Saturday, May 25, 2019

उम्मीदों और अंदेशों से ज्यादा बड़ा फैसला

पिछले पांच साल में मोदी की छवि ऐसे नेता की बनी है, जो बदलाव लाना चाहता है, फैसले करता है, उन्हें लागू करता है और बहुत सक्रिय है.

निश्चित रूप से यह अविश्वसनीय परिणाम है. इस परिणाम का असर हमारे सामाजिक जीवन पर भी पड़ेगा. पर 
इसके पीछे भारतीय राजनीति में लगातार आ रहे बदलाव की दशा-दिशा भी नज़र आ रही है. अब परीक्षा 
बीजेपी की समझदारी की है, साथ ही देश की प्रशासनिक-न्यायिक संस्थाओं की भी. साल 2014 के चुनाव 
और इस बार के चुनाव की वरीयताएं और मुद्दे एकदम अलग रहे हैं, भले ही परिणाम एक जैसे हैं. बीजेपी की 
सीटें बढ़ी हैं और उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है. बंगाल और ओडिशा में उसका प्रवेश जोरदार तरीके से हो गया है. पर 
दक्षिण भारत में दो तरह की तस्वीरें देखने में आयी हैं. तमिलनाडु, केरल और आंध्र ने उसे स्वीकार नहीं किया, और
कर्नाटक में उसने अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. केरल में सबरीमाला प्रकरण के बावजूद उसे खास 
सफलता नहीं मिली.
दस से ज़्यादा राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज़्यादा वोट मिले हैं. इसमें महाराष्ट्र को जोड़ा जा सकता है, 
जहां बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन को 50 फीसदी से ज़्यादा वोट मिले हैं. गुजरात, हिमाचल प्रदेश और 
उत्तराखंड में 60 फीसदी से भी ज़्यादा. हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 60 से कुछ कम. ये परिणाम 
साल 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं.

Friday, May 24, 2019

बीजेपी के ज़मीनी आधार का विस्तार


इन चुनाव-परिणामों में दो बातें साफ नजर आती हैं. भारतीय जनता पार्टी अपने नजरिए को जनता के सामने न केवल रखने में, बल्कि उसका अनुमोदन पाने में सफल हुई है. दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी इसका काउंटर-नैरेटिव तैयार करने में बुरी तरह विफल हुई है. कांग्रेस जिसे हिन्दू-राष्ट्रवाद और भावनाओं की खेती बता रही थी, उसे जनता ने महत्वपूर्ण माना. वह कांग्रेस की बातें सुनने के लिए वह तैयार ही नहीं है. यह कांग्रेसी साख की पराजय है. कांग्रेस ने गरीबों और किसानों की बातें कीं, पर गरीबों और किसानों ने भी उसकी नहीं सुनी. यह बात सीटों से ही नहीं वोट प्रतिशत से भी जाहिर है.
हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम वोट प्रतिशत की जानकारी नहीं हो पाई थी, क्योंकि पूरे देश के परिणाम नहीं आए हैं, पर इतना तय है कि बीजेपी को पिछली बार के 31 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. यह प्रतिशत 40 फीसदी के आसपास तक पहुँच सकता है. बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है. इसमें बड़ी भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है. बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17 फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 35 फीसदी कर लिया है. वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की गिरावट आई है. तृणमूल कांग्रेस के भी वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं. इसकी वजह है वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने सपा-बसपा की सोशल इंजीनियरी को धो दिया है. विरोधी दलों की उम्मीदें उत्तर प्रदेश पर टिकी थीं, पर इस प्रदेश में करीब 50 फीसदी के आसपास वोट बीजेपी को मिले हैं. क्या यह हैरत की बात नहीं है?

Tuesday, May 21, 2019

एक्ज़िट पोल में छिपी कुछ पहेलियाँ

ममता बनर्जी और चंद्रबाबू जैसे नेताओं ने एक्ज़िट पोल को सरासर गप्प बताया है, वहीं कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि 23 का इंतजार करें। वे जल्दी हार मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि 23 को उलट-फेर होंगे। हालांकि एक्ज़िट पोल काफी हद तक चुनाव परिणामों की तरफ इशारा करते हैं, फिर भी उनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान हैं। सन 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में उनकी काफी फज़ीहत हुई थी और अभी हाल में ऑस्ट्रेलिया के चुनावों में वे हँसी के पात्र बने। सन 205 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के एक्ज़िट पोल इस लिहाज से तो सही थे कि उन्होंने आम आदमी पार्टी की जीत का एलान किया था, पर ऐसी जीत से वे भी बेखबर थे।

दूसरी तरफ यह भी सही है कि अब पोल-संचालक ज्यादा सतर्क हैं। उनके पास अब बेहतर तकनीक और अनुभव है। वे आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का सहारा ले रहे हैं। विश्लेषण करते वक्त वे राजनीति-शास्त्रियों, मानव-विज्ञानियों और दूसरे विशेषज्ञों की राय को भी शामिल करते हैं। उनसे चूक कहाँ हो सकती है, इसकी समझ भी उन्होंने विकसित की है। विश्लेषकों को लगता है कि इसबार के पोल सच के ज्यादा करीब होंगे। बावजूद इसके इन पोल पर गहरी निगाह डालें, तो कुछ पहेलियाँ अनसुलझी नजर आती हैं।

यों सभी पोल इसपर एकमत हैं कि एनडीए सबसे बड़े समूह के रूप में उभर रहा है। फिर भी सीटों की संख्या के उनके अनुमान 240 और 340 के बीच हैं। इतना बड़ा फासला नई पहेली को जन्म देता है। बिग पिक्चर एक जैसी है, पर विस्मय फैलाने वाला डेविल डिटेल में है। टोटल में एक जैसे हैं, फिर भी अलग-अलग राज्यों के अनुमानों में भारी फर्क है। बीजेपी की सफलता या विफलता के लिए जिम्मेदार तीन राज्यों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, उनकी संख्याओं पर गौर करें, तो संदेह पैदा होते हैं। पार्टी के भीतर के लोग भी मान रहे हैं कि यूपी में महागठबंधन का अंकगणित बीजेपी पर भारी पड़ सकता है। पर वे मानते हैं कि इसकी भरपाई बंगाल, ओडिशा और पूर्वोत्तर के राज्य करेंगे।

Monday, May 20, 2019

परिणाम आने से पहले की पहेलियाँ

चुनाव का आखिरी दौर पूरा होने और चुनाव परिणाम आने के बीच कुछ समय है. इस दौरान एक्ज़िट पोल की शक्ल में पहले अनुमान सामने आए हैं, पर कांग्रेस, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं ने इसे गप्पबाजी बताया है. बहरहाल हमें 23 का इंतजार करना होगा. इस दौरान तीन मुख्य सवाल विश्लेषकों से लेकर सामान्य व्यक्ति के मन में अभी हैं. पहला सवाल है कि परिणाम क्या होंगे? सरकार किसकी बनेगी? यह सवाल पहले सवाल का ही पुछल्ला है. इसके बाद का सवाल है कि आने वाली सरकार की चुनौतियाँ और वरीयताएं क्या होंगी? खबर है कि लम्बे अरसे से खाद्य सामग्री की कीमतों में जो ठहराव था, वह खत्म होने वाला है. खुदरा मुद्रास्फीति बढ़ने वाली है. मॉनसून फीका होने का अंदेशा है. राजकोषीय घाटा अनुमान से ऊपर जा चुका है. पर ये बातें बाद की हैं. असल सवाल है कि वोटर किसके हाथ सत्ता सौंपने वाला है?

चुनाव परिणामों को लेकर जो मगज़मारी इस वक्त चल रही है उसमें कई तरह की दृश्यावलियों की चर्चा है. मोटे तौर पर तीन मुख्य परिदृश्य बन रहे हैं. पहला यह कि बीजेपी और उसके गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा. साफ बहुमत मिलने का मतलब है कि कम से कम अगले पाँच साल के लिए कई तरह के सिरदर्द खत्म होंगे. अलबत्ता कुछ नए सिरदर्द फौरन ही शुरू भी हो जाएंगे. काफी लोगों को यकीन है कि ऐसे या वैसे सरकार मोदी की बन जाएगी.

Sunday, May 19, 2019

बंगाल की हिंसा और ममता का मिज़ाज

कोलकाता में बीजेपी रैली के दौरान हुए उत्पात और ईश्वर चंद्र विद्यासागर कॉलेज में हुई हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है और प्रतिमा किसने तोड़ी, ऐसे सवालों पर बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने वाली है। इस प्रकरण से दो बातें स्पष्ट हुई हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का काफी कुछ दाँव पर लगा है। दूसरे यह कि पिछले कुछ वर्षों से राज्य में चल रही तृणमूल की बाहुबली राजनीति का जवाब बीजेपी ही दे सकती है। यों मोदी विरोधी मानते हैं कि बीजेपी को रोकने की सामर्थ्य ममता बनर्जी में ही है। किसमें कितनी सामर्थ्य है, इसका पता 23 मई को लगेगा। पर ममता को भी अपने व्यक्तित्व को लेकर आत्ममंथन करना चाहिए।

ममता बनर्जी पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय क्षितिज पर आगे आने का प्रयत्न कर रही हैं। सन 2016 में उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। कांग्रेस ने उनका अनुगमन ही किया। राष्ट्रीय परिघटनाओं पर सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आती है। दिल्ली की रैलियों में वे शामिल होती हैं, पर सावधानी के साथ। व्यक्तिगत रूप से वे उन आंदोलनों में शामिल होती है, जिनका नेतृत्व उनके पास होता है। कांग्रेसी नेतृत्व वाले आंदोलनों में खुद जाने के बजाय अपने किसी सहयोगी को भेजती हैं।