Wednesday, July 7, 2021

असमंजस में अफगानिस्तान


दक्षिण एशिया में जो सबसे बड़ा बदलाव इन दिनों हो रहा है, वह अफगानिस्तान में है। अमेरिका और उसके मित्र देशों की सेनाएं तकरीबन पूरी तरह अफगानिस्तान से वापस लौट चुकी हैं। केवल नाममात्र की उपस्थिति अब शेष  है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 11 सितम्बर की तारीख इस काम को पूरा करने के लिए दी है, पर लगता है कि अमेरिका उसके पहले ही अफगानिस्तान से हट जाएगा। इस दौरान वहाँ तालिबान लड़ाके तेजी से अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं। इससे कुछ सवाल पैदा हो रहे हैं। इसी सिलसिले में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर रूस जा रहे हैं। भारत जो भी कदम उठाएगा, उसके पहले अमेरिका और रूस दोनों के साथ परामर्श करेगा। इस दौरान भारत ने तालिबान के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया है।

क्या अमेरिका अब इस इलाके में तालिबान के प्रभाव को बढ़ने देगा? क्या अमेरिका ने जिस सरकार को काबुल में बैठाया है, वह गिर जाएगी? क्या तालिबान की आड़ में वहाँ पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ेगा? और क्या भारत के लिए यह चिंता की बात नहीं है? अमेरिका और पाकिस्तान के अलावा इस इलाके में ईरान, रूस, चीन, कतर और तुर्की की दिलचस्पी भी है। इसमें ईरान को अलग कर दें, तो शेष देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अफगानिस्तान से जुड़ी ज्यादातर बातचीत से जुड़े रहे हैं। तुर्की काबुल के पास बगराम हवाई अड्डे की सुरक्षा का जिम्मा लेना चाहता है। यह हवाई अड्डा आने वाले समय में काबुल को दुनिया से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। काबुल सरकार विरोधी तालिबानी लड़ाकों की पूरी कोशिश इसपर कब्जा करने की होगी।

अनेक दूतावास बंद

तालिबान की कोशिश मध्य एशिया से लगी अफगान-सीमा के प्रमुख मार्गों पर कब्जा करने की है। इन रास्तों से अफगानिस्तान रूस समेत दुनिया के दूसरे देशों से जुड़ा रहता है। तालिबान ने कुंदुज शहर के उत्तर में शेर खान बंदर क्रॉसिंग पर कब्जा कर लिया है। यहाँ से ताजिकिस्तान के साथ व्यापार होता है। बल्ख प्रांत के सीमावर्ती शहर बंदर-ए-हैरातान पर भी खतरा है, पर सरकार ने कहा है कि वहाँ कुमुक भेजी जा रही है। दूसरी तरफ अफगान सरकार का कहना है कि हम उन जिलों पर फिर से कब्जा करेंगे, जो तालिबान के नियंत्रण में चले गए हैं। 

Tuesday, July 6, 2021

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में फिर से लू-लपट


भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में कितनी तेजी से उतार-चढ़ाव आता है इसकी मिसाल पिछले चार महीनों में देखी जा सकती है। गत 25 फरवरी को दोनों देशों के बीच अचानक नियंत्रण रेखा पर युद्ध-विराम के एक पुराने समझौते को मजबूती से लागू करने का समझौता हुआ। इससे अचानक शांति का माहौल बनने लगा। पाकिस्तान की तरफ से एक के बाद एक बयान आए। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को शुभकामनाएं भेजीं।

केवल युद्ध-विराम ही नहीं आपसी व्यापार फिर से शुरू करने की बातें होने लगीं। ऐसे संकेत मिले कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब गणराज्य के बीच में पड़ने से दोनों देशों के बीच बैकरूम-बातचीत भी हो रही है। इसके बाद जम्मू में भारतीय वायुसेना के हवाई अड्डे पर ड्रोन हमले की खबरें आईं और सब कुछ अचानक यू-टर्न हो गया। उधर 23 जून को लाहौर में हाफिज सईद के घर के पास एक बम धमाका हुआ, जिसके लिए पाकिस्तान ने भारत को जिम्मेदार ठहराया है।

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ ने कहा है कि लाहौर धमाके का मास्टर माइंड एक भारतीय नागरिक है जो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (भारतीय ख़ुफिया एजेंसी रॉ) से जुड़ा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने सीधे-सीधे इसे 'भारत प्रायोजित आतंकवादी हमला' क़रार दिया है। इमरान खान ने ट्वीट किया, मैंने अपनी टीम को निर्देश दिया कि वे जौहर टाउन लाहौर धमाके की जाँच की जानकारी कौम को दें। मैं पंजाब पुलिस के आतंकवादी निरोधक विभाग की तेज़ रफ़्तार से की गई जाँच की तारीफ़ करूंगा कि उन्होंने हमारी नागरिक और ख़ुफ़िया एजेंसियों की शानदार मदद से सबूत निकाले।

सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसी कोई जाँच हुई? क्या पाकिस्तान के पास कोई सबूत है या वह इस दौरान बनी शांति की सम्भावनाओं से बाहर निकलना चाहता है? वह बाहर निकलना चाहता है, तो इन सम्भावनाओं में शामिल ही क्यों हुआ था? क्या वहाँ सेना और सरकार के बीच मतभेद हैं? या पाकिस्तान अपने बुने जाल में फँसता जा रहा है? ऐसे तमाम सवालों ने दक्षिण एशिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक तरफ अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो रही है और दूसरी तरफ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रियाओं को तेज कर दिया है। इससे पाकिस्तानी अंतर्विरोध खुलकर सामने आने लगे हैं।

Monday, July 5, 2021

महामारी ने दुनिया की शैक्षिक-तस्वीर भी बदली

कोविड-19 ने केवल वैश्विक-स्वास्थ्य की तस्वीर को ही नहीं बदला है, बल्कि खान-पान, पहनावे, रहन-सहन, रोजगार, परिवहन और शहरों की प्लानिंग तक को बदल दिया है। इन्हीं बदलावों के बीच एक और बड़ा बदलाव वैश्विक स्तर पर चल रहा है। वह है शिक्षा-प्रणाली में बदलाव। यह बदलाव प्रि-स्कूल से लेकर इंजीनियरी, चिकित्सा और दूसरे व्यवसायों की शिक्षा और छात्रों के मूल्यांकन तक में देखा जा रहा है।

भारत के सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों एक याचिका पर सुनवाई हो रही है, जिसमें राज्य सरकारों को महामारी के मद्देनज़र बोर्ड परीक्षाएं आयोजित नहीं करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। अदालत को सूचित किया गया कि 28 राज्यों में से छह ने बोर्ड की परीक्षाएं पहले ही करा ली हैं, 18 राज्यों ने उन्हें रद्द कर दिया है, लेकिन चार राज्यों (असम, पंजाब, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश) ने अभी तक उन्हें रद्द नहीं किया है। बाद में आंध्र ने भी परीक्षा रद्द कर दी। सीबीएसई समेत ज्यादातर राज्यों ने परीक्षाएं रद्द कर दी हैं। अब मूल्यांकन के नए तरीकों को तैयार किया जा रहा है, पर प्याज की परतों की तरह इस समस्या के नए-नए पहलू सामने आते जा रहे हैं, जो ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

160 करोड़ बच्चे प्रभावित

महामारी का असर पूरी दुनिया की शिक्षा पर पड़ा है। खासतौर से उन बच्चों पर जो संधि-स्थल पर हैं। मसलन या तो डिग्री पूरी कर रहे हैं या नौकरी पर जाने की तैयारी कर रहे हैं या स्कूली पढ़ाई पूरी करके ऊँची कक्षा में जाना चाहते हैं। तमाम अध्यापकों का रोजगार इस दौरान चला गया है। बहुत छोटी पूँजी से चल रहे स्कूल बंद हो गए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई का प्रचार आकर्षक है, पर व्यावहारिक परिस्थितियाँ उतनी आकर्षक नहीं हैं।

गरीब परिवारों में एक भी स्मार्टफोन नहीं है। जिन परिवारों में हैं भी, तो महामारी के कारण आर्थिक विपन्नता ने घेर लिया है और वे रिचार्ज तक नहीं करा पा रहे हैं। यह हमारे और हमारे जैसे देशों की कहानी है। ऑनलाइन शिक्षा लगती आकर्षक है, पर बच्चों और शिक्षकों के आमने-समाने के सम्पर्क से जो बात बनती है, वह इस शिक्षा में पैदा नहीं हो सकती।

Sunday, July 4, 2021

नए दौर का भारत यानी ‘डिजिटल इंडिया’


पिछले गुरुवार को डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के छह साल पूरे हो गए। पिछले छह साल में सरकार ने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी), कॉमन सर्विस सेंटर, डिजिलॉकर और मोबाइल-आधारित उमंग सेवाओं जैसी कई डिजिटल पहल इसके तहत शुरू की हैं। इस साल सीबीएसई की परीक्षाएं स्थगित होने के बाद मूल्यांकन की केंद्रीय-व्यवस्था में तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। बहरहाल डिजिटल इंडिया के छह साल पूरे होने पर इसके सकारात्मक पहलुओं के साथ उन चुनौतियों पर नजर डालने की जरूरत भी है जो रास्ते में आ रही हैं।

डिजिटल-विसंगतियाँ

सबसे बड़ी चुनौती गैर-बराबरी यानी डिजिटल डिवाइड की है। दूसरी चुनौती उस इंफ्रास्ट्रक्चर की है, जिसके कंधों पर बैठकर इसे आना है। जनता का काफी बड़ा हिस्सा या तो इस तकनीक का इस्तेमाल करने में असमर्थ है या न चाहते हुए भी उससे दूर है। छह साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वनिधि योजना के लाभों तथा स्वामित्व योजना के माध्यम से मालिकाना हक की सुरक्षा का उल्लेख किया। ई-संजीवनी की चर्चा की और बताया कि राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत एक प्रभावी प्लेटफॉर्म के लिए काम जारी है। विश्व के सबसे बड़े डिजिटल कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग ऐप में से एक आरोग्य सेतु ने कोरोना संक्रमण को रोकने में काफी मदद की है। टीकाकरण के लिए भारत के कोविन ऐप में बहुत से देशों ने दिलचस्पी दिखाई है।

दूसरी तरफ भारत की कहानी विसंगतियों से भरी है। हमारे पास दुनिया का दूसरे नम्बर का ई-बाजार है। कोरोना काल में खासतौर से इसका विस्तार हुआ है, पर देश की करीब आधी आबादी कनेक्टेड नहीं है। संसद के पिछले सत्र में बताया गया कि जहाँ देश में मोबाइल कनेक्शनों की संख्या 116.3 करोड़ हो गई है, वहीं देश के 5.97 लाख गाँवों में से 25,000 गाँवों में मोबाइल या इंटरनेट कनेक्टिविटी नहीं है। इनमें से 6099 गाँव अकेले ओडिशा में हैं। ग्यारह राज्यों के 90 जिले वामपंथी-उग्रवाद के शिकार हैं। देश में इस साल 5-जी सेवाएं शुरू करने की योजना है, पर जब हम ब्रॉडबैंड पर नजर डालते हैं, तब खास प्रगति नजर नहीं आती।

ऊकला स्पीडटेस्ट ग्लोबल के अनुसार वैश्विक स्तर पर जनवरी 2021 में भारत की ब्रॉडबैंड स्पीड पिछले साल में एक प्रतिशत ही बढ़ी है। हम पिछले साल भी दुनिया के 65वें पायदान पर थे और इस साल भी वहीं पर हैं। जनवरी 2021 में ब्रॉडबैंड की औसत स्पीड 54.73 एमबीपीएस थी, जबकि पिछले साल वह 53.90 एमबीपीएस थी। सिंगापुर 247.54, हांगकांग 229.45 और थाईलैंड 220.59 के साथ हमसे काफी ऊपर थे। मोबाइल इंटरनेट डेटा की स्पीड में जनवरी 2021 में भारत 131 की पायदान पर था, जबकि दिसंबर 2020 में 129 पर था। जनवरी में भारत की औसत मोबाइल डाउनलोड स्पीड 12.41 एमबीपीएस थी, जबकि संयुक्त अरब अमीरात में 183.03 और दक्षिण कोरिया में 171.26 थी।

Thursday, July 1, 2021

भारत के आर्थिक सुधार तीन दशक और अब उससे आगे...

भारत के आर्थिक उदारीकरण के तीस साल पूरे हो गए हैं। उदारीकरण को लेकर तब भी भ्रांतियाँ थीं और आज भी हैं। इन दिनों इस विषय पर फिर से लेख पढ़ने को मिल रहे हैं। आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में एके भट्टाचार्य का यह आलेख पढ़ने को मिला, जो मुझे विचारणीय लगता है।

एके भट्टाचार्य

July 01, 2021

तीस वर्ष पहले एक वित्त मंत्री ने (जो उस समय संसद सदस्य भी नहीं थे) साहसी सुधारों की एक ऐसी शृंखला शुरू की जिसने देश में आर्थिक नीति निर्माण की प्रक्रिया को नाटकीय रूप से बदल दिया।

उस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था असाधारण राजकोषीय संकट तथा भुगतान संतुलन के संकट से जूझ रही थी। उसे उबारने के लिए तत्कालीन सरकार के शुरुआती 100 दिनों में इनमें से अधिकांश सुधारों को जिस तरह शुरू किया गया वह भी कम नाटकीय नहीं था।

जिस समय इन बड़े सुधारों को अंजाम दिया गया उस समय सरकार को लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं था और वित्त मंत्री की तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री भी संसद के सदस्य नहीं थे। संकट इतना बड़ा था कि इन निर्णयों की राजनीतिक उपयुक्तता पर भी सवाल उठाए गए। प्रधानमंत्री नवंबर 1991 में एक उपचुनाव के जरिये लोकसभा पहुंचे और वित्त मंत्री भी लगभग उसी समय असम से राज्य सभा में पहुंचे। जी हां, हम सन 1991 से 1996 तक कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करने वाले पीवी नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की बात कर रहे हैं।

इस अल्पमत सरकार के कार्यकाल के शुरुआती 100 दिनों में सुधारों की बात करें तो इस सरकार ने बेहद तेजी से काम किया। सरकार गठन के एक पखवाड़े से भी कम समय के भीतर 2 जुलाई को सिंह ने डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का 9.5 फीसदी अवमूल्यन किया और एक दिन बाद 12 फीसदी अवमूल्यन और कर दिया गया। रुपये के मूल्य में दो चरणों में की गई यह कमी कोई इकलौता कदम नहीं था। न ही यह केवल सिंह और राव के सुधार थे। तत्कालीन वाणिज्य मंत्री पी चिदंबरम ने भी साहसी वाणिज्य नीति सुधारों का पैकेज पेश किया था।