Friday, November 9, 2012

मछली बाज़ार और मीडिया की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती


वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बेटे के खिलाफ ट्वीट करने पर युवा उद्योगपति रवि श्रीनिवासन को इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 66-ए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पहले बंगाल में कार्टून प्रकरण हुआ था। असीम त्रिवेदी का प्रकरण भी हाल की बात है। सायबर स्पेस में अपराध बढ़ रहे हैं। बैंकों के साथ धोखाधड़ी, क्रेडिट कार्ड और एटीएम के दुरुपयोग बढ़ रहे हैं। अब तो एमएस आते हैं कि आपके नाम पाँच करोड़ की लॉटरी खुल गई है। अपने बारे में जानकारी भेजें। हर रोज़ ई-मेल के इनबॉक्स में अनेक स्पैम-मेल होती है। बावज़ूद इसके कि जीमेल सिस्टम अपनी तरफ से काफी मेल स्पैम मानकर ट्रैश में भेज देता है। सायबर स्पेस का संवाद दोधारी तलवार की तरह घाव करता है। अभद्रता बढ़ी है और शालीन तरीके से अपनी बात कहने वाले दबे हैं। बदमज़गी का माहौल है।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिमाचल के मंडी इलाके में आयोजित चुनावी रैली में केंद्र सरकार के मंत्रिमंडलीय फेरबदल पर की अपनी टिप्पणी में निजता की सीमा लांघ दी। उनका कहना था, वाह क्या गर्लफ्रेंड है। आपने कभी देखी है 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड?  इसके बाद ट्विटर पर दोनों पक्षों की ओर से टीका-टिप्पणी हो रही है। ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग समेत समूचे सायबर मीडिया का भ्रमण करें तो समझदारी, विवेक, शालीनता और तार्किकता के ऊपर अभद्रता, अश्लीलता, चरित्र हनन और अफवाहों को हावी होते पाएंगे। दो महीने पहले म्यामांर और असम की तस्वीरों के सहारे पूरे देश का माहौल बिगड़ते हम देख चुके हैं।  
सन 1971 में दुनिया का पहला ई-मेल डिलीवर हुआ था, पर उसके दो साल पहले 1969 में अमेरिका में कॉम्प्यूसर्व नाम से संवाद की एक पद्धति विकसित हो गई थी, जिसकी तकनीक को तब डायलअप कहते थे। हमारे देश में ये सब बातें 1995 के बाद आईं, जो एक तरह से नई आर्थिक नीति की देन थीं। पर पश्चिम में बुलेटिन बोर्ड, यूज़नेट, अमेरिकन ऑनलाइन से होते हुए 1973 में वर्ल्डवाइड वैब तकनीक विकसित हो गई थी। 1995 में न्यूजवीक ने लेख छापा इंटरनेट? वाह! सायबरस्पेस में भी निर्वाण नहीं। बहरहाल सायबरस्पेस ने हमारा विमर्श बदल दिया है। तकनीक का विस्तार चौमुखी है। शब्द, ध्वनि और छवियाँ शेयर करने के अलावा इसमें इमीडिएसी यानी तात्कालिकता है और संशोधन करने की सामर्थ्य है। शिकायत यह है कि अपनी पहुँच-प्रभाव और स्पीड में सायबर मीडिया जिस तेजी से बढ़ रहा है उतनी ही गति से इसके कंटेंट की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। दोष उसके फॉर्म का है या पूरे समाज का? या फिर जैसे-जैसे इसमें जनता की भागीदारी बढ़ रही है, वैसे-वैसे सामाजिक विसंगतियाँ उजागर हो रही हैं। जो मौजूद तो थीं, पर जिन्हें सामने आने का मौका नहीं मिलता था। यह सब हमारे संवाद या विमर्श तक सीमित नहीं रहेगा। राज-व्यवस्था और सामाजिक परिदृश्य बदलने जा रहा है। कुछ साल पहले हैमिश मैक्डॉनल्ड की किताब द पॉलियस्टर प्रिंस का भारत में वितरण सम्भव नहीं हो पाया और अंततः वह बैन कर दी गई, पर आज उस उद्योग घराने के चर्चों से सोशल मीडिया अँटा पड़ा है।  
ढाई साल पहले जब कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों में हम पिछड़ रहे थे अचानक पूरी व्यवस्था को लेकर सोशल मीडिया में नाराज़गी की लहर दौड़ी थी और आज भी दौड़ रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यह काम पहले से कर रहा था। उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता ने अपने साप्ताहिक कॉलम नेशनल इंटरेस्ट में लिखा कि दो हफ्ते पहले हमारे मन में इन खेलों को लेकर यह भाव नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने खुद इस भंडाफोड़ की शुरुआत की थी, पर हमने यह नहीं सोचा था कि इन सब बातों का इन खेलों के खिलाफ प्रचार करने और माहौल को इतना ज़हरीला बनाने में इस्तेमाल हो जाएगा। जिस तरीके से खेलों के खिलाफ अभियान चला है उससे पत्रकारिता के ट्विटराइज़ेशन का खतरा रेखांकित होता है। सब चोर हैंइस देश का लोकप्रिय जुम्ला है। कुछ मिलाकर यह सब भिंडीबाजार जैसा लगने लगा है। यह भी सही है कि मीडिया ने तमाम ज़रूरी मामले उठाए हैं, पर मीडिया के भीतर कई द्वार होते हैं। हर दरवाज़े पर जाँचने और परखने की व्यवस्था होती है। पर लगता है कि ये द्वार गिरते जा रहे हैं। या मीडिया को इनकी उपयोगिता समझ में नहीं आ रही है। इधर लगभग हर चैनल और अखबार में एक्सक्ल्यूसिव का ठप्पा लगाने का चलन बढ़ा है। एक्सक्ल्यूसिव होने की जल्दबाज़ी में हम तथ्यों को परखते नहीं। कई बार तथ्य सही होते हैं, पर उन्हें उछालने वाले का कोई स्वार्थ होता है। उसे देखने की ज़रूरत भी है।
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉगों पर जो शब्दावली चलती है, वह मुख्यधारा के मीडिया की शब्दावली कभी नहीं थी। उसके पास फिल्टर थे। पर आज का सोशल मीडिया अन-फिल्टर्ड है। मछली बाज़ार और पत्रकारिता की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती। इस काम के लिए गम्भीर पत्रकारिता की ज़रूरत है। यही पत्रकारिता भीड़ की मनोवृत्ति से बचाने में सेफ्टी वॉल्व का काम करती है। एक अच्छे रिपोर्टर की जेब में हर रोज़ आठ-दस खबरें होती हैं, पर वह उन्हें तब तक नहीं लिखता जब तक तथ्यों की पुष्टि और सम्बद्ध पक्षों से बात न कर ले। पर सोशल मीडिया के पास मूल्यों मानदंडों का प्रशिक्षण नहीं है। वह प्रशिक्षित मीडिया है ही नहीं। पर क्या प्रशिक्षित मीडिया की अब हमें ज़रूरत नहीं है?
हम चार सौ साल पीछे जाएं तो पाएंगे कि अखबारों की ज़रूरत किसी को नहीं थी। लोग जानना ही नहीं चाहते थे। फिर धीरे-धीरे जानने की चाहत बढ़ी। अपने आस-पास के बारे में और फिर कुछ दूर के बारे में। इस ज़रूरत को स्थापित किया जर्मनी के मिंज़ शहर में रहने वाले जोहानेस गुटेनबर्ग के एक आविष्कार ने। उन्होंने मूवेबल टाइप बनाया, जिसके कारण छपाई का आविष्कार हुआ। इस आविष्कार ने जानने की चाहत को और बढ़ा दिया। सूचना के कारोबारी, आर्थिक और राजनीतिक कारण भी पैदा हो गए। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का विकास इसके समांतर होता गया। वह काम अभी खत्म नहीं हुआ है। शुरूआती अखबार भी उतने ही अराजक और मूल्य-मानदंड विहीन थे, जितना आज का सोशल मीडिया है। और तब तक जानकारी देने और लेने की लालसा बढ़ चुकी थी। आज वह उससे भी ज्यादा है। मीडिया का फॉर्म बदलने पर संशय का बढ़ना कोई अनहोनी नहीं है। सोशल मीडिया के इसी स्वरूप के भीतर से साखदार और जिम्मेदार मीडिया का आविष्कार होना चाहिए। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं होगा कि जनता को साखदार मीडिया चाहिए, बल्कि इसलिए भी होगा क्योंकि कई प्रकार की ताकतों का टकराव हो रहा है। जैसे जोज़फ पुलिट्ज़र और विलियम रैंडल्फ हर्स्ट के बीच व्यावसायिक टकराव के कारण पत्रकारिता रसातल पर पहुँच गई थी। और उसी रसातल से वह उबर कर बाहर आई। तबसे अब तक कई नैतिक, सैद्धांतिक मोड़ और आ चुके हैं।
मीडिया विषयों के लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने ब्लॉग में लिखा है, फेसबुक लेखन को कचड़ा लेखन मानने वालों की संख्या काफी है। ऐसे भी सुधीजन हैं जो यह मानते हैं कि कैजुअल लेखन के लिए फेसबुक ठीक है गंभीर विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए यह माध्यम उपयुक्त नहीं है। यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। फेसबुक पर आप चाहें तो विचारों का गंभीरता के साथ प्रचार-प्रसार भी कर देते हैं। चतुर्वेदी जी की बात से असहमत होने की ज़रूरत नहीं है, पर यह साफ है कि ट्विटर, फेसबुक या व्यक्तियों के अपने ब्लॉग जब तक बिना मॉडरेशन के विचार व्यक्त करते रहेंगे तब तक उनमें अराजकता की सम्भावना बनी रहेगी। यह वैसे ही है जैसे कहा जाए कि द बेस्ट गवर्नमेंट इज़ नो गवर्नमेंट। जहाँ बाहरी दबाव न हो और व्यक्ति अपनी इच्छा से रहने को स्वतंत्र हो तो उससे अच्छी जगह कौन सी हो सकती है। पर जैसे ही हमें नज़र आता है कि चौराहे पर पुलिस वाला नहीं है तो हमें लाल बत्ती पर भी गाड़ी निकालने में डर नहीं लगता। वह समय भी आएगा, जब हम स्वेच्छा से कानून का पालन करेंगे। आज के अनिश्चय से परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। 

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

3 comments:

  1. सोशल मीडिया पर बहुत महत्वपूर्ण लेख !
    आभार प्रमोद जी !

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  2. बहुत बढ़ियाँ जानकारी दि आपने आपका अभारी रहूंगा। लेकिन प्रमोद जी मुझे आपसे एक परेशानी शेयर करनी थी।

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    1. आर्यन आप मुझे मेल कर सकते हैं pjoshi23@gmail.com

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