Friday, November 30, 2012

बड़े राजनीतिक गेम चेंजर की तलाश

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
 कांग्रेस पार्टी ने कंडीशनल कैश ट्रांसफर कार्यक्रम को तैयार किया है, जिसे आने वाले समय का सबसे बड़ा गेम चेंजर माना जा रहा है। सन 2004 में एनडीए की पराजय से सबक लेकर कांग्रेस ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें तलाशनी शुरू की थी, जिसमें उसे सफलता मिली है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने उसे 2009 का चुनाव जिताया। उसे पंचायत राज की शुरूआत का श्रेय भी दिया जा सकता है। सूचना के अधिकार पर भी वह अपना दावा पेश करती है, पर इसका श्रेय विश्वनाथ प्रताप सिंह को दिया जाना चाहिए। इसी तरह आधार योजना का बुनियादी काम एनडीए शासन में हुआ था। सर्व शिक्षा कार्यक्रम भी एनडीए की देन है। हालांकि शिक्षा के अधिकार का कानून अभी तक प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है, पर जिस दिन यह अपने पूरे अर्थ में लागू होगा, वह दिन एक नई क्रांति का दिन होगा। भोजन के अधिकार का मसौदा तो सरकार ने तैयार कर लिया है, पर उसे अभी तक कानून का रूप नहीं दिया जा सका है। प्रधानमंत्री ने हाल में घोषणा भी की है कि अगली पंचवर्षीय योजना से देश के सभी अस्पतालों में जेनरिक दवाएं मुफ्त में मिलने लगेंगी। सामान्य व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है। कंडीशनल कैश ट्रांसफर योजना का मतलब है कि सरकार नागरिकों को जो भी सब्सिडी देगी वह नकद राशि के रूप में उसके बैंक खाते में जाएगी।

देश के गरीबों और गरीबी की बात जब भी होती है तब वह दो-तीन मोड़ों पर आकर खत्म हो जाती है। एक मोड़ यह होता है कि हमारा सारा आर्थिक विकास बेकार है, क्योंकि यह विकास इतनी असमानता पैदा कर रहा है कि वह गरीबी दूर करने से तो रहा। दूसरे मोड़ पर बात तब खत्म होती है, जब कहा जाता है कि भारत की सामाजिक संरचना ऐसी है कि गरीबी इसके मूल में है। दलित और पिछड़ी जातियाँ गरीबी के ऐसे चक्र में घिरी है, जहाँ से उनका बाहर निकलना मुमकिन नहीं, क्योंकि सामाजिक स्तर पर अन्याय है। यह अन्याय भी हजारों साल पुराना है। और तीसरा मोड़ तब आता है जब हम कहते हैं कि सरकार ने गरीबों के कल्याण की योजनाएं बनाईं भी तो उनका कोई लाभ नहीं, क्योंकि समूची व्यवस्था भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है। यानी देश में एक खास तबका है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर बैठा है, जो गरीबी को दूर होने नहीं देना चाहता। वह ताकतवर है इसलिए सारे साधनों पर उसका कब्ज़ा है। वही पढ़ा-लिखा है, उसके पास ही सत्ता की कुंजी है इसलिए सरकारी साधनों को वह खा जाता है। और यही तबका भ्रष्ट है, इसलिए वह डबल खाता है। यानी ईमानदारी या बेईमानी से हर तरह वही मुटा रहा है।
यह बात आंशिक रूप से सच हो सकती है, पर देश की राजनीति-सामाजिक परिस्थितियों को देखें तो यह पूरी तरह सच नहीं है। पिछले 65 साल में हमने काफी बदलाव देखा है। कम से कम भारत ने ज़मीन्दारी उन्मूलन का काम किया, जिससे भूमि सम्बन्धों में बड़ा बदलाव आया। पर इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिली। जिन राज्यों ने भूमि वितरण के काम को बेहतर तरीके से किया वहाँ साक्षरता, स्त्री शिक्षा, जन-स्वास्थ्य, आवास और मानव कल्याण के दूसरे कार्यक्रमों को सफलता मिली। और जहाँ यह काम नहीं हो पाया वहाँ मानव विकास का काम भी पीछे रह गया। सामाजिक न्याय के साथ भी यही बात लागू होती है। दक्षिण भारत के राज्यों में मध्यवर्ती जातियों का राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सासंकृतिक विकास बेहतर हुआ। उनके आंदोलन भी बेहतर थे। उत्तर भारत में अपेक्षाकृत देर से दलित तथा अन्य पिछड़ी जातियों के आंदोलन शुरू हुए हैं। अभी यह काम चल ही रहा है और आशा है अगले कुछ साल में शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन की कहानी बदलेगी। 
यह भी सच है कि सरकारी खजाने से गरीबों के नाम जाने वाला पैसा बिचौलियों की झोली में चला जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का वह भाषण मशहूर है कि दिल्ली से गए एक रुपए में से पन्द्रह पैसे ही गरीब तक पहुँच पाते हैं। कंडीशनल कैश ट्रांसफर का उद्देश्य केवल पैसे को सही जगह पर पहुँचाना ही नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि सामाजिक बदलाव के लिए लगाई गई रकम का अपेक्षित परिणाम मिले। यह पैसा भविष्य पर निवेश है। दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी भारत में है। यदि वह सुशिक्षित-सुप्रशिक्षित हो तो हमारी विकास गति और तेज होगी। उसका विकास न हो पाया तो वही आबादी खतरा बन जाएगी। इस अर्थ में नक्सली समस्या हमारे विकास की समस्या है। बहरहाल वित्तमंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक पहली जनवरी 2013 से 'कैश सब्सिडी योजना' लागू की जाएगी यानी विभिन्न मंत्रालयों द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में हस्तांतरित कर दिया जाएगा। 'डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम' के लिए 42 सरकारी योजनाओं की पहचान की गई है। इनमें से 29 योजनाओं को पहली जनवरी से देश के 51 जिलों में लागू किया जाएगा। पहली अप्रैल, 2014 से देश भर के करीब 10 करोड़ गरीब परिवारों को 32 हज़ार रुपये सालाना का भुगतान होगा, यानी सालाना तीन लाख बीस हजार करोड़ रुपये। लाभ लेने वाले लोगों का बैंक खाता आधार कार्ड के जरिए खोला जाएगा। आधार कार्ड के इस्तेमाल से कोई शख्स एक ही योजना का लाभ दो बार नहीं ले पाएगा। राजस्थान में अनुदानित केरोसीन तेल के भुगतान और कर्नाटक में रसोई गैस की अनुदानित भुगतान की योजनाओं को इसके अंतर्गत पहले ही लागू किया जा चुका है।
सवाल है कि क्या यह योजना लागू हो पाएगी? देश की 120 करोड़ से ज़्यादा की आबादी में से सिर्फ 21 करोड़ लोगों के आधार कार्ड बने हैं। दूसरे ग्रामीण रोजगार योजना में कैश ट्रांसफर का अनुभव अच्छा नहीं है। बिचौलिए अब भी काम कर रहे हैं। लोगों को मजदूरी देर से मिल रही है। और बेनामी मजदूर काम कर रहे हैं। अर्थशास्त्री ज्याँ द्रेज़ ने राजस्थान में केरोसीन तेल खरीदने वालों का सर्व कराकर पता लगाया कि लोगों के खाते में सात-सात महीनों से पैसा नहीं आया। बड़ी संख्या में लोगों का बैंक एकाउंट खोलना, पासबुक रखना वगैरह आसान काम नहीं है। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का कहना है कि कैश ट्रांसफर योजना के कारण देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) खत्म हो जाएगी। इसके सहारे कुछ लोगों तक अनाज पहुँच जाता था, अब वह भी नहीं पहुँचेगा। पीडीएस के बारे में अनुभव यह है कि इस प्रणाली को चलाने वालों पर दबाव डाला जाए तो यह काम भी करती है। साठ के दशक में एक दौर ऐसा था जब अनाज और चीनी के लिए देश का काफी बड़ा तबका इस प्रणाली पर आश्रित था।
बहरहाल ये शुरूआती आपत्तियाँ हैं, योजना के लागू होने के बाद व्यावहारिक रूप से पता लगेगा। हाल में अर्थशास्त्री विवेक देब्रॉय ने इस बात की ओर इशारा किया कि सब्सिडी के पात्र वे लोग हैं जो गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं। लेकिन समस्या यह है कि जिन्हें बीपीएल कार्ड जारी होना चाहिए था, उनमें से कइयों को यह नहीं मिला और जिन्हें बीपीएल कार्ड नहीं दिया जाना चाहिए था, उनमें से बहुत को यह मिल गया। अगर यह बात सामने आ रही है कि पीडीएस का फायदा गैर-बीपीएल लोगों को मिल रहा है तो हमें सतर्क होना होगा। मतलब यह कतई नहीं कि कंडीशनल कैश ट्रांसफर में कोई खराबी है। एशिया और लैटिन अमेरिका के कई विकासशील देश इसका सफलतापूर्वक प्रयोग कर चुके हैं। खास तौर पर शिक्षा के क्षेत्र में, कई तरह के शिक्षा कूपन (एजुकेशन वाउचर) का प्रयोग भी हो चुका है। कांग्रेस पार्टी इसे राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में ला रही है और वह इसका राजनीतिक लाभ लेना भी चाहेगी, पर यह सिर्फ प्रचारात्मक नहीं रहना चाहिए। सिर्फ एक चुनाव जीतने के लिए इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ नारा उपयोगी साबित हुआ, पर हुआ क्या? गरीबी तो वहीं की वहीं रही।  जनवाणी में प्रकाशित

2 comments:

  1. काफ़ी कुछ सोचने पर मजबूर करता एक अच्छा लेख !

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