Saturday, May 14, 2011

पोल पंडितों की पोल

हर चुनाव में एक्जिट पोल पंडितों की परीक्षा होती है। वे हर बार गलत साबित होते हैं, फिर भी कहीं न कहीं से खुद को सही साबित कर लेते हैं। इस बार भी बंगाल और असम के मामले में प्रायः सभी पोल सही साबित हुए, सबके अनुमान ऊपरनीचे रहे। केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में पोलों की पोल खुली।

एक्जिट पोल को हम मोटे तौर पर देखते हैं। बंगाल यानी टीएमसी+ या वाम मोर्चा प्लस, असम में इतने बड़े अन्य का ब्रेक अप नहीं मिलता। तमिलनाडु में अगर छोटे-छोटे दलों के बारे में पता करेंगे तो पोल काफी गलत साबित होंगे। ज्यादातर पोल अपने निष्कर्षों को साबित करना चाहते हैं। इनके वैज्ञानिक अध्ययन का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए। 

इन नतीजों में छिपी हैं कुछ पहेलियाँ



कोलकाता के टेलीग्राफ का पहला पेज
इस चुनाव परिणाम ने पाँच राज्यों में जितने राजनैतिक समाधान दिए हैं उससे ज्यादा पहेलियाँ  बिखेर दी हैं। अब बंगाल, तमिलनाडु और केरल से रोचक खबरों का इंतज़ार कीजिए। जनता बेचैन है। वह बदलाव चाहती है, जहाँ रास्ता नज़र आया वहां सब बदल दिया। जहाँ नज़र नहीं आया वहाँ गहरा असमंजस छोड़ दिया। बंगाल में उसने वाम मोर्चे के चीथड़े उड़ा दिए और केरल में दोनों मोर्चों को म्यूजिकल चेयर खेलने का आदेश दे दिया। बंगाल की जीत से ज्यादा विस्मयकारी है जयललिता की धमाकेदार वापसी। ममता बनर्जी की जीत तो पिछले तीन साल से आसमान पर लिखी थी। पर बुढ़ापे में करुणानिधि की इस गति का सपना एक्ज़िट पोल-पंडितों ने नहीं देखा।

पोस्ट-घोटाला भारत के इस पहले चुनाव का संदेश क्या है? कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। और जनता ने सन 2009 में यूपीए पर जो भरोसा जताया था, वह अब भी कायम है? क्या हाल के सिविल सोसायटी-आंदोलन की जनता ने अनदेखी कर दी? तब फिर तमिलनाडु में जयललिता की जीत को क्या माना जाए? और तमिलनाडु की जनता की भ्रष्टाचार से नाराज़गी है तो जयललिता को जिताने का क्या मतलब है? उनपर क्या कम आरोप हैं? 

खुद को पुनर्परिभाषित करे वाम मोर्चा

यह लेख 13 मई के दैनिक जनवाणी में छपा था। इसके संदर्भ अब भी प्रासंगिक हैं, इसलिए इसे यहाँ लगाया है।

हार कर भी जीत सकता है वाम मोर्चा

कल्पना कीजिए कभी चीन में चुनावों के मार्फत सरकार बदलने लगे तो क्या होगा? चीन में ही नहीं उत्तरी कोरिया और क्यूबा में क्या होगा? यह कल्पना कभी सच हुई तो सत्ता परिवर्तन के बाद का नज़ारा कुछ वैसा होगा जैसा हमें पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगा। बशर्ते परिणाम वैसे ही हों जैसे एक्ज़िट पोल बता रहे हैं। देश का मीडिया इस बात पर एकमत लगता है कि वाम मोर्चा की 34 साल पुरानी सरकार विदा होगी। ऐसा नहीं हुआ तो विस्मय होगा और मीडिया की समझदारी विश्लेषण का नया विषय होगी।

Tuesday, May 10, 2011

पोस्ट घोटाला, पहले चुनाव


पाँच विधानसभाओं के चुनाव तय करेंगे राष्ट्रीय राजनीति की दिशा
तेरह को खत्म होंगे कुछ किन्तु-परन्तु
प्रमोद जोशी

राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति और चुनाव हमारे महोत्सव हैं। इस विषय पर हाई स्कूल के छात्रों से लेख लिखवाने का वक्त अभी नहीं आया, पर आयडिया अच्छा है। गरबा डांस, भांगड़ा, कथाकली, कुचीपुडी और लाल मिर्चे के अचार जैसी है हमारी चुनाव संस्कृति। जब हम कुछ फैसला नहीं कर पाते तो जनता पर छोड़ देते हैं कि वही कुछ फैसला करे।    

टू-जी मामले में कनिमोझी की ज़मानत पर फैसला 14 मई तक के लिए मुल्तवी हो गया है। 14 के एक दिन पहले 13 को तमिलनाडु सहित पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम सामने आ चुके होंगे। कनिमोझी की ज़मानत का चुनाव परिणाम से कोई वास्ता नहीं है, पर चुनाव परिणाम का रिश्ता समूचे देश की राजनीति से है। तमिलनाडु की जनता क्या इतना जानने के बाद भी डीएमके को जिताएगी? डीएमके हार गई तो क्या यूपीए के समीकरण बदलेंगे?

कुछ ऐसे ही सवाल बंगाल के चुनाव को लेकर हैं। बंगाल में तृण मूल कांग्रेस का सितारा बुलंदी पर है। वे जीतीं तो मुख्यमंत्री भी बनेंगी। बेशक उनके बाद रेल मंत्रालय उनकी पार्टी को ही मिलेगा, पर क्या कांग्रेस बंगाल की सरकार में शामिल होगी? सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महत्वपूर्ण सफलता मिली थी। पर अब सन 2009 नहीं है। और न वह कांग्रेस है। पिछले एक साल में राष्ट्रीय राजनीति 360 डिग्री घूम गई है।

Saturday, May 7, 2011

इतिहास के सबसे नाज़ुक मोड़ पर पाकिस्तान



बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिनके बारे में हमारे देश के सामान्य नागरिक से लेकर बड़े विशेषज्ञों तक की एक राय है। कोई नहीं मानता कि बिन लादेन के बाद अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद खत्म हो जाएगा। या पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीतियाँ बदल जाएंगी। अल-कायदा का जो भी हो, लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद, तहरीके तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे थे वैसे ही रहेंगे। दाऊद इब्राहीम, हफीज़ सईद और  मौलाना मसूद अज़हर को हम उस तरह पकड़कर नहीं ला पाएंगे जैसे बिन लादेन को अमेरिकी फौजी मारकर वापस आ गए।

बिन लादेन की मौत के बाद लाहौर में हुई नमाज़ का नेतृत्व हफीज़ सईद ने किया। मुम्बई पर हमले के सिलसिले में उनके संगठन का हाथ होने के साफ सबूतों के बावजूद पाकिस्तानी अदालतों ने उनपर कोई कार्रवाई नहीं होने दी। अमेरिका और भारत की ताकत और असर में फर्क है। इसे लेकर दुखी होने की ज़रूरत भी नहीं है। फिर भी लादेन प्रकरण के बाद दक्षिण एशिया के राजनैतिक-सामाजिक हालात में कुछ न कुछ बदलाव होगा। उसे देखने-समझने की ज़रूरत है।