Thursday, July 8, 2021

असाधारण मंत्रिमंडल विस्तार


एक तरीके से यह समुद्र-मंथन जैसी गतिविधि है। प्रधानमंत्री ने झाड़-पोंछकर एकदम नई सरकार देश के सामने रख दी है।  इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। संख्या के लिहाज से देखें, तो करीब 45 फीसदी नए मंत्री सरकार में शामिल हुए हैं। इस मेगा-कैबिनेट विस्तार का मतलब है कि या तो सरकार अपनी छवि को लेकर चिंतित है या फिर यह इमेज-बिल्डिंग का कोई नया प्रयोग है। नए मंत्रियों के आगमन से ज्यादा विस्मयकारी है कुछ दिग्गजों का सरकार से पलायन। नरेन्द्र मोदी छोटी सरकार के हामी हैं, पर यह सरकार भारी-भरकम हो गई है। यह उनके विचार के साथ विसंगति है, पर जो भी हुआ है वह राजनीतिक कारणों से है। 

इस मंत्रिमंडल विस्तार को जातीय, भौगोलिक और क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से परखने और समझने में समय लगेगा, पर इतना स्पष्ट है कि इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की आंतरिक राजनीति को संबोधित किया गया है। जिस तरीके से उत्तर प्रदेश का जातीय-रसायन इस मंत्रिपरिषद में मिलाया गया है, उससे साफ है कि न केवल विधान सभा के अगले साल होने वाले चुनाव, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सरकार ने अभी से कमर कस ली है। दूसरी तरफ सरकार अपनी छवि को सुधारने के लिए भी कृतसंकल्प लगती है। इसलिए इसमें राजनीतिक-मसालों के अलावा विशेषज्ञता को भी शामिल किया गया है।

सरकार ने महसूस किया है कि छवि को लेकर उसे कुछ करना चाहिए। प्रशासनिक अनुभव और छवि के अलावा सामाजिक-संतुलन बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों के माइक्रो-मैनेजमेंट की भूमिका भी इसमें दिखाई पड़ती है। कई प्रकार के फॉर्मूलों को इस विस्तार में पढ़ा जा सकता है। स्वाभाविक रूप से मंत्रिमंडल का गठन राजनीतिक गतिविधि है। इसका रिश्ता चुनाव जीतने से ही है। नए मंत्रियों में उत्तर प्रदेश से सात, महाराष्ट्र से पाँच और गुजरात और कर्नाटक से चार-चार शामिल हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, जहाँ सोशल-इंजीनियरी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने न केवल जातीय संरचना को बल्कि राज्य की भौगोलिक संरचना को भी ध्यान में रखा है। गुजरात में भी अगले साल चुनाव हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया है कि मैं बड़े से बड़ा फैसला करने को तैयार हूँ। इस परिवर्तन से यह बात भी स्थापित हुई है कि पार्टी और सरकार के भीतर अपनी छवि को लेकर गहरा मंथन है। कुछेक महत्वपूर्ण नेताओं को छोड़ दें, तो इस बदलाव के छींटे पुरानेमंत्रियों पर पड़े हैं। उनमें रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर, हर्षवर्धन, संतोष गंगवार, रमेश पोखरियाल निशंक जैसे सीनियर नेता भी शामिल हैं। डॉ हर्षवर्धन को महामारी और खासतौर से दूसरी लहर का सामना करने में विफलता की सजा मिली है, पर अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में है, फिर भी निर्मला सीतारमन अपनी जगह कायम हैं। 

प्रधानमंत्री ने निर्मला सीतारमन पर भरोसा जताया है। दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावडेकर को लेकर अभी समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्यों हटे हैं। रविशंकर प्रसाद के कंधों पर इलेक्ट्रॉनिक्स-क्रांति की जिम्मेदारी थी। ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया कम्पनियों के खिलाफ मोर्चा भी उन्होंने खोला था। क्या उन्हें विफल माना गया? या उन्हें कोई दूसरी भूमिका देने की योजना है? यही बात प्रकाश जावडेकर पर लागू होती है। इस समय वे सरकार के सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता माने जाते थे। जितना जबर्दस्त मंत्रिमंडल का विस्तार है, उससे ज्यादा जबर्दस्त है सरकार का संकुचन।

Wednesday, July 7, 2021

असमंजस में अफगानिस्तान


दक्षिण एशिया में जो सबसे बड़ा बदलाव इन दिनों हो रहा है, वह अफगानिस्तान में है। अमेरिका और उसके मित्र देशों की सेनाएं तकरीबन पूरी तरह अफगानिस्तान से वापस लौट चुकी हैं। केवल नाममात्र की उपस्थिति अब शेष  है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 11 सितम्बर की तारीख इस काम को पूरा करने के लिए दी है, पर लगता है कि अमेरिका उसके पहले ही अफगानिस्तान से हट जाएगा। इस दौरान वहाँ तालिबान लड़ाके तेजी से अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं। इससे कुछ सवाल पैदा हो रहे हैं। इसी सिलसिले में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर रूस जा रहे हैं। भारत जो भी कदम उठाएगा, उसके पहले अमेरिका और रूस दोनों के साथ परामर्श करेगा। इस दौरान भारत ने तालिबान के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया है।

क्या अमेरिका अब इस इलाके में तालिबान के प्रभाव को बढ़ने देगा? क्या अमेरिका ने जिस सरकार को काबुल में बैठाया है, वह गिर जाएगी? क्या तालिबान की आड़ में वहाँ पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ेगा? और क्या भारत के लिए यह चिंता की बात नहीं है? अमेरिका और पाकिस्तान के अलावा इस इलाके में ईरान, रूस, चीन, कतर और तुर्की की दिलचस्पी भी है। इसमें ईरान को अलग कर दें, तो शेष देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अफगानिस्तान से जुड़ी ज्यादातर बातचीत से जुड़े रहे हैं। तुर्की काबुल के पास बगराम हवाई अड्डे की सुरक्षा का जिम्मा लेना चाहता है। यह हवाई अड्डा आने वाले समय में काबुल को दुनिया से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। काबुल सरकार विरोधी तालिबानी लड़ाकों की पूरी कोशिश इसपर कब्जा करने की होगी।

अनेक दूतावास बंद

तालिबान की कोशिश मध्य एशिया से लगी अफगान-सीमा के प्रमुख मार्गों पर कब्जा करने की है। इन रास्तों से अफगानिस्तान रूस समेत दुनिया के दूसरे देशों से जुड़ा रहता है। तालिबान ने कुंदुज शहर के उत्तर में शेर खान बंदर क्रॉसिंग पर कब्जा कर लिया है। यहाँ से ताजिकिस्तान के साथ व्यापार होता है। बल्ख प्रांत के सीमावर्ती शहर बंदर-ए-हैरातान पर भी खतरा है, पर सरकार ने कहा है कि वहाँ कुमुक भेजी जा रही है। दूसरी तरफ अफगान सरकार का कहना है कि हम उन जिलों पर फिर से कब्जा करेंगे, जो तालिबान के नियंत्रण में चले गए हैं। 

Tuesday, July 6, 2021

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में फिर से लू-लपट


भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में कितनी तेजी से उतार-चढ़ाव आता है इसकी मिसाल पिछले चार महीनों में देखी जा सकती है। गत 25 फरवरी को दोनों देशों के बीच अचानक नियंत्रण रेखा पर युद्ध-विराम के एक पुराने समझौते को मजबूती से लागू करने का समझौता हुआ। इससे अचानक शांति का माहौल बनने लगा। पाकिस्तान की तरफ से एक के बाद एक बयान आए। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को शुभकामनाएं भेजीं।

केवल युद्ध-विराम ही नहीं आपसी व्यापार फिर से शुरू करने की बातें होने लगीं। ऐसे संकेत मिले कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब गणराज्य के बीच में पड़ने से दोनों देशों के बीच बैकरूम-बातचीत भी हो रही है। इसके बाद जम्मू में भारतीय वायुसेना के हवाई अड्डे पर ड्रोन हमले की खबरें आईं और सब कुछ अचानक यू-टर्न हो गया। उधर 23 जून को लाहौर में हाफिज सईद के घर के पास एक बम धमाका हुआ, जिसके लिए पाकिस्तान ने भारत को जिम्मेदार ठहराया है।

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ ने कहा है कि लाहौर धमाके का मास्टर माइंड एक भारतीय नागरिक है जो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (भारतीय ख़ुफिया एजेंसी रॉ) से जुड़ा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने सीधे-सीधे इसे 'भारत प्रायोजित आतंकवादी हमला' क़रार दिया है। इमरान खान ने ट्वीट किया, मैंने अपनी टीम को निर्देश दिया कि वे जौहर टाउन लाहौर धमाके की जाँच की जानकारी कौम को दें। मैं पंजाब पुलिस के आतंकवादी निरोधक विभाग की तेज़ रफ़्तार से की गई जाँच की तारीफ़ करूंगा कि उन्होंने हमारी नागरिक और ख़ुफ़िया एजेंसियों की शानदार मदद से सबूत निकाले।

सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसी कोई जाँच हुई? क्या पाकिस्तान के पास कोई सबूत है या वह इस दौरान बनी शांति की सम्भावनाओं से बाहर निकलना चाहता है? वह बाहर निकलना चाहता है, तो इन सम्भावनाओं में शामिल ही क्यों हुआ था? क्या वहाँ सेना और सरकार के बीच मतभेद हैं? या पाकिस्तान अपने बुने जाल में फँसता जा रहा है? ऐसे तमाम सवालों ने दक्षिण एशिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक तरफ अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो रही है और दूसरी तरफ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रियाओं को तेज कर दिया है। इससे पाकिस्तानी अंतर्विरोध खुलकर सामने आने लगे हैं।

Monday, July 5, 2021

महामारी ने दुनिया की शैक्षिक-तस्वीर भी बदली

कोविड-19 ने केवल वैश्विक-स्वास्थ्य की तस्वीर को ही नहीं बदला है, बल्कि खान-पान, पहनावे, रहन-सहन, रोजगार, परिवहन और शहरों की प्लानिंग तक को बदल दिया है। इन्हीं बदलावों के बीच एक और बड़ा बदलाव वैश्विक स्तर पर चल रहा है। वह है शिक्षा-प्रणाली में बदलाव। यह बदलाव प्रि-स्कूल से लेकर इंजीनियरी, चिकित्सा और दूसरे व्यवसायों की शिक्षा और छात्रों के मूल्यांकन तक में देखा जा रहा है।

भारत के सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों एक याचिका पर सुनवाई हो रही है, जिसमें राज्य सरकारों को महामारी के मद्देनज़र बोर्ड परीक्षाएं आयोजित नहीं करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। अदालत को सूचित किया गया कि 28 राज्यों में से छह ने बोर्ड की परीक्षाएं पहले ही करा ली हैं, 18 राज्यों ने उन्हें रद्द कर दिया है, लेकिन चार राज्यों (असम, पंजाब, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश) ने अभी तक उन्हें रद्द नहीं किया है। बाद में आंध्र ने भी परीक्षा रद्द कर दी। सीबीएसई समेत ज्यादातर राज्यों ने परीक्षाएं रद्द कर दी हैं। अब मूल्यांकन के नए तरीकों को तैयार किया जा रहा है, पर प्याज की परतों की तरह इस समस्या के नए-नए पहलू सामने आते जा रहे हैं, जो ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

160 करोड़ बच्चे प्रभावित

महामारी का असर पूरी दुनिया की शिक्षा पर पड़ा है। खासतौर से उन बच्चों पर जो संधि-स्थल पर हैं। मसलन या तो डिग्री पूरी कर रहे हैं या नौकरी पर जाने की तैयारी कर रहे हैं या स्कूली पढ़ाई पूरी करके ऊँची कक्षा में जाना चाहते हैं। तमाम अध्यापकों का रोजगार इस दौरान चला गया है। बहुत छोटी पूँजी से चल रहे स्कूल बंद हो गए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई का प्रचार आकर्षक है, पर व्यावहारिक परिस्थितियाँ उतनी आकर्षक नहीं हैं।

गरीब परिवारों में एक भी स्मार्टफोन नहीं है। जिन परिवारों में हैं भी, तो महामारी के कारण आर्थिक विपन्नता ने घेर लिया है और वे रिचार्ज तक नहीं करा पा रहे हैं। यह हमारे और हमारे जैसे देशों की कहानी है। ऑनलाइन शिक्षा लगती आकर्षक है, पर बच्चों और शिक्षकों के आमने-समाने के सम्पर्क से जो बात बनती है, वह इस शिक्षा में पैदा नहीं हो सकती।

Sunday, July 4, 2021

नए दौर का भारत यानी ‘डिजिटल इंडिया’


पिछले गुरुवार को डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के छह साल पूरे हो गए। पिछले छह साल में सरकार ने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी), कॉमन सर्विस सेंटर, डिजिलॉकर और मोबाइल-आधारित उमंग सेवाओं जैसी कई डिजिटल पहल इसके तहत शुरू की हैं। इस साल सीबीएसई की परीक्षाएं स्थगित होने के बाद मूल्यांकन की केंद्रीय-व्यवस्था में तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। बहरहाल डिजिटल इंडिया के छह साल पूरे होने पर इसके सकारात्मक पहलुओं के साथ उन चुनौतियों पर नजर डालने की जरूरत भी है जो रास्ते में आ रही हैं।

डिजिटल-विसंगतियाँ

सबसे बड़ी चुनौती गैर-बराबरी यानी डिजिटल डिवाइड की है। दूसरी चुनौती उस इंफ्रास्ट्रक्चर की है, जिसके कंधों पर बैठकर इसे आना है। जनता का काफी बड़ा हिस्सा या तो इस तकनीक का इस्तेमाल करने में असमर्थ है या न चाहते हुए भी उससे दूर है। छह साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वनिधि योजना के लाभों तथा स्वामित्व योजना के माध्यम से मालिकाना हक की सुरक्षा का उल्लेख किया। ई-संजीवनी की चर्चा की और बताया कि राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत एक प्रभावी प्लेटफॉर्म के लिए काम जारी है। विश्व के सबसे बड़े डिजिटल कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग ऐप में से एक आरोग्य सेतु ने कोरोना संक्रमण को रोकने में काफी मदद की है। टीकाकरण के लिए भारत के कोविन ऐप में बहुत से देशों ने दिलचस्पी दिखाई है।

दूसरी तरफ भारत की कहानी विसंगतियों से भरी है। हमारे पास दुनिया का दूसरे नम्बर का ई-बाजार है। कोरोना काल में खासतौर से इसका विस्तार हुआ है, पर देश की करीब आधी आबादी कनेक्टेड नहीं है। संसद के पिछले सत्र में बताया गया कि जहाँ देश में मोबाइल कनेक्शनों की संख्या 116.3 करोड़ हो गई है, वहीं देश के 5.97 लाख गाँवों में से 25,000 गाँवों में मोबाइल या इंटरनेट कनेक्टिविटी नहीं है। इनमें से 6099 गाँव अकेले ओडिशा में हैं। ग्यारह राज्यों के 90 जिले वामपंथी-उग्रवाद के शिकार हैं। देश में इस साल 5-जी सेवाएं शुरू करने की योजना है, पर जब हम ब्रॉडबैंड पर नजर डालते हैं, तब खास प्रगति नजर नहीं आती।

ऊकला स्पीडटेस्ट ग्लोबल के अनुसार वैश्विक स्तर पर जनवरी 2021 में भारत की ब्रॉडबैंड स्पीड पिछले साल में एक प्रतिशत ही बढ़ी है। हम पिछले साल भी दुनिया के 65वें पायदान पर थे और इस साल भी वहीं पर हैं। जनवरी 2021 में ब्रॉडबैंड की औसत स्पीड 54.73 एमबीपीएस थी, जबकि पिछले साल वह 53.90 एमबीपीएस थी। सिंगापुर 247.54, हांगकांग 229.45 और थाईलैंड 220.59 के साथ हमसे काफी ऊपर थे। मोबाइल इंटरनेट डेटा की स्पीड में जनवरी 2021 में भारत 131 की पायदान पर था, जबकि दिसंबर 2020 में 129 पर था। जनवरी में भारत की औसत मोबाइल डाउनलोड स्पीड 12.41 एमबीपीएस थी, जबकि संयुक्त अरब अमीरात में 183.03 और दक्षिण कोरिया में 171.26 थी।