Saturday, February 26, 2022

फिलहाल बड़ी लड़ाई नहीं होगी यूक्रेन में


अंततः पूर्वी यूक्रेन में रूस ने सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी है, जिसका पहले से अंदेशा था। गुरुवार 24 फरवरी की सुबह टीवी पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने टीवी पर कहा कि यूक्रेन पर क़ब्ज़ा करने की हमारी योजना नहीं थी, पर अब किसी ने रोकने की कोशिश की तो हम फौरन जवाब देंगे। फिलहाल रूस और नेटो के टकराव की सम्भावना नहीं है, क्योंकि अमेरिका और यूरोप के ने सीधे युद्ध में शामिल होने से परहेज किया है।

यूक्रेन पर रूसी धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। शुक्रवार 25 फरवरी को हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने न केवल हमले की साफ तौर पर निंदा करने से इनकार कर दिया है, बल्कि सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर वोट देने के बजाय अनुपस्थित रहना पसंद किया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में यह बात कुछ लोगों को हैरत में डालती है, पर लगता है कि भारत ने राष्ट्रीय हित को महत्व दिया है। संभव है कि हमें अब अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना पड़े। ऐसा होगा या नहीं, इसका हमें इंतजार करना होगा। हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस के सैनिक अभियान का लक्ष्य क्या है। इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी थी और फिर अपनी सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। इस इलाके को डोनबास कहा जाता है। यूक्रेन इस क्षेत्र को टूटने से बचाने की कोशिश करेगा और रूसी सेना सीधे हस्तक्षेप करेगी।

टकराव कैसे रुकेगा?

रूस ने हमला तो बोल दिया है, पर क्या इसके दूरगामी दुष्परिणामों का हिसाब उसने लगाया है? क्या वह उन्हें वह झेल पाएगा?  लड़ाई भले ही यूरोप में हुई है, पर उसके असर से हम भी नहीं बचेंगे। पहला सवाल है कि वैश्विक-राजनय इस टकराव को क्या आगे बढ़ने से रोक पाएगा?  सुरक्षा परिषद में चीन ने कहा कि सभी पक्षों को संयम बरतते हुए आगे का सोचना चाहिए और ऐसी किसी भी कार्रवाई से परहेज़ करना चाहिए जिससे संकट और उग्र हो।  

Tuesday, February 22, 2022

यूक्रेन के आकाश पर अदृश्य-युद्ध के बादल

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो पृथकतावादी क्षेत्रों को मान्यता दे दी है। इनपर रूस समर्थित अलगाववादियों का नियंत्रण है। पुतिन ने जिस शासनादेश पर दस्तख़त किए हैं उसके मुताबिक़ रूसी सेनाएं लुहान्स्क और दोनेत्स्क में शांति कायम करने का काम करेंगी। आशंका है कि सेनाएं जल्दी ही सीमा पार कर लेंगी। कुछ दिन पहले यूक्रेन के माहौल को देखते हुए लगता था कि लड़ाई अब शुरू हुई कि तब। मीडिया में तारीख घोषित हो गई थी कि 16 फरवरी को हमला होगा। 16 तारीख निकल गई, बल्कि उसी दिन रूस ने कहा कि हम फौजी अभ्यास खत्म करके कुछ सैनिकों को वापस बुला रहे हैं। इस घोषणा से फौरी तौर पर तनाव कुछ कम जरूर हुआ था, पर अब अमेरिका का कहना है कि यह घोषणा फर्जी साबित हुई है। रूस पीछे नहीं हटा, बल्कि सात सैनिक हजार और भेज दिए हैं। बहरहाल यूक्रेन तीन तरफ से घिरा हुआ है। जबर्दस्त अविश्वास का माहौल है।

रूस ने युद्धाभ्यास रोकने की घोषणा की है और बातचीत जारी रखने का इरादा जताया है। यूक्रेन चाहता है कि यूरोपियन सुरक्षा और सहयोग से जुड़े संगठन ओएससीई की बैठक हो, जिसमें रूस से सवाल पूछे जाएं। जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स यूक्रेन गए हैं और इन पंक्तियों के प्रकाशित होते समय वे मॉस्को में होंगे। हालांकि अमेरिका मुतमइन नहीं है, फिर भी लम्बी फ़ोन-वार्ता के बाद बाइडेन और बोरिस जॉनसन ने कहा कि समझौता अभी संभव है।

धमकियाँ-चेतावनियाँ

पहली नजर में लगता है कि बातों, मुलाकातों का दौर खत्म हो चुका है, पर ऐसा नहीं है। पृष्ठभूमि-विमर्श जारी है। गत 11 फरवरी को जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने अमेरिकी नागरिकों से कहा कि वे 48 घंटे के भीतर यूक्रेन से बाहर निकल जाएं। अमेरिकी दूतावास भी बंद किया जा रहा है। लड़ाई की शुरूआत हवाई बमबारी या मिसाइलों के हमले के रूप में होगी। साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि व्लादिमीर पुतिन ने अभी आखिरी फैसला नहीं किया है।

Sunday, February 20, 2022

लोकतांत्रिक-महोत्सव बनाम चुनावी-हथकंडे


पाँच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर
चुनावी हथकंडेइस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।

वायदों की बौछार

इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में लोकलुभावन तोहफों के वायदों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वायदे हैं। किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वायदा है। कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख। रोजगार के अलावा, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वायदे हैं। एक नेता ने कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं होगा।

सस्ता अनाज

वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया।

रंगीन टीवी

सन 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।

पद और मर्यादा

इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इसपर कांग्रेस पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।

Sunday, February 13, 2022

हिजाब का अधिकार और मर्यादा-रेखा


कर्नाटक के उडुपी जिले के एक कॉलेज से शुरू हुआ हिजाब का मुद्दे ने देशभर को गरमा दिया है। मामला सुप्रीमकोर्ट के दरवाजे पर है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने छात्र-छात्राओं से कहा है कि फिलहाल वे शिक्षण-संस्थानों में धार्मिक पहचान वाली पोशाक न पहनें। इस व्यवस्था के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में कहा गया है कि कोई सांविधानिक अदालत अपने अंतरिम आदेश से अनुच्छेद 15, 19, 21 और 25 के तहत नागरिक को प्राप्त मौलिक-अधिकारों पर रोक कैसे लगा सकती है?  याचिका दायर करने वालों का कहना है कि केरल हाईकोर्ट ने माना है कि हिजाब अनिवार्य धार्मिक पहनावा है। कर्नाटक के एजुकेशन एक्ट में यूनिफॉर्म और पेनल्टी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। उसे पहनने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। कानूनी अधिकारों के अलावा इस मामले के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक सवाल जुड़े हुए हैं। मसलन शिक्षा-संस्थानों को वेशभूषा निर्धारित करने का अधिकार है या नहीं? धार्मिक-विश्वास की कीमत पर क्या किसी को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जा सकता है?

राजनीतिक रंग

हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट तक मामले को ले जाने वाली छात्राओं की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं हैं, पर उनके पक्ष में बड़े कांग्रेस पार्टी से जुड़े नामी वकील खड़े हो गए हैं। सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास ने भी दायर की है। इससे लगता है कि कांग्रेस पार्टी यह साबित करना चाहती है कि हम मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे हैं। पार्टी के नेताओं के बयानों के पढ़ने से भी ऐसा ही आभास होता है। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। वहाँ कांग्रेस और जनता दल (एस) जैसे दलों का मुस्लिम-मतदाताओं पर काफी प्रभाव है। उधर दक्षिण भारत के मुस्लिम समुदाय के बीच सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) तेजी से उभर रही है। मुस्लिम छात्रों के संगठन कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का प्रसार भी बढ़ रहा है। इससे कांग्रेस और जेडी(एस) के मुस्लिम वोटों का क्षरण भी हो रहा है। कांग्रेस के सामने इस आधार को बचाने की चुनौती है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव

यह विवाद ऐसे वक्त में शुरू हुआ है, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। उत्तर और दक्षिण की राजनीतिक परिघटनाएं एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। पहली नजर में ध्रुवीकरण की योजनाबद्ध गतिविधि नजर आती है। सवाल है कि किसकी है यह योजना? एसडीपीआई की दिलचस्पी उत्तर प्रदेश में नहीं है। तब क्या यह बीजेपी का काम है? पर आंदोलन तो एसडीपीआई और सीएफआई ने शुरू किया है? उडुपी जिले में मुस्लिम आबादी 18 फीसदी है। सन 2013 के विधानसभा चुनाव में यहाँ की पाँच में से चार सीटें कांग्रेस ने और एक बीजेपी ने जीती थी। 2018 में बीजेपी ने सभी सीटों पर विजय प्राप्त की। इस दौरान कर्नाटक के तटवर्ती इलाकों में जबर्दस्त ध्रुवीकरण हुआ है। इसका लाभ बीजेपी को मिला है, तो मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ लेने के लिए एसडीपीआई ने प्रयास शुरू किए हैं। हाल में एसडीपीआई ने उडुपी जिले के स्थानीय निकाय चुनावों में काफी सफलता प्राप्त की है। काउप नगरपालिका, वित्तला और कोटेकर पंचायतों पर उसका कब्जा हो गया है, जो कांग्रेस के परम्परागत गढ़ थे। कांग्रेस इसे राष्ट्रीय-मुद्दा बनाकर दक्षिण में अपने कमजोर होते जनाधार को बचाने की कोशिश कर रही है। शुरू जिसने भी किया हो, बहती गंगा में हाथ सब धोना चाहते हैं।  

व्यापक-निहितार्थ

केवल राष्ट्रीय नहीं, यह अंतरराष्ट्रीय-मुद्दा भी बना है। अमेरिका के ऑफिस ऑफ इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम (आईआरएफ) ने बयान जारी करके कहा है कि हिजाब पर रोक धार्मिक-स्वतंत्रता का उल्लंघन है। स्त्रियों और लड़कियों को हाशिए पर डालने की कोशिश है। आईआरएफ के राजदूत रशद हुसेन भारतवंशी हैं। यह संगठन भारत को लेकर इसके पहले भी बयान जारी करता रहा है। हिजाब के मामले को पाकिस्तान ने भी उठाया है। इस मामले के व्यापक निहितार्थ को सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी से समझा जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की बेंच ने कहा कि हमारी नजर पूरे मामले पर है। उचित समय पर हम इस अर्जी पर सुनवाई करेंगे। साथ ही अदालत ने सुझाव दिया कि इस मामले को ज्यादा बड़े स्तर पर न फैलाएं। आपको हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए, जहां सोमवार को फिर से सुनवाई होगी।

इच्छा का पहनावा

इच्छा का परिधान व्यावहारिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। सेना, पुलिस या बहुत से कार्यस्थलों में यूनिफॉर्म की संगठनात्मक अनिवार्यता होती है। वहाँ इच्छा नहीं चलतीं। इच्छा के परिधान का अधिकार संस्थान के यूनिफॉर्म तय करने के अधिकार के ऊपर नहीं होता। पर सांस्कृतिक और धार्मिक-वरीयताओं को ध्यान में भी रखना होता है। सिखों के साथ ऐसा है। क्या हिजाब भी अनिवार्य पहनावा है? कर्नाटक के स्कूल में सबसे पहले छह लड़कियों ने यह माँग उठाई, जबकि वहाँ काफी बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियाँ बगैर हिजाब के आ रही थीं। दक्षिण भारत में परदा प्रथा नहीं है। वहाँ शादी के समय लड़कियाँ सिर पर पल्ला नहीं रखतीं। ऐसे खुले समाज में हिजाब की माँग अटपटी है।

Saturday, February 12, 2022

चीन-पाकिस्तान ‘मोर्चाबंदी’ की चुनौती


राहुल गांधी ने हाल में लोकसभा में कहा कि मोदी सरकार ने चीन और पाकिस्तान को साथ लाकर बड़ा अपराध किया है। हमारी विदेश नीति में लक्ष्य रहता था कि पाकिस्तान और चीन को क़रीब आने से रोकना है, लेकिन इस सरकार ने दोनों को साथ ला दिया है। उनके इस वक्तव्य के तीन दिन बाद ही बीजिंग से चीन-पाकिस्तान की एक संयुक्त वक्तव्य आया, जिसमें कहा गया कि हम कश्मीर में किसी भी एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध करते हैं, क्योंकि इससे कश्मीर मुद्दा जटिल हो जाता है। उनका इशारा अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी को लेकर है।

यह मनो-युद्ध है। चीन हमारा प्रतिस्पर्धी है। उसे लेकर हमारा राष्ट्रीय संकल्प क्या है या क्या होना चाहिए? मोर्चा सीमा पर ही नहीं हैं। वह हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था का लाभ उठाता है। आज ठोस-लड़ाई के बजाय हाइब्रिड-युद्ध का जमाना है। दुनिया की नजरें इस वक्त यूक्रेन और ताइवान पर हैं। साठ साल पहले 20 अक्तूबर 1962 को जब चीन ने भारत पर हमला बोला था, दुनिया की नजरें क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती पर केंद्रित थीं। वह चीन के आंतरिक संकट का दौर भी था। 1958 से 1962 के बीच वह भयंकर दुर्भिक्ष का शिकार हुआ था, जिसमें डेढ़ से साढ़े पाँच करोड़ लोगों की मौतें हुई थीं। माओ-जे-दुंग के लंबी छलाँग कार्यक्रम देन।

सावधानी की जरूरत

चीन से सावधान रहने की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। विफलताओं पर परदा डालने के लिए युद्ध जाँचा-परखा फॉर्मूला है। वह कुछ भी कर सकता है। बहरहाल उसपर बाद में करेंगे, पहले चीन-पाकिस्तान गठजोड़ पर गौर करें। भारत के खिलाफ दोनों एकसाथ हैं, इस बात से इनकार नहीं कर सकते। पर चीन को ऐसा करने से कैसे रोकेंगे? मनुहार करेंगे, बिनती करेंगे?  क्या इससे चीन मान जाएगा? दूसरा सवाल है कि क्या अनुच्छेद 370 की वापसी से वह नाराज है? या भारत के फैसले ने इस गठजोड़ का पर्दाफाश किया है?

डोकलाम का मामला तो 2017 में उठा था। उसके पहले 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। उस साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में।

1963 से है गठजोड़

राहुल गांधी की टिप्पणी का जवाब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ट्विटर पर दिया, पर यह बात आई-गई हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का जिक्र ही नहीं किया। चीन और पाकिस्तान की साठगाँठ क्या नई बात है? हमारी सेना को 1965 से इस बात का अंदेशा है कि पाकिस्तान के साथ चीन भी भारत के खिलाफ मोर्चा खोलेगा। सन 1963 में पाकिस्तान ने चीन को शक्सगम घाटी सौंपी। तभी गठजोड़ बन गया था। पृष्ठभूमि तो 1962 का लड़ाई में तैयार हो ही गई थी। 1965 का हमला उस रणनीति का पहला प्रयोग था।