Sunday, March 5, 2023

पूर्वोत्तर के परिणामों के निहितार्थ


पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों को कम से कम तीन नज़रियों से देखने की ज़रूरत है। एक, बीजेपी की इस इलाके में पकड़ मजबूत होती जा रही है, कांग्रेस की कम हो रही है और तीसरे विरोधी दलों की एकता का कोई फॉर्मूला इस इलाके में सफल होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में बन रही तीनों सरकारों में बीजेपी का शामिल होने का राजनीतिक संदेश है। बहरहाल बीजेपी उत्तर में पंजाब और दक्षिण के दो राज्यों तमिलनाडु और केरल में अपेक्षाकृत कमज़ोर है। फिर भी कांग्रेस के मुकाबले उसकी अखिल भारतीय उपस्थिति बेहतर हो गई है। तीन राज्यों के चुनावों के अलावा हाल में कुछ और घटनाएं आने वाले समय की राजनीति की दिशा का संकेत कर रही हैं।

चुनावों का मौसम

कांग्रेस के नजरिए से इनमें पहली घटना है राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और फिर उसके बाद नवा रायपुर में हुआ पार्टी का 85वाँ महाधिवेशन। इन दोनों कार्यक्रमों में बीजेपी को पराजित करने की रणनीति और बनाने और विरोधी-एकता कायम करने की बातें हुईं। विरोधी-एकता की दृष्टि से तेलंगाना के खम्मम में और फिर पटना में हुई दो रैलियों और चेन्नई में द्रमुक सुप्रीमो एमके स्टालिन के जन्मदिन के समारोह पर भी नजर डालनी चाहिए। इन तीनों कार्यक्रमों में विरोधी दलों के नेता जमा हुए, पर तीनों की दिशाएं अलग-अलग थीं। बहरहाल 2024 का बिगुल बज गया है। अब इस साल होने वाले छह विधानसभा चुनावों पर नजरें रहेंगी, जिनमें लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास होगा। अगले दो-तीन महीनों में कर्नाटक में विधानसभा-चुनाव होंगे। इसके बाद नवंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और मिजोरम में। फिर दिसंबर में राजस्थान और तेलंगाना में।

परिणाम कुछ कहते हैं

पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों में यथास्थिति बनी रही। तीनों जगह बीजेपी सत्ता में थी और इसबार भी तकरीबन वही स्थिति है। त्रिपुरा में मामूली फर्क पड़ा है, जहाँ बीजेपी की ताकत पिछली बार के मुकाबले कम हुई है, पर वहाँ वाममोर्चे और कांग्रेस के गठबंधन को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। बीजेपी ने चुनाव के कुछ महीने पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करके माणिक साहा को लाने का जो दाँव खेला था, वह सफल रहा। पूर्वोत्तर के इस राज्य को बीजेपी कितना महत्व दे रही है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नई सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के उपस्थित रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। यह समारोह 8 मार्च को होगा, जब देश होली मना रहा होगा।

सीपीएम का गढ़ टूटा

पश्चिमी बंगाल के साथ त्रिपुरा वाममोर्चे का गढ़ हुआ करता था। वह गढ़ अब टूट गया है। इसकी शुरुआत 2018 में हो गई थी, जब बीजेपी 35 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उसने सीपीएम के 25 साल के गढ़ को ध्वस्त किया था। इसबार सीपीएम और कांग्रेस का गठबंधन था। पिछले चुनाव में जीत के बाद बीजेपी ने बिप्लब देव को मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन मई 2022 में माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसबार के चुनाव में भाजपा ने सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ा।  उसे 32 सीटें मिली हैं। एक सीट उसके सहयोगी संगठन आईपीएफटी को मिली। लेफ्ट-कांग्रेस के गठबंधन ने (क्रमश: 47 और 13 सीटों) पर और टिपरा मोथा पार्टी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा। इस तरह राज्य में त्रिकोणीय मुकाबला था। सीपीएम को 11 और कांग्रेस को 3 और टिपरा मोथा पार्टी को 13 सीटें मिली हैं। असम के बाद त्रिपुरा दूसरा ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी ने अपना आधार काफी मजबूत कर लिया है।

Friday, March 3, 2023

विरोधी-एकता या अनेकता की आहट


कांग्रेस के रायपुर महाधिवेशन और पूर्वोत्तर के तीन राज्यों से मिले चुनाव-परिणामों से आगामी लोकसभा चुनाव से जुड़ी कुछ संभावित प्रवृत्तियों के दर्शन होने लगे हैं। खासतौर से विरोधी दलों की एकता और कांग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो रही है। राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्राके बाद कांग्रेस का उत्साह बढ़ा है, पर इस उत्साह का लाभ चुनावी राजनीति में फिलहाल मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात है कि विरोधी-दलों की एकता के रास्ते में उसी किस्म की बाधाएं दिखाई पड़ रही हैं, जो पिछले कई दशकों में देखी गई हैं।

तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने कहा है कि बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम के बीच लेन-देन का रिश्ता कायम हो गया है और आने वाले दिनों में हम इनके राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप करेंगे। 2024 के चुनाव में तृणमूल और जनता का सीधा गठबंधन होगा और हम किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। जनता के समर्थन से हम अकेले लड़ेंगे।

ममता बनर्जी के बयान से यह नहीं मान लेना चाहिए कि भविष्य में वे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। राजनीति में किसी भी वक्त कुछ भी संभव है और चुनाव-24 का असली गठबंधन चुनाव के ठीक पहले ही होगा। दूसरे भारत की राजनीति में अब पोस्ट-पोल गठबंधनों का मतलब ज्यादा होता है। फिर भी कांग्रेस और तृणमूल के बीच बढ़ती बदमज़गी की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।

पूर्वोत्तर के चुनाव

तीन राज्यों के चुनाव पर नज़र डालें, तो साफ दिखाई पड़ता है कि कांग्रेस ने अपनी बची-खुची ज़मीन भी खो दी है। चुनाव के पहले मेघालय में कांग्रेस के भीतर हुई बगावत का परिणाम सामने है। ममता बनर्जी का कहना है कि उनकी पार्टी ने इस राज्य में केवल छह महीने पहले ही प्रवेश किया था, फिर भी उसे 13.78 फीसदी वोट मिले, जो कांग्रेस के 13.14प्रतिशत के करीब बराबर ही हैं। दोनों पार्टियों को पाँच-पाँच सीटें मिली हैं। 2018 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं और उसे 28.5 प्रतिशत वोट मिले थे। इन 21 में से 12 विधायकों ने हाल में कांग्रेस को छोड़कर तृणमूल का दामन थाम लिया था।

Wednesday, March 1, 2023

भारत-पाक संवाद: रास्ते बनाइए, भले ही पथरीले हों


 देस-परदेश

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर हाल में कुछ खबरें ऐसी सुनाई पड़ीं, जिन्हें एकसाथ जोड़कर पढ़ने की इच्छा होती है. हालांकि इन खबरों की पृष्ठभूमि अलग है और उनका आपस में सीधे कोई संबंध नहीं है, पर उनसे दोनों देशों के ठंडे-गर्म रिश्तों की शिद्दत का पता लगता है.

पहली खबर है पाकिस्तानी सेना के पूर्व डीजी आईएसपीआर मेजर जनरल (सेनि) अतहर अब्बास ने हाल में 14वें कराची लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान हुई एक चर्चा में कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच सेना के बजाय किसी दूसरे स्तर पर बातचीत होनी चाहिए. ऐसा पाकिस्तान के हित में जरूरी है.

दूसरी खबर है पाकिस्तान की मदद को लेकर भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर का दो टूक बयान. पाकिस्तान इन दिनों गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. जयशंकर से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि क्या ऐसे में हम पाकिस्तान की सहायता कर सकते हैं?  

उन्होंने जवाब दिया कि स्वाभाविक रूप से पड़ोसियों की  चिंताएं हैं और एक भावना है कि हमें उनकी मदद करनी चाहिए. कल अगर किसी और पड़ोसी को कुछ हो जाता है तो भी यही होगा, लेकिन आप जानते हैं कि पाकिस्तान के लिए देश में क्या भावना है?  जयशंकर ने श्रीलंका के आर्थिक संकट के दौरान भारत की सहायता का जिक्र किया और कहा कि श्रीलंका के साथ हमारे संबंध अलग हैं.

पड़ोसी का धर्म

ध्यान दें पिछले साल पाकिस्तान में जबर्दस्त बाढ़ आई थी, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था. आमतौर पर अतीत में दोनों देशों में जिसपर भी प्राकृतिक आपदा आई, दूसरे ने मदद की है. पर इसबार की आपदा में भारत ने पाकिस्तान की सहायता नहीं की. भारत ने संभवतः सहायता का मन बनाया था, पर पाकिस्तान ने मदद की प्रार्थना नहीं की. दूसरी तरफ हाल में तुर्किये के भूकंप के बाद भारत ने आगे बढ़कर मदद की.

Thursday, February 23, 2023

विरोधी-एकता और कांग्रेस का वैचारिक-मंथन



कांग्रेस पार्टी के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने माना है कि कांग्रेस अकेले मोदी सरकार को नहीं हरा सकती। रायपुर में 24 फरवरी से होने वाले कांग्रेस के महाधिवेशन के सिलसिले में पिछले सोमवार को संवाददाताओं से बात करते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा के विरोध में पड़ने वाले वोटों को बिखरने से रोकने के लिए विपक्षी दलों की एकजुटता बहुत जरूरी है। इससे आगे जाकर वे यह नहीं बता पाए कि यह एकता किस तरीके से संभव होगी और कांग्रेस की भूमिका इसमें क्या होगी।

वेणुगोपाल के इस बयान के साथ पार्टी के एक और महासचिव जयराम रमेश के बयान को भी पढ़ें, तो स्पष्ट होता है कि पार्टी विरोधी-एकता को महत्वपूर्ण मानती है। साथ में यह भी कहती है कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का सामना करने की सामर्थ्य केवल कांग्रेस के पास ही है। दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों की राय है कि बीजेपी का उभार कांग्रेस को कमज़ोर करके हुआ है, क्षेत्रीय दलों की कीमत पर नहीं। उनका वैचारिक-मुकाबला बीजेपी से है, पर अस्तित्व रक्षा का प्रश्न कांग्रेस के सामने है। कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए विरोधी-एकता चाहती है। 

विरोधी एकता को लेकर इस विमर्श की शुरुआत पिछले हफ्ते पटना में हुए भाकपा माले की रैली से हुई, जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों की एकजुटता के लिए कांग्रेस को जल्द से जल्द पहल करने की बात कही थी। नीतीश ने रैली में मौजूद कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को संकेत करते हुए कहा कि कांग्रेस हमारी बात माने, तो 2024 में बीजेपी को 100 से भी कम सीटों पर रोका जा सकता है। नीतीश कुमार के बयान से स्पष्ट नहीं है कि उनके पास कौन सा फॉर्मूला है, पर ज़ाहिर है कि वे उस महागठबंधन के हवाले से बात कर रहे हैं, जो बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में बनाया गया था और कमोबेश आज उसी गठबंधन की बिहार में सरकार है।

Wednesday, February 22, 2023

साम्राज्यवाद के शिकार भारत को साम्राज्यवादी नसीहतें

कार्बन उत्सर्जन में भारत की भूमिका को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स का कार्टून 

तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. पूरे एशिया में सुदूर पूर्व के जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया को छोड़ दें, तो भारत अकेला देश है, जहाँ पिछले 75 से ज्यादा वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था निर्बाध चल रही है.

अब अपने आसपास देखें. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में सत्ता-परिवर्तन की प्रक्रिया सुचारु नहीं रही है. सत्ता-परिवर्तन की बात ही नहीं है, देश की लोकतांत्रिक-संस्थाएं काम कर रही हैं और क्रमशः मजबूत भी होती जा रही हैं. लोकतंत्र की ताकत उसकी संस्थाओं के साथ-साथ जनता की जागरूकता पर निर्भर करती है.

इस जागरूकता के लिए शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, न्याय-प्रणाली और नागरिकों की समृद्धि की जरूरत होती है. बहुत सी कसौटियों पर हमारा लोकतंत्र अभी उतना विकसित नहीं है कि उसकी तुलना पश्चिमी देशों से की जा सके, पर पिछले 75 वर्षों में इन सभी मानकों पर सुधार हुआ है. सबसे पहले इस बात को स्वीकार करें कि भारत की काफी समस्याएं अंग्रेजी-साम्राज्यवाद की देन हैं.

लुटा-पिटा देश

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था. अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी. सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी. यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी.

इतिहास के इस पहिए को उल्टा घुमाने की जिम्मेदारी आधुनिक भारत पर है. क्या हम ऐसा कर सकते हैं? आप पूछेंगे कि इस समय यह सवाल क्यों? इस समय अचानक हम दो विपरीत-परिस्थितियों के बीच आ गए हैं. एक तरफ भारत जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता करते हुए विदेशी-सहयोग के रास्ते खोज रहा है, वहीं भारतीय लोकतंत्र में विदेशी-हस्तक्षेप की खबर सुर्खियों में है.

सोरोस का बयान

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस से पहले टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस ने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाते हुए कहा कि हम भारतीय लोकतंत्र के पुनरुत्थान के लिए कोशिशें कर रहे हैं. कैसा पुनरुत्थान, क्या हमारा लोकतंत्र सोया हुआ है?   

सोरोस के बयान के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और विदेशमंत्री एस जयशंकर ने सोरोस को जवाब दिए हैं. शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है. वे न्यूयॉर्क में बैठकर मान लेते हैं कि पूरी दुनिया की गति उनके नज़रिए से तय होगा...वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं.

जयशंकर ने यह भी कहा कि आप अफ़वाहबाज़ी करेंगे कि दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाएगा. ये लोग नैरेटिव बनाने पर पैसा लगा रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका पसंदीदा व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और हारे, तो कहेंगे कि लोकतंत्र खराब है. गजब है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है. भारत के मतदाता फैसला करेंगे कि देश कैसे चलेगा.