Sunday, March 27, 2022

हार के कगार पर इमरान खान


पाकिस्तान के राजनीतिक-संग्राम में इमरान खान करीब-करीब हार चुके हैं, पर वे हार मानने को तैयार नहीं हैं। हालांकि 25 मार्च से संसद का सत्र शुरू हो चुका है, पर अविश्वास प्रस्ताव विचारार्थ नहीं रखा जा सका, क्योंकि एक सांसद का निधन हो जाने के कारण शोक में सदन स्थगित हो गया। अब सोमवार को प्रस्ताव रखा जाएगा। उसके बाद कम से कम तीन दिन की बहस के बाद ही मतदान होने की सम्भावना है, पर सम्भव यह है कि आज इस्लामाबाद में होने वाली रैली में वे अपने इस्तीफे की घोषणा कर दें। इसके पहले बुधवार को उन्होंने दावा किया था कि मेरे पास अपने विरोधियों को ‘
हैरत में डालने वाला तुरुप का पत्ता है। 

गत 23 मार्च को पाकिस्तान-दिवस मनाया, जिसमें पहली बार 57 इस्लामिक देशों के विदेशमंत्रियों के अलावा चीन के विदेशमंत्री वांग यी भी शामिल हुए। उनके पास कौन सी जादू कि पुड़िया है, जिससे वे अपने विरोधियों को हैरत में डालेंगे? नम्बर-गेम वे हार चुके हैं। हो सकता है कि इस दौरान सुप्रीम कोर्ट की कोई रूलिंग आ जाए या समय से पहले चुनाव की घोषणा हो जाए, जिसका संकेत गृहमंत्री शेख रशीद ने दिया है। इमरान जीते या हारे, पाकिस्तान अब एक बड़े बदलाव के द्वार पर खड़ा है।   

नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने प्रधानमंत्री इमरान-सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करने के लिए 25 मार्च को सदन का सत्र बुलाया है। उधर इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के 48वें शिखर सम्मेलन का पाकिस्तान में समापन हुआ है। इसमें भाग लेने के लिए 57 देशों के विदेशमंत्री पाकिस्तान आए हैं। चीन के विदेशमंत्री वांग यी इसमें शामिल हुए हैं, जिन्हें पाकिस्तान ने विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है। इस मौके पर उनकी उपस्थिति भी महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान के अलावा वे अफगानिस्तान भी गए। इसके बाद वे भारत भी आए, जिसका आधिकारिक कार्यक्रम पहले से घोषित नहीं किया गया था। 

सांस्कृतिक-शंखनाद से उभरते सवाल


उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शपथ-ग्रहण के दौरान एक ऐसा दृश्य पैदा हुआ, जैसा अतीत में कभी नहीं हुआ था। शपथ-ग्रहण के पहले भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश के हजारों मंदिरों में हवन-पूजन किया। काशी, मथुरा, अयोध्या और प्रयागराज स्थित मठों-अखाड़ों में रहने वाले साधु-संतों ने मंगलाचरण पाठ किया। चौक-चौराहों पर बैनर-होर्डिंग लगे थे। सवा चार बजे योगी आदित्यनाथ के माइक संभालते ही कई मंदिरों में आरती शुरू हुई, शंख-नाद हुआ, घंटे घड़ियाल बजाए गए। शहरों, कस्बों और गाँवों में भाजपा कार्यकर्ता जय श्रीराम के नारे लगाते हुए डीजे पर डांस कर रहे थे। उल्लास की इस अभिव्यक्ति का क्या अर्थ लगाया जाए? क्या यह हमारी प्राचीन संस्कृति का विजयोत्सव है, राजनीतिक हिन्दुत्व की अभिव्यक्ति है, सोशल इंजीनियरी की नई परिभाषा है या भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र है?

चुनाव-पूर्व मोर्चाबंदी

इन बातों पर टिप्पणी करने के पहले याद यह भी रखना होगा कि उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में खुलकर कहा जा रहा था कि मुस्लिम वोटर बीजेपी के खिलाफ पूरी तरह एकताबद्धहै। वह टैक्टिकल वोटिंग करेगा वगैरह। देश-विदेश के सेक्युलर-पर्यवेक्षक भी कह रहे थे। ऐसे निष्कर्षों की प्रतिक्रिया या बैकलैश को ध्यान में रखे बगैर। प्रदेश के नए मंत्रिमंडल पर नजर डालें, जिसमें विभिन्न जातियों को सावधानी से प्रतिनिधित्व दिया गया है। यह बीजेपी की सामाजिक-इंजीनियरी है। किसी टिप्पणीकार ने माना कि बीजेपी ने मंडल, कमंडल और भूमंडल का जो सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक सूत्र तैयार किया है, उसकी काट आसान नहीं है। सवाल है कि क्या इसे उन तमाम छोटे-छोटे पिछड़े सामाजिक-वर्गों के उभार के रूप में देखें, जो राजनीतिक-हिन्दुत्व के ध्वज के नीचे एक हो रहे हैं?  ऐसे तमाम सवालों पर हमें ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए।   

विभाजन से पहले

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए हमें हजारों साल पीछे जाना पड़ेगा, पर इस आलेख का दायरा उतना व्यापक नहीं है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की कुछ परिघटनाओं की छाया इन बातों पर जरूर है। सबसे बड़ा कारक है देश का विभाजन। देश ने उदारवादी बहुल-संस्कृति समाज और सेक्युलरवाद को पूरे विश्वास के साथ स्वीकार किया है। पर इस विचार के अंतर्विरोध बार-बार उभरे हैं। यह बात हमें शाहबानो, राम मंदिर, ट्रिपल तलाक और हिजाब से लेकर कश्मीर-फाइल्स तक बार-बार दिखाई पड़ी है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू होने के बाद तीन तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई और सुनाई पड़ीं हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना, जिन्हें लगता है कि हार्डकोर-हिन्दुत्व के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। इन दोनों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो खुद को कट्टरवाद का विरोधी मानता है, पर राम मंदिर को कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता।

मुसलमानों की भूमिका

भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका को लेकर विमर्श की क्षीण-धारा भी है, पर उसे ठीक से सामने आने नहीं दिया गया। देश में सामासिक-संस्कृति की धारा भी बहती है। रसखान, रहीम, जायसी, नज़ीर अकबराबादी से लेकर बड़े गुलाम अली खां, नौशाद, राही मासूम रज़ा और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे मुसलमानों का हिन्दू समाज आदर करता है। योगी सरकार में केवल एक मुसलमान मंत्री है। ऐसा क्यों? चुनाव में बीजेपी मुसलमानों को तभी खड़ा करेगी, जब वे उसे वोट देंगे। उसने मान लिया है कि हमें मुसलमान वोट नहीं चाहिए। उसे मुसलमान-विरोधी साबित करने के पीछे भी राजनीति है। वोटरों के ध्रुवीकरण की शुरुआत कहाँ से हुई है, इसपर विचार करने की जरूरत है। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें हैं, पर विविधताओं को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। बीजेपी इस विशेषता को खत्म नहीं कर पाएगी।

एकता की जरूरत

हिन्दू हो या मुसलमान जिन्दगी की जद्दो-जहद में दोनों के सामने खड़े सवाल एक जैसे हैं। उन सवालों के हल हमारी एकता में निहित हैं, टकरावों में नहीं। राम मंदिर मामले में अदालत ने अपने निर्णय में एक जगह कहा है कि भारतीय संविधान धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करता। अब नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस बात को पुख्ता करें। मंदिर निर्माण भारत के राष्ट्र निर्माण का एक पड़ाव है। बड़ा सवाल है कि भारत की उदार और समन्वयवादी संस्कृति का क्या हुआ? कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते हुए राम मनोहर लोहिया ने लिखा है, आजादी के इन वर्षों में मुसलमानों को हिन्दुओं के निकट लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। अंततः राजनीति वही सफल मानी जाएगी, जो इन्हें तोड़े नहीं, जोड़े। वोट की राजनीति प्रकारांतर से समाज को तोड़ने का काम करती है। उसकी इस दुष्प्रवृत्ति पर विचार करने की जरूरत भी है।

Wednesday, March 23, 2022

संकट में इमरान, पाक-राजनीति में घमासान

कार्टून फ्राइडे टाइम्स से साभार
पाकिस्तान में इमरान सरकार के सामने परेशानियों के पहाड़ खड़े हो गए हैं। उनके खिलाफ संसद में अविश्वास-प्रस्ताव रखा गया है। उनके विरोधी एकजुट होकर उन्हें हर कीमत पर अपदस्थ करना चाहते हैं। शायद सेना भी ने भी उनकी पीठ पर से हाथ हटा लिया है। पूरे आसार हैं कि संसद में रखे गए अविश्वास प्रस्ताव में वे हार जाएंगे। इमरान सरकार को अभी तीन साल आठ महीने हुए हैं। लगता है कि पाँच साल का पूरा कार्यकाल इसके नसीब में भी नहीं है। विडंबना है कि पाकिस्तान में किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है।  

इमरान खान की हार या जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, पाकिस्तानी व्यवस्था का भविष्य। यह केवल वहाँ की आंतरिक राजनीति का मसला नहीं है, बल्कि विदेश-नीति में भी बड़े बदलावों का संकेत मिल रहा है। इमरान जीते या हारे, कुछ बड़े बदलाव जरूर होंगे। बदलते वैश्विक-परिदृश्य में यह बदलाव बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा। 

अविश्वास-प्रस्ताव

बताया जा रहा है कि 28 मार्च को अविश्वास-प्रस्ताव पर मतदान हो सकता है। इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ ने उसके एक दिन पहले 27 मार्च को इस्लामाबाद में विशाल रैली निकालने का एलान किया है। उसी रोज विरोधी ‘पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ की विशाल रैली भी इस्लामाबाद में प्रवेश करेगी। क्या दोनों रैलियों में आमने-सामने की भिड़ंत होगी? देश में विस्फोटक स्थिति बन रही है।

पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नून और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के करीब 100 सांसदों ने 8 मार्च को नेशनल असेंबली सचिवालय को अविश्वास प्रस्ताव दिया था। सांविधानिक व्यवस्था के तहत यह सत्र 22 मार्च या उससे पहले शुरू हो जाना चाहिए था, पर 22 मार्च से संसद भवन में इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का 48वाँ शिखर सम्मेलन शुरू हुआ है, इस वजह से अविश्वास-प्रस्ताव पर विचार पीछे खिसका दिया गया है।

Sunday, March 20, 2022

‘कश्मीर फाइल्स’ में छिपे संदेश


इतिहास की विसंगतियाँ, विडंबनाएं और कटुताएं केवल किताबों में ही नहीं रहतीं। वे लोक-साहित्य, संगीत और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में भी संचित होती हैं। यह सामाजिक जिम्मेदारी है कि वह उनसे सबक सीखकर एक बेहतर समाज बनाने की ओर आगे बढ़े, पर अतीत की अनुगूँज को नकारा नहीं जा सकता। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने राष्ट्रीय-बहस के जो दरवाजे खोले हैं, उसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोनों हैं। इस फिल्म में अतीत की भयावहता के कुछ प्रसंग हैं, जो हमें विचलित करते हैं। पर इससे जुड़े कुछ सवाल हैं, जिनसे फिल्म की उपादेयता या निरर्थकता साबित होगी।

क्या यह झूठ है?

क्या हम इन घटनाओं से अपरिचित थे? फिल्म में जो दिखाया गया है, क्या वह झूठ या अतिरंजित है? जब यह हो रहा था, तब देश क्या कर रहा था? इस उत्पीड़न को क्या नाम देंगे? नरमेध, जनसंहार या मामूली हिंसा, जो इन परिस्थितियों में हो जाती है? उनके पलायन को क्या कहेंगे, जगमोहन की साजिश, पंडितों का प्रवास या एक कौम का जातीय सफाया ‘एथिनिक क्लींजिंग’? फिल्म को लेकर कई तरह का प्रतिक्रियाएं हैं, जिनके मंतव्यों को भी पढ़ना होगा। देखना होगा कि फिल्म को बनाने के पीछे इरादा क्या है। अलबत्ता इस मामले को देश की राजनीति के चश्मे से देखने पर हम मूल विषय से भटक जाएंगे। मसलन कहा जाता है कि दिल्ली में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की जो सरकार थी, उसे भारतीय जनता पार्टी का समर्थन प्राप्त था। समर्थन तो वाम मोर्चा का भी प्राप्त था। इससे साबित क्या हुआ? पंडितों की हत्याएं इस सरकार के आगमन के पहले से चल रही थीं और उनका पलायन इस सरकार के गिरने के बाद भी जारी रहा। कश्मीर में जेहादियों का असर बढ़ने के कारणों को हमें कहीं और खोजना होगा।

बहरहाल फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल है, क्योंकि उसे जनता का समर्थन मिला है। पर जैसे नारे सिनेमाघरों में सुनाई पड़ रहे हैं, क्या वे चिंता का विषय नहीं हैंदूसरी तरफ कश्मीरी पंडितों की बदहाली के लिए भारत के मुसलमान दोषी नहीं हैं। सच यह भी है कि इस फिल्म के बनने के साथ ही इसका विरोध शुरू हो गया था। यह सफलता इसके विरोध की प्रतिक्रिया को भी दर्शा रही है। हमारी कथित प्रगतिशील राजनीति जमीनी सच्चाई को देख पाती, तो बहुत सी घटनाएं होती ही नहीं। सवाल है कि यह फिल्म नफरत फैला रही है या इसके पीछे राष्ट्रवादी चेतना की अभिव्यक्ति है? इसका जवाब बरसों बाद मिलेगा।

झकझोरने वाली फिल्म

तमाम सवाल हैं और उनके संतुलित, वस्तुनिष्ठ और ईमानदार जवाब देना बहुत कठिन काम है। फिल्म न तो पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री है और न काल्पनिक कथाचित्र। इस पृष्ठभूमि पर पहले भी फिल्में आईं हैं, पर ज्यादातर में भयावहता और कटुता से बचने की कोशिश की गई है, पर इस फिल्म का ट्रीटमेंट फर्क है। यह भी नैरेटिव है, जो काफी लोगों को विचलित कर रहा है। इसे पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री के रूप में नहीं बनाया गया है, बल्कि एक कहानी बुनी गई है, जिसके साथ वास्तविक प्रसंगों को जोड़ा गया है। शिल्प और कला की दृष्टि से फिल्म कैसी बनी है, यह एक अलग विषय है, पर इसमें दो राय नहीं कि इसने काफी बड़े तबके को झकझोर कर रख दिया है।

राजनीतिक उद्देश्य?

क्या इसे राजनीतिक इरादे से बनाया गया है? फिल्म 11 मार्च, 2022 को रिलीज हुई। पाँच राज्यों में चुनाव परिणाम आने के बाद। अब कहा जा रहा है कि इसका लक्ष्य गुजरात के चुनाव हैं। इतना तय है कि इस फिल्म का सामाजिक जीवन पर भारी असर होगा, जो सिनेमाघरों में दिखाई पड़ रहा है। कश्मीर का मसला मोदी सरकार बनने के बाद खड़ा नहीं हुआ है। ‘कश्मीर फाइल्स’ को बनाने के पीछे राजनीति है, तो उसके विरोध के पीछे भी राजनीति है। आप वक्तव्यों को पढ़ें। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मुस्तफा कमाल ने शुक्रवार को कहा कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ, वह उनकी अपनी मर्जी से हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला उसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। राज्य में जगमोहन की सरकार थी। फारूक अब्दुल्ला वास्तव में जिम्मेदार नहीं थे, पर इसे जगमोहन की योजना बताना भी गलत है। पंडितों की हत्याएं जगमोहन के आने के काफी पहले से शुरू हो गईं थीं। दूसरे उनके राज्यपाल बनने के अगले दिन से ही भारी पलायन शुरू हो गया। इसके पीछे पाकिस्तान-समर्थित जेहादी ग्रुप थे, जो आज भी वहाँ सक्रिय हैं। कौन छोड़ता है अपना घर? यह कोई एक-दो दिन या एक-दो साल का घटनाक्रम नहीं था।

Thursday, March 17, 2022

कांग्रेस में फिर चिंतन का दौर


जैसी कि उम्मीद थी, पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद, तीन तरह की गतिविधियाँ शुरू हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने चार राज्यों में सरकारें बनाने का काम शुरू किया है और साथ ही इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की विजय के सहारे अपने विस्तार की योजनाएं बनानी शुरू की हैं। वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने अपनी भविष्य की रणनीतियों पर विचार करना शुरू कर दिया है।

राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की गतिविधियों के फर्क को आसानी से देखा जा सकता है। जहाँ 10 मार्च को नरेंद्र मोदी गुजरात में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत कर रहे थे, वहीं कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़ थी। रविवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले अफवाह थी कि गांधी परिवार के सदस्य अपने पद छोड़ने जा रहे हैं। अलबत्ता पार्टी ने इन खबरों का खंडन किया हैजिसमें कहा गया था कि गांधी परिवार के सदस्य संगठनात्मक पदों से इस्तीफा दे देंगे। हालांकि पार्टी ने पाँचों राज्यों के पार्टी अध्यक्षों से इस्तीफे ले लिए हैं, साथ ही तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहा है कि यह हार गांधी परिवार के कारण नहीं हुई है।

बैठक में सोनिया गांधी के अलावा, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा, वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कई अन्य नेता शामिल हुए। इस बैठक के दो निष्कर्ष थे। एक, गांधी परिवार जरूरी है। और दूसरा यह कि पार्टी की फिर से वापसी के प्रयास होने चाहिए। इनमें एक सुझाव चिंतन-शिविर का भी है।

ताजा खबर है कि यह राष्ट्रीय चिंतन शिविर अगले महीने राजस्थान में हो सकता है। दो दिवसीय चिंतन शिविर में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य, विधायक दल के नेता, प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के अध्यक्ष, अग्रिम संगठनों के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता शामिल किए जाने का प्रस्ताव है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से चिंतन शिविर राजस्थान में आयोजित करने का प्रस्ताव रखा है। सोनिया और राहुल गांधी की लगभग सहमति मिल गई है। अधिकारिक रूप से अगले कुछ दिनों में चिंतन शिविर राजस्थान में करने की घोषणा की जाएगी। गहलोत की इस संबंध में पार्टी के संगठन महामंत्री केसी वेणुगोपाल से भी चर्चा हुई है। सूत्रों के अनुसार, चिंतन शिविर के दौरान अशोक गहलोत राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव रख सकते हैं। वहीं, कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य और उदयपुर के पूर्व सांसद रघुवीर मीणा इस प्रस्ताव का समर्थन करने को तैयार हैं।

चिंतन माने क्या?

पता नहीं चिंतन-शिविर से कांग्रेस का तात्पर्य क्या है, पर हाल के वर्षों का अनुभव है कि पार्टी ने अपनी संगठनात्मक-क्षमता में सुधार के बजाय इस बात को समझने पर ज्यादा ध्यान दिया है कि परिवार के प्रति वफादार कौन लोग हैं। पार्टी का पिछला चिंतन-शिविर जनवरी 2013 में जयपुर में लगा था। उसमें राहुल गांधी को जिम्मेदारी देने पर ही विचार होता रहा। पार्टी ने राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बना दिया था। उनकी सदारत में पार्टी पुराने संगठन, पुराने नारों और पुराने तौर-तरीकों को नए अंदाज़ में आजमाने की कोशिश करती नज़र आ रही थी। उसके पहले 4 नवम्बर, 2012 को दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी संगठनात्मक शक्ति का प्रदर्शन करने और 9 नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी की संवाद बैठक के बाद सोनिया गांधी ने 2014 के चुनाव के लिए समन्वय समिति बनाने का संकेत किया और फिर राहुल गांधी को समन्वय समिति का प्रमुख बनाकर एक औपचारिकता को पूरा किया। जयपुर शिविर में ऐसा नहीं लगा कि पार्टी आसन्न संकट देख पा रही है। संयोग है कि उस समय तक भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता पाने के प्रयास में दिखाई नहीं पड़ रही थी और न उसके भीतर उसके प्रति आत्मविश्वास नजर आ रहा था। अलबत्ता नरेन्द्र मोदी अपना दावा पेश कर रहे थे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उसे स्वीकार करने में आनाकानी कर रहा था।