Sunday, August 14, 2022

‘वन-चाइना पॉलिसी’ से हट रहा है भारत


जून 2020 में गलवान-संघर्ष के बाद से भारत और चीन के रिश्तों में काफी कड़वाहट आ गई है। ऐसा लगता है कि भारत ताइवान और तिब्बत के सवाल पर अपनी परंपरागत नीतियों से हट रहा है। हालांकि इस आशय की कोई घोषणा नहीं की गई है, पर इशारों से लगता है कि बदलाव हो रहा है।

भारत में चीन के राजदूत सन वाइडॉन्ग ने शनिवार को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उम्मीद जताई कि भारत को 'वन चाइना' पॉलिसी के प्रति अपने समर्थन को दोहराएगा। वाइडॉन्ग का ये बयान ऐसे समय आया है जब एक दिन पहले ही भारत ने स्पष्ट किया कि इस नीति पर समर्थन को दोहराने की कोई ज़रूरत नहीं है।

चीनी-उम्मीद

वाइडॉन्ग ने कहा, मेरा मानना है कि 'वन चाइना' पॉलिसी को लेकर भारत के नज़रिए में बदलाव नहीं आया है। हमें उम्मीद है कि भारत 'एक चीन सिद्धांत' के लिए समर्थन दोहरा सकता है। समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार वाइडॉन्ग ने पूर्वी लद्दाख में गतिरोध को लेकर कहा कि दोनों पक्षों को बातचीत जारी रखनी चाहिए।

इससे पहले शुक्रवार को एक मीडिया ब्रीफ़िंग में, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने 'एक-चीन' नीति का उल्लेख करने से परहेज़ किया। उन्होंने कहा कि 'प्रासंगिक' नीतियों पर भारत का रुख सबको पता है और इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

चीन ने दावा किया है कि अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद लगभग 160 देशों ने वन-चाइना पॉलिसी के लिए अपना समर्थन दिया है। चीन, ताइवान को अपना अलग प्रांत मानता है। अतीत में भारत ने वन चाइना पॉलिसी का समर्थन किया था, लेकिन पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सार्वजनिक रूप से या द्विपक्षीय दस्तावेज़ों में इस रुख़ को दोहराया नहीं है।

17 साल पहले

आखिरी बार भारत ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ पर करीब 17 साल पहले 2005 में बात की थी जब अपनी भारत यात्रा के दौरान, तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, भैरों सिंह शेखावत और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी। उस समय भारतीय पक्ष ने तब स्वीकार किया था कि उन्होंने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीन जनवादी गणराज्य के क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी और तिब्बतियों को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया।

हर-घर तिरंगा, हर-मन तिरंगा


कल आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ और 76वाँ स्वतंत्रता दिवस है। यह साल हम ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं। इस साल केंद्र सरकार ने हर-घर तिरंगा अभियान की शुरुआत भी की है। 11 से 17 अगस्त के बीच यह अभियान चलाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जुलाई को इस अभियान की घोषणा की थी। इस अभियान के तहत 13 से 15 अगस्त तक घरों पर कम से कम 20 करोड़ झंडे लगाने का लक्ष्य भी है। इस कार्यक्रम को बढ़ावा देने के पीछे सरकार का जो भी इरादा रहा हो, उसपर उंगली उठाना या राजनीति का विषय बनाना समझ में नहीं आता। देश में राष्ट्र-ध्वज से जुड़े नियम अभी तक बहुत कड़े थे। उन्हें आसान बनाने और पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने की कोशिश करने में कोई खराबी नहीं है। बहरहाल झंडे लगाएं, साथ ही राष्ट्रीय-ध्वजों की अवधारणा, अपने ध्वज के इतिहास, उससे जुड़े प्रतीकों और सबसे ज्यादा ध्वजारोहण से जुड़े नियमों को भी समझें। तभी इसकी उपादेयता है।

राष्ट्रीय-भावना

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिन्द पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया।’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है। पर चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन की इस विविधता को जोड़ने के बजाय तोड़ा भी है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राष्ट्र-राज्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। राहुल गांधी ने इस साल फरवरी में संसद में कहा कि  भारत राष्ट्र नहीं, राज्यों का संघ है। ऐसा कहने के पीछे उनकी मंशा क्या थी पता नहीं, पर इतना स्पष्ट है कि राजनीतिक कारणों से हमारे अंतर्विरोधों को खुलकर खोला जा रहा है। भारत की अवधारणा पर हमलों को भी समझने की जरूरत है। सच है कि भारत विविधताओं का देश है। आजादी के काफी पहले अंग्रेज गवर्नर जनरल सर जॉन स्ट्रेची ने कहा था, भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता है। यूरोप के कुछ विद्वान मानते हैं कि भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नहीं, एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ़्रीका। इन विचारों और नजरियों को तोड़ते हुए ही भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास हुआ, जिसका प्रतीक हमारा राष्ट्रीय-ध्वज है। अनेकता में एकता ही भारत की पहचान है, जिसे यूरोपीय-दृष्टि से समझा नहीं जा सकता।

राष्ट्रवाद का इतिहास

राष्ट्रीय-एकता को स्थापित करता है हमारा राष्ट्रीय-ध्वज। इसके विकास का लंबा इतिहास है। आपने महाभारत के युद्ध का विवरण पढ़ते समय रथों पर फहराती ध्वजाओं का विवरण भी पढ़ा होगा। देशों और राज-व्यवस्थाओं के विकास के साथ राज्य के प्रतीकों का विकास भी हुआ, जिनमें राष्ट्रीय-ध्वज सबसे महत्वपूर्ण हैं। यह ध्वज भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित, हुआ है। 1857 के पहले स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों ने एक ध्वज की योजना बनाई थी। आंदोलन असमय ही समाप्त हो गया और उसके साथ ही वह योजना अधूरी रह गई।

Thursday, August 11, 2022

नीतीश को पीएम-प्रत्याशी बनाने और राष्ट्रीय गठबंधन के दावों के पीछे जल्दबाजी है

सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून

बिहार में सरकार बन जाने के बाद दो सवाल खड़े हुए हैं। स्वाभाविक रूप से पहला सवाल होना चाहिए था कि क्या नई सरकार, पिछली सरकार से बेहतर साबित होगी
? आश्चर्यजनक रूप से यह दूसरा सवाल बन गया है। उसकी जगह पहला सवाल है कि क्या नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के सर्वमान्य प्रत्याशी होंगे? सर्वमान्य का एक मतलब यह भी है कि क्या बिहार का महागठबंधन विरोधी दलों का राष्ट्रीय महागठबंधन बनेगा? जैसा कि प्रशांत किशोर मानते हैं कि यह परिघटना राज्य-केंद्रित है, इससे 2024 के चुनाव को लेकर राष्ट्रीय-निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं।

मनोबल बढ़ेगा

बेशक बिहार के परिदृश्य से विरोधी दलों का मनोबल ऊँचा होगा। इसे विरोधी महागठबंधन का प्रस्थान-बिंदु भी मान सकते हैं, पर उसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। अभी हम उत्साह देख रहे हैं। नई सरकार से कुछ लोग निराश भी होंगे। उन अंतर्विरोधों को सामने आने दीजिए। मीडिया में अभी से खबरें हैं कि तेजस्वी बेहतर मुख्यमंत्री साबित होते। बिहार की राजनीति जाति और संप्रदाय-केंद्रित है। राज्य में सौ से ज्यादा अति-पिछड़े वर्ग हैं, जिनका नेतृत्व विकसित हो रहा है। इन नए नेताओं की मनोकामना का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता है।

बीजेपी अकेली

महागठबंधन के समर्थक इस बात से खुश हैं कि सात दलों के उनके गठबंधन के सामने बीजेपी अकेली है। कौन जाने कुछ महीनों बाद बीजेपी के साथ कुछ दल आ जाएं। बहुत ज्यादा दलों के गठजोड़ के जोखिम भी हैं। अभी यह भी देखना होगा कि जेडीयू और राजद के रिश्ते किस प्रकार के रहेंगे। जेडीयू के भीतर के हालचाल भी पता लगने चाहिए। गठबंधन जब बनता है, तब जो उत्साहवर्धक बातें की जाती हैं, उनके व्यावहारिक-प्रतिफलन का इंतजार भी करना चाहिए।

जल्दबाजी

पहली नज़र में लगता है कि नीतीश कुमार को पीएम प्रत्याशी बनाने और महागठबंधन को राष्ट्रीय मोर्चा की शक्ल देने की कोशिश जल्दबाजी में की जा रही है। इसकी घोषणा राष्ट्रीय जनता दल या जेडीयू कैसे कर सकते हैं? दोनों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है? नीतीश कुमार ने खुलकर कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना चाहता हूँ, पर 10 अगस्त को उन्होंने शपथ लेने के बाद यह कहकर एक नई पहेली पेश कर दी कि मैं 2024 के बाद मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहूँगा।

चौबीस या पच्चीस?

बिहार विधानसभा के चुनाव तो 2025 में होने हैं, 2024 में नहीं। लोकसभा चुनाव नहीं, तो 2024 से उनका आशय और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश बरसों पहले से की जा रही है। 2013 में जब नरेंद्र मोदी का नाम बीजेपी के नेता के रूप में लाने की कोशिश की जा रही थी, तब नीतीश कुमार ने उनका विरोध करते हुए कहा था कि देश का प्रधानमंत्री धर्म-निरपेक्ष और उदारवादी होना चाहिए। एक तरह से 2014 में उन्होंने खुद को मोदी के बराबर खड़ा करने की कोशिश की थी, पर वे सफल नहीं हुए। इसके लिए राष्ट्रीय-स्तर पर जो वजन चाहिए, वह उनके पास नहीं था।

कितनी मनोकामनाएं?

नीतीश की छवि अच्छे प्रशासक की भी है, पर अच्छा प्रशासक होना पीएम पद का प्रत्याशी नहीं बनाता। उसके लिए राजनीतिक-प्रभाव और विरोधी दलों के बीच सहमति की जरूरत होगी। नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में कितने प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा में ला सकेंगे? पीएम-प्रत्याशी बनने की मनोकामना कुछ और नेताओं के मन में है। उन सबके बीच एक सर्वसम्मत प्रत्याशी का नाम तय करने की प्रक्रिया काफी जटिल होगी। उसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की होगी, क्योंकि बीजेपी के बाद वह अकेली पार्टी है, जिसकी उपस्थिति देशभर में है।

कांग्रेस का महत्व

हालांकि कांग्रेस के सांसदों की संख्या छोटी है, पर उसकी राष्ट्रीय उपस्थिति बीजेपी से भी बेहतर है। पीएम-प्रत्याशी तो बाद की बात है, पहले देखना होगा कि क्या विरोधी दलों का कोई ऐसा मोर्चा बनना संभव है, जिसमें कांग्रेस, एनसीपी, तृणमूल, सीपीएम, सीपीआई, सीपीएमएल, राजद, जेडीयू, सपा, बसपा, टीआरएस, तेदेपा वगैरह-वगैरह हों?

 

 

Wednesday, August 10, 2022

अब किस दिशा में जाएगी बिहार की राजनीति?

तेलंगाना टुडे में सुरेंद्र का कार्टून

काफी समय से चर्चा थी कि नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदलेंगे, पर शायद उन्हें सही मौके और ऐसे ट्रिगर की तलाश थी, जिसे लेकर वे अपना रास्ता बदलते। यों इसकी संभावना काफी पहले से व्यक्त की जा रही थी। जब जेडीयू के अंदर आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब इसकी पुष्टि होने लगी। उसके पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह के निमंत्रण पत्र में नीतीश कुमार का नाम नहीं डाला गया, तब भी इस बात का इशारा मिला था कि टूटने की घड़ी करीब है।

बहरहाल बदलाव हो चुका है, इसलिए ज्यादा बड़ा सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ज्यादा समझदार हुई है? कांग्रेस की भूमिका क्या होगी? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह?

पीएम मैटीरियल

क्या नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के प्रत्याशी बनकर उभरना चाहते हैं?  राहुल गांधी, ममता बनर्जी, केसीआर और अरविंद केजरीवाल की मनोकामना भी शायद यही है। बहरहाल आरसीपी सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो नीतीश के कट्टर विरोधी भी नहीं करते। उन्होंने कहा, "नीतीश कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जनम तक नहीं।" यह भी कि, "जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज़ है। आप लोग तैयार रहिए।" इन बातों से भी नीतीश कुमार को निजी तौर चोट लगी।

मंगलवार की शाम एक पत्रकार ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी से जुड़ा सवाल किया, तो नीतीश ने कहा, नो कमेंट। 2014 से कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने इस बार भी गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।

नीतीश कुमार को नज़दीक से जानने वाले कई नेताओं ने तसदीक की है कि प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने पर नीतीश खुश होते हैं। आरसीपी सिंह तो उनके बहुत क़रीब रहे हैं। वे उनके मनोभावों को समझते हैं। बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने ट्वीट किया, यह सरासर सफ़ेद झूठ है कि भाजपा ने बिना नीतीश जी की सहमति के आरसीपी को मंत्री बनाया था। यह भी झूठ है कि जेडीयू को बीजेपी तोड़ना चाहती थी। बल्कि जेडीयू ही तोड़ने का बहाना खोज रही थी।

क्षेत्रीय दलों का भविष्य

उधर 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। फिर जिस तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना को तोड़ा, उसे लेकर भी नीतीश कुमार सशंकित थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को प्राप्त सीटों में भारी गिरावट भी एक इशारा था। ऊपर कही गई ज्यादातर बातें निजी या पार्टी के हितों को लेकर हैं, जो वास्तविकता है। पर राजनीति पर विचारधारा का कवच चढ़ा हुआ है, जिसका जिक्र अब हो रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर और हाल में अग्निवीर कार्यक्रम को लेकर भी उनका दृष्टिकोण बीजेपी के नजरिए से अलग था। जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार का रास्ता अलग था।

नई ऊर्जा

माना जा रहा है कि इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों में नई ऊर्जा देखने को मिलेगी। करीब-करीब ऐसी ही बात 2015 में जब पहली बार महागठबंधन बना तब कही गई थी। हालांकि उस ऊर्जा की हवा नीतीश कुमार ने ही 2017 में निकाल दी। उसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी भी विफल रही। पर 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस की सरकार बन गई, तब एकबार फिर ऊर्जा नजर आने लगी। पर वह ऊर्जा ज्यादा देर चली नहीं। सवाल है कि क्या अब लालू और नीतीश की जोड़ी सफल होगी? इसका जवाब नई सरकार के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन लंबे समय तक बना रहा और उसके भीतर टकराव नहीं हुआ, तो बिहार की राजनीति में बदलाव होगा। पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया भी होगी।

मित्र-विहीन भाजपा

तेजस्वी यादव ने कहा है कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। उन्होंने कहा, बीजेपी किसी भी राज्य में अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में भी यही करने की कोशिश हो रही थी। राजनीति में ऐसा ही होता है। बीजेपी का विस्तार होगा तो किसकी कीमत पर? उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने सपा का विस्तार किया तो गायब कौन हुआ? कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी।

बिहार में भी दो दशक पहले बीजेपी की ताकत क्या थी और आज क्या है? पार्टनर एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो अपने हित के लिए आते हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे के करीब अपने हितों के लिए आए थे। और आज नीतीश कुमार राजद के पास गए हैं, तो इसलिए कि वे 2024 और उससे आगे की राजनीति में खड़े रह सकें।

ताकत बढ़ी

बीजेपी के समर्थक मानते हैं कि फौरी तौर पर राज्य में धक्का जरूर लगा है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से बीजेपी के लिए यह फ़ायदे की बात है। बीजेपी खेमे में 2020 के चुनाव परिणाम को लेकर नाराज़गी थी कि जेडीयू को 122 सीटें नहीं दी गई होती, तो बीजेपी अकेले दम पर सरकार बना सकती थी। देखना यह है कि बिहार की जातीय संरचना में अब बीजेपी क्या करती है। नीतीश कुमार के कारण कुर्मी वोट का एक आधार उसके साथ था। इसके अलावा अति-पिछड़े वोटर भी एनडीए के साथ थे। क्या पार्टी बिहार के जातीय-समूहों के बीच से नए नेतृत्व को खोज पाएगी? इसका जवाब मिलने में भी कम से कम छह महीने लगेंगे।

 

 

चीनी जहाज के चक्कर में फँस गया श्रीलंका


श्रीलंका ने चीन के पोत युआन वांग-5 के हंबनटोटा को टाल दिया है, जिसकी वजह से श्रीलंका-चीन और भारत तीनों के रिश्तों में ख़लिश आई है। पर संकट से घिरे श्रीलंका के लिए यह मसला गले की हड्डी बनने जा रहा है। यह मामला अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। श्रीलंका सरकार ने फिलहाल पोत के आगमन को स्थगित किया है। उसे पक्की तौर पर रोका नहीं है। चीन सरकार इसे लेकर आग-बबूला है। कोलंबो स्थित चीनी दूतावास ने श्रीलंका सरकार से अपनी नाराज़गी व्यक्त की है। दूसरी तरफ यह भी साफ है कि भारत इस पोत को किसी कीमत पर हंबनटोटा तक आने नहीं देगा।

चीन इसे वैज्ञानिक सर्वेक्षण पोत बता रहा है, जबकि भारत मानता है कि यह जासूसी पोत है। इस पोत पर जिस तरह के रेडार और सेंसर लगे हैं, उनका इस्तेमाल उपग्रहों की ट्रैकिंग के लिए हो सकता है, तो अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों के लिए भी किया जा सकता है। बात सिर्फ इस्तेमाल की है। चीन इस पोत को असैनिक और वैज्ञानिक-शोध से जुड़ा बता रहा है, पर पेंटागन की सालाना रिपोर्ट के अनुसार इस पोत का संचालन चीनी सेना की स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्स करती है। यह चीनी नौसेना का पोत है।

11 को आने वाला था

भारत के पास शको-शुब्हे के पक्की वजहें हैं, इसीलिए जैसे ही इस पोत के आगमन की सूचना मिली तब से भारत लगातार विरोध कर रहा था। श्रीलंका इस मामले पर फैसला करने में देरी लगाता रहा। यह जहाज 11 से 17 अगस्त के बीच हंबनटोटा बंदरगाह पर रुकने वाला था। श्रीलंका की मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, जहाज के आगमन को स्थगित करने के पहले राष्ट्रपति रानिल विक्रमासिंघे ने चीन के राजदूत छी ज़ेनहोंग के साथ बंद कमरे में बैठक की थी। हालांकि, श्रीलंका सरकार ने ऐसी बैठक से इनकार किया है।