Sunday, April 19, 2015

वापस लौटे 'नमो' और 'रागा' की चुनौतियाँ

पिछले हफ्ते दो महत्वपूर्ण नेताओं की घर वापसी हुई है। नरेंद्र मोदी यूरोप और कनाडा यात्रा से वापस आए हैं और राहुल गांधी तकरीबन दो महीने के अज्ञातवास के बाद। दोनों यात्राओं में किसी किस्म का साम्य नहीं है और न दोनों का एजेंडा एक था। पर दोनों देश की राजनीति के एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर वापस घर आए हैं। नरेंद्र मोदी देश की वैश्विक पहचान के अभियान में जुटे हैं। उनके इस अभियान के दो पड़ाव चीन और रूस अभी और हैं जो इस साल पूरे होंगे। पर उसके पहले अगले हफ्ते देश की संसद में उन्हें एक महत्वपूर्ण अभियान को पूरा करना है। वह है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद से पास कराना। उनके मुकाबले राहुल गांधी हैं जिनका लक्ष्य है इस अध्यादेश को पास होने से रोकना। आज वे दिल्ली के रामलीला मैदान में किसानों की रैली का नेतृत्व करके इस अभियान का ताकतवर आग़ाज़ करने वाले हैं। दो विपरीत ताकतें एक-दूसरे के सामने खड़ी हैं।

Thursday, April 16, 2015

‘लुक ईस्ट’ के बाद ‘लुक वेस्ट’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक और आर्थिक महत्व के बरक्स तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है. इन देशों के पास भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं की कुंजी भी है. इस यात्रा के दौरान ‘मेक इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरे हैं. न्यूक्लियर ऊर्जा में फ्रांस और सोलर इनर्जी में जर्मनी की बढ़त है. इन सब बातों के अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद इन सभी देशों की चिंता का विषय है.

आज कनाडा में प्रधानमंत्री की यात्रा का अंतिम दिन है. कनाडा की आबादी में भारतीय मूल के नागरिकों का प्रतिशत काफी बड़ा है. अस्सी के दशक में खालिस्तानी आंदोलन को वहाँ से काफी हवा मिली थी. सन 1985 में एयर इंडिया के यात्री विमान को कनाडा में बसे आतंकवादियों ने विस्फोट से उड़ाया था, जिसकी यादें आज भी ताज़ा हैं. सामरिक दृष्टि से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है.

Sunday, April 12, 2015

क्या सुषमा स्वराज की उपेक्षा हो रही है?

मोदी और सुषमाः क्या सब कुछ ठीक है?

  • 35 मिनट पहले
मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेतली, राजनाथ सिंह
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने वाला है. इस दौरान उनके तौर-तरीकों को लेकर टिप्पणियाँ होने लगी हैं.
कहा जाता है कि सरकार की सारी ताकत मात्र एक व्यक्ति तक ही सीमित है. वे अपने सहयोगियों को सामने आने का मौका नहीं देते.
पार्टी के भीतर और सरकार दोनों में, सत्ता मोदी या उनके विश्वास-पात्रों तक ही सीमित है. उदाहरण के लिए सुषमा स्वराज की बात करते हैं, जो अपनी वरिष्ठता और अनुभव के लिहाज से दबकर काम करती हैं.

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दिग्यविजय सिंह
शनिवार की सुबह कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया, "जिस वक्त नरेंद्र मोदी विदेश में समझौतों पर दस्तख़त कर रहे हैं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज विदिशा, मध्य प्रदेश में मोदी की भावी उपलब्धियों का प्रचार कर रही हैं."
इसके ठीक पहले उन्होंने एक और ट्वीट किया, "जिस वक्त प्रधानमंत्री फ्रांस में हवाई जहाज़ खरीद रहे थे, उस वक्त गोवा में हमारे रक्षामंत्री मछली खरीद रहे थे! मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सीमम गवर्नेंस."

कैसा है यह धुआं?

दिग्विजय सिंह अनुभवी नेता हैं. वे शिष्टाचार को बेहतर जानते हैं. प्रधानमंत्री के साथ विदेश मंत्री या रक्षामंत्री के होने की अनिवार्यता नहीं है. इसके पहले किसी ने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि प्रधानमंत्रियों के दौरे में विदेश मंत्री जाते रहे हैं या नहीं.
दिग्विजय सिंह भाजपा की दुखती रग पर हाथ रखा है. मोदी सरकार को असमंजस में डालने का मौका मिलेगा तो वे चूकेंगे नहीं. यह व्यावहारिक राजनीति है. सवाल उस आग का है जो इस धुएं के पीछे है.
क्या यह माने कि दिग्विजय सिंह मोदी जी से कह रहे हैं कि अपने काबिल मंत्रियों की उपेक्षा न करें? अलबत्ता यह बात सुषमा स्वराज पर लागू हो भी सकती है, मनोहर पर्रिकर पर नहीं.

एक और पाकिस्तानी नाटक

लाहौर हाईकोर्ट ने ज़की उर रहमान लखवी को रिहा कर दिया है। संयोग से जिस रोज़ यह खबर आई उस रोज़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस में थे। लखवी की रिहाई पर फ्रांस ने भी अफसोस ज़ाहिर किया है। अमेरिका और इसरायल ने भी इसी किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पर इससे होगा क्या? क्या हम पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग कर पाएंगे? तब हमें क्या करना चाहिए? क्या पाकिस्तान के साथ हर तरह की बातचीत बंद कर देनी चाहिए? फिलहाल लगता नहीं कि कोई बातचीत सफल हो पाएगी। पाकिस्तान के अंतर्विरोध ही शायद उसके डूबने का कारण बनेंगे। हमें फिलहाल उसके नागरिक समाज की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करना चाहिए, जो पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में बच्चों का हत्या को लेकर स्तब्ध है।

Saturday, April 11, 2015

भाजपा की नया ‘मार्ग’, पुराना ‘दर्शन’ दुविधा

बेंगलुरु में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को उससे मिलने वाले संकेतों के मद्देनज़र देखा जाना चाहिए। दक्षिण में पार्टी की महत्वाकांक्षा का पहला पड़ाव कर्नाटक है। अगले साल तमिलनाडु और केरल में चुनाव होने वाले हैं। उसके पहले इस साल बिहार में चुनाव हैं। पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारी विजय के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह पहली बैठक थी। चुनाव पूर्व की बैठकें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर असमंजस से भरी होती थीं। अबकी बैठक मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की पुष्टि में थी। पार्टी की रीति-नीति, कार्यक्रम और कार्यकर्ता भी बदल रहे हैं।

इस बैठक में पार्टी के मार्गदर्शी लालकृष्ण आडवाणी का उद्बोधन न होना पार्टी की भविष्य की दिशा का संकेत दे गया है। यह पहला मौका है जब आडवाणी जी के प्रकरण पर मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अलबत्ता राष्ट्रीय नीतियों को लेकर मोदी युग की आक्रामकता इस बैठक में साफ दिखाई पड़ी। यह बात मोदी के तीन भाषणों में भी दिखाई दी। मोदी ने कांग्रेस पर अपने आक्रमण की धार कमजोर नहीं होने दी है। इसका मतलब है कि उनकी दिलचस्पी कांग्रेस के आधार को ही हथियाने में है। उनका एजेंडा कांग्रेसी एजेंडा के विपरीत है। दोनों की गरीबों, किसानों और मजदूरों की बात करते हैं, पर दोनों का तरीका फर्क है।