबका लक्ष्य देश को आधुनिक और आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक दृष्टि से मजबूत
बनाना है। एक अरसे से राज्य सरकारें पुलिस सुधार के काम को रोक कर बैठी हैं। राजनीति
में पुलिस का इस्तेमाल आम हो गया है। इसी तरह सीबीआई का इस्तेमाल केन्द्र सरकार करती
है। लोकपाल कानून को लेकर लम्बी चली बहस से इतनी बात तो सामने आई कि इस संस्था का दुरुपयोग
होता है, पर प्रायः सभी दलों ने उसे स्वतंत्र बनाने के रास्ते में रुकावट डाली। जिस
तरह लोकपाल-व्यवस्था लम्बे अरसे से कानून बनने का इंतज़ार कर रही है उसी तरह चुनाव
सुधार का काम भी लम्बे समय से राष्ट्रीय रेडार पर है। पार्टयों की फंडिंग सारे घोटालों
के मूल में है। पिछले दो दशक में चुनाव सुधार के तमाम सुझाव आते गए हैं, पर हुआ कुछ
नहीं। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति,
1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन
2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव
आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को एक
साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि बदलाव की काफी गुंजाइश मौजूद है। दोष राजनीति
में है, व्यवस्था में नहीं। हम घटिया राजनीति के सहारे उम्दा व्यवस्था बनाना चाहते
हैं तो यह गलत है। शुरूआत राजनीति से होनी चाहिए। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
हिन्दू में केशव का कार्टून |
संसद मे शुद्ध राजनीतिज्ञ हैं ही कितने?बहुमत मे तो करोड़पति-व्यापारी/उद्योगपति ही वहाँ बैठे हाँ जो अपने ही हितों को साध रहे हैं। जनता से उनको क्या सरोकार?वे ही 'राजनीति' और 'राजनीतिज्ञों' को कोसते तथा अपने चाटुकारों-हज़ारे/केजरी/R देव आदि से राजनीति पर प्रहार करवाते हैं।
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