Tuesday, July 27, 2010

ग्लोबल अपडेट

पेरू मे सर्दी


इन दिनों जब हम भारत में उमस भरी गर्मी से परेशान हैं, पेरू में सरकार ने करीब आधे देश में आपत्काल की घोषणा की है। दक्षिणी गोलार्ध में होने के कारण वहाँ इन दिनों ठंड होती भी है, पर इस साल कुछ ज्यादा ही है। जिन शहरों में इन दिनों शून्य के आसपास तापमान होता था, वहाँ -24 डिग्री या  उससे भी नीचे चला गया है। 


सर्दी के कारण हजारों लोगों के मरने की खबर है। इनमें ज्यादातर बच्चे हैं। सर्दी से मरने के पीछे बड़ा कारण कुपोषण और गरीबी है। 


दोनों कास्त्रो खामोश रहे


क्यूबा में बतिस्ता के शासन का खात्मा हालांकि 1 जनवरी 1959 को हुआ था, पर वहाँ क्रांति दिवस 26 जुलाई को मनाया जाता है। दरअसल क्यूबा के 82 क्रांतिकारियों ने मैक्सिको से जो आंदोलन खड़ा किया था, उसकी शुरूआत 26 जुलाई 1953 को हुई थी। इन क्रांतिकारियों में फिदेल कास्त्रो भी थे। 


इस साल आशा थी कि नए राष्ट्रपति राउल कास्त्रो क्रांति दिवस पर कुछ ऐसा बोलेंगे, जो क्रांतिकारी हो। फिदेल के छोटे भाई राउल सार्जनिक रूप से बहुत कम बोलते हैं। उन्होंने क्रांति दिवस पर भी कुछ नहीं बोला। उनकी जगह उप राष्ट्रपति वेंच्यूरा ने देश को संबोधित  किया। पिछले महीने राउल कास्त्रो ने देश में राजनैतिक बंदियों को रिहा करने की घोषणा की थी। उसके बाद से आशा थी कि वे शायद कुछ नए कदम उठाएंगे। 


वेनेज़ुएला-कोलम्बिया तनाव


इन दिनों वेनेज़ुएला और कोलम्बिया के बीच तनाव करीब-करीब उतना ही तीखा हो गया है, जितना सुदूर पूर्व में दोनों कोरियाओं के बीच है। कोलम्बिया इस इलाके में अमेरिका का मित्र देश है। उसका आरोप है कि वेनेज़ुएला उसके विद्रोहियों की मदद कर रहा है। दोनों देशों के बीच युद्ध का अंदेशा है। इस बीच वेनेज़ुएला ने धमकी दी है कि वह अमेरिका को तेल की सप्लाई बंद कर देगा।  

मीडिया का काम नाटकबाज़ी नहीं


दिल्ली के हंसराज कॉलेज में एक अखबार का फोटोग्राफर पहुँचा। उसने कॉलेज के पुराने छात्रों को जमा किया। फिर उनसे कहा, नए छात्रों की रैगिंग करो। फोटोग्राफी शुरू हो गई। इस बात की जानकारी कॉलेज प्रशासन के पास पहुँची। उन्होंने पुलिस बुला ली। फोटोग्राफी रोकी गई और कैमरा से खींचे गए फोटो डिलीट किए गए। यह जानकारी मीडिया वैबसाइट हूट ने छात्रों के हवाले से दी है। इस जानकारी पर हमें आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि ऐसा होता रहता है।

हाल में बिहार असेम्बली में टकराव हुआ। मीडिया की मौजूदगी में वह सब और ज्यादा हुआ, जो नहीं होना चाहिए। एक महिला विधायक के उत्साह को देखकर लगा कि इस जोश का इस्तेमाल बिहार की समस्याओं के समाधान में लगता तो कितना बड़ा बदलाव सम्भव था। वह उत्साह विधायक का था, पर मीडिया में कुछ खास दृश्यों को जिस तरह बारम्बार दिखाया गया, उससे लगा कि मीडिया के पास भी कुछ है नहीं। उसकी दृष्टि में ऐसा रोज़-रोज़ होता रहे तो बेहतर।

पिछले हफ्ते एक चैनल पर रांची के सज्जन के बारे में खबर आ रही थी, जो आठवीं शादी रचाने जा रहे थे। उन्हें कुछ महिलाओं ने पकड़ लिया। महिलाओं के हाथों उनकी मरम्मत के दृश्य मीडिया के लिए सौगात थे। किसी की पिटाई, रगड़ाई, धुलाई और अपमान हमारे यहाँ चटखारे लेकर देखा जाता है। मीडिया को देखकर व्यक्ति जोश में आ जाता है और आपा भूलकर सब पर छा जाने की कोशिश में लग जाता है। मीडिया के लोग भी उन्हें प्रेरित करते हैं।

कुछ साल बिहार में एक व्यक्ति ने आत्मदाह कर लिया। उस वक्त कहा गया कि उसे पत्रकारों ने प्रेरित किया था। ऐसा ही पंजाब में भी हुआ। अक्सर खबरें बनाने के लिए पत्रकार कुछ नाटक करते हैं, जबकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सच को सामने लाएंगे। पर होता कुछ और है। मीडिया को देखते ही आंदोलनकारी, बंद के दौरान आगज़नी करते या बाढ़-पीड़ितों की मदद करने गए लोग अपने काम को दूने वेग से करने लगते हैं। पूड़ी के एक पैकेट की जगह चार-चार थमाने लगते हैं। अब तो चलन ही यही है कि आंदोलन बाद में शुरू होता है, पहले मीडिया का इंतज़ाम होता है। सारा आंदोलन पाँच-दस मिनट के मीडिया सेशन में निबट जाता है।

सीबीएसई परीक्षा परिणाम देखने गई लड़कियों के एक ही झुंड, बल्कि अक्सर एक ही लड़की की तस्वीर सभी अखबारों में छपती है। इसे फाइव सेकंड्स फेम यानी पाँच सेकंड की प्रसिद्धि कहते हैं। इसमें ऑब्जेक्टिविटी वगैरह धरी की धरी रह जाती है। आमतौर पर सभी समाचार चैनल समाचार के साथ-साथ सामयिक संदर्भों पर बहस चलाते हैं। इस बहस को चलाने वाले एंकरों का ज़ोर इस बात पर नहीं होता कि तत्व की बात सामने लाई जाय, बल्कि इस बात पर होता है कि उनके बीच संग्राम हो। पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है यह तो हर पत्रकार अपने तईं तय कर सकता है। पर इतना सार्वभौमिक रूप से माना जाता है कि हम संदेशवाहक हैं। जैसा हो रहा है, उसकी जानकारी देने वाले। हम इसमें पार्टी नहीं हैं और हमें कोशिश करनी चाहिए कि बातों को तोड़े-मरोड़े बगैर तटस्थता के साथ रखें। 

पुराने वक्त में पत्रकारिता प्रशिक्षण विद्यालय नहीं होते थे। ज्यादातर लोग काम पर आने के बाद चीजों को सीखते थे। रोज़मर्रा बातों से धीरे-धीरे अपने नैतिक दायित्व समझ में आते थे। अब तो पत्रकार मीडिया स्कूलों से आते हैं। उन्हें तो पत्रकारीय आदर्श पढाए जाते हैं। लगता है जल्दबाज़ी में मीडिया अपने कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्वों का ध्यान नहीं रखता। जब रैगिंग होती है तो ज़मीन-आसमान एक कर देता है और जब नहीं होती तब रैगिंग करने वालों के पास जाता है कि भाई ठंडे क्यो पड़ गए। उसके पास नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर शायद कोई आचरण संहिता नहीं है। या यों कहें कि किसी किस्म की आचरण संहिता नहीं है।

आचरण संहिता व्यापक अवधारणा है। अक्सर सरकारें आचरण संहिता के नाम पर मीडिया की आज़ादी पर बंदिशें लगाने की कोशिश करती हैं, इसलिए हम मानते हैं कि मीडिया को अपने लिए खुद ही आचरण संहिता बनानी चाहिए। सामूहिक रूप से देश भर के पत्रकारों ने अपने लिए कोई आचार संहिता नहीं बनाई है। कुछ अखबार अपने कर्मचारियों के लिए गाइड बुक्स बनाते हैं, पर वे भी स्टाइल बुक जैसी हैं। हाल में गठित न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने कुछ मोटे दिशा-निर्देश तैयार किए हैं, जो उसकी वैबसाइट पर उपलब्ध हैं। इनकी तुलना में बीबीसी की गाइड लाइन्स को देखें जो काफी विषद हैं। हमारे देश में किसी मीडिया हाउस ने ऐसी व्यवस्था की हो तो इसका मुझे पता नहीं है। अलबत्ता हिन्दू एक ऐसा अखबार है, जिसने एक रीडर्स एडीटर की नियुक्ति की है जो नियमित रूप से अखबार की गलतियों या दूसरी ध्यान देने लायक बातों को प्रकाशित करता है। हाल में हिन्दू के रीडर्स एडीटर एस विश्वनाथन ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि 1984 में हिन्दू ने भोपाल त्रासदी को किस तरह कवर किया। अखबार में पाठक के दृष्टिकोण को उभारना भी बाज़ार-व्यवस्था है। राजेन्द्र माथुर जब नवभारत टाइम्स में सम्पादक थे, तब टीएन चतुर्वेदी ओम्बड्समैन बनाए गए थे। पता नहीं आज ऐसा कोई पद वहाँ है या नहीं।

जैसे-जैसे हमारे समाज के अंतर्विरोध खुलते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया की ज़रूरत बढ़ रही है। यह ज़रूरत तात्कालिक खबरें या सूचना देने भर के लिए नहीं है। यह ज़रूरत समूची व्यवस्था से नागरिक को जोड़ने की है। समूचा मीडिया एक जैसा नहीं हो सकता। कुछ की नीतियाँ समाजवादी होंगी, कुछ की दक्षिणपंथी। कांग्रेस समर्थक होंगे, भाजपाई भी। जो भी हो साफ हो। चेहरे पर ऑब्जेक्टिव होने का सर्टिफिकेट लगा हो और काम में छिछोरापन हो तो पाठक निराश होता है।
हम आमतौर पर सारी बातों के लिए बाज़ार-व्यवस्था को दोषी मानते हैं। बाज़ार व्यवस्था का दोष है भी तो इतना कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानती। पाठक-श्रोता या दर्शक ही तो हमारा बाज़ार है। वह हमें खारिज कर दे तो हम कहाँ जाएंगे। हम अपने पाठक को भूलते जा रहे हैं। नैतिक रूप से हमारी जिम्मेदारी उसके प्रति है और व्यावसायिक रूप से अपने मालिक के प्रति। इधर स्वार्थी तत्व मीडिया पर हावी हैं। ऐसा हमारी कमज़ोर राजनैतिक व्यवस्था के कारण है।

सनसनी, अफवाहबाज़ी और घटियापन को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी है। उसे शिक्षित करने वाली समाज-व्यवस्था को पुष्ट करने का काम जागरूक मीडिया कर सकता है। हम क्या जागरूक और जिम्मेदार बनना नहीं चाहेंगे? सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था और मीडिया के रिश्तों पर पड़ताल की ज़रूरत आज नहीं तो कल पैदा होगी। कहते हैं चीनी समाज कभी अफीम के नशे में रहता था। आज नहीं है। हमारा नशा भी टूटेगा। 

Monday, July 26, 2010

विकीलीक्स यानी साहस की पत्रकारिता

इराक और अफगानिस्तान में नागरिकों की हत्या हो रही है, यह बात खबरों में कब से है। पर जब आप अपनी आँख से हत्याएं देखते हैं, तब दिल दहल जाता है। अमेरिकी सेना के ऑफीशियल वीडियो इस बात की जानकारी देते हैं, तब हमें सोचना पड़ता है। 


आज खबर है कि विकीलीक्स ने अमेरिकी सेना के करीब 92,000 गोपनीय दस्तावेज़ दुनिया के तीन अखबारों को सौंपे हैं, जिनसे अमेरिका के अफगान युद्ध के क्रूर मुख पर रोशनी पड़ती है। बताते हैं यह लीक 1970 के पेंटागन पेपर्स से भी ज्यादा बड़ा है।साथ वाला चित्र अफगानिस्तान में हेलीकॉप्टर से नागरिकों पर गोलीबारी का है। यूट्यूब पर यह वीडियो उपलब्ध है। लिंक नीचे दिया है। 


हमारे अधिकतर पाठक विकीलीक्स से परिचित नहीं हैं। हम पत्रकारिता के पेज3 मार्का मनोरंजन-मुखी चेहरे को ही देखते आए हैं। विकीलीक्स धीरे-धीरे एक वैश्विक शक्ति बनता जा रहा है। यह पत्रकारिता वह मिशनरी पत्रकारिता है, जो इस कर्म का मर्म है। जिस तरह से विकीपीडिया ने ज्ञान की राह खोली है उसी तरह विकीलीक्स ने इस ज़माने की पत्रकारिता का रास्ता खोला है। 


यह न तो कोई खुफिया संस्था है और न अमेरिका-विरोधी। यह सिर्फ अनाचार और स्वयंभू सरकारों के विरुद्ध है। इसने अमेरिका, चीन, सोमालिया, केन्या और आइसलैंड तक हर जगह असर डाला है। कुछ समय पहले तक कोई नहीं जानता था कि इसके पीछे कौन है। केवल ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार जूलियन  असांज सामने आते हैं। शायद वे इसके संस्थापकों में से एक हैं। बाईं ओर का चित्र असांज का है। उनसे बातचीत का वीडियो लिंक भी नीचे है। 


दुनिया की सबसे ताकतवर सरकारों के बारे मे निगेटिव सामग्री का प्रकाशन बेहद खतरनाक है। विकीलीक्स के पास न तो इतना पैसा है और न ताकत। अदालतें उसके खिलाफ कार्रवाई करतीं है। धीरे-धीरे इसे दुनिया के सबसे अच्छे वकीलों की सेवाएं मुफ्त मिलने लगीं हैं। जनता के दबाव के आगे संसदें झुकने लगीं हैं। शायद अभी आपकी निगाहें इस ओर नहीं गईं हैं।


बीबीसी की खबर
विकीलीक्स वैबसाइट
कोलेटरल मर्डरः वीडियो देखें, आप दहल जाएंगे 
जूलियन असेंज क्या कहते हैं
क्या है विकीलीक्स

Saturday, July 24, 2010

हिंग्लिश, हिन्दी और हम


सारा संसार समय के साथ बदलता है। भाषाएं भी बदलतीं हैं। हिन्दी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। इसे लेकर हाल में बीबीसी रेडियो के हिन्दी कार्यक्रम में इस सवाल को लेकर एक रोचक कार्यक्रम पेश किया गया। इसमें हिन्दी भाषियों के विचार भी रखे गए। 


हिन्दी के अखबारों ने , खासतौर से नवभारत टाइम्स ने अंग्रेजी मिली-जुली हिन्दी का न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया है, बल्कि उसे प्रगतिशील साबित भी किया है। अखबार के मास्टहैड के नीचे लाल रंग से मोटे अक्षरों में एनबीटी लिखा जाता है। मेरा ख्नयाल है कि नवभारत टाइम्स ने ऐसा विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए किया है। विज्ञापनदाता का हिन्दी जीवन-संस्कृति और समाज से रिश्ता नहीं है। वे फैशन के लिए एक खास तबके को लुभाते हैं। यह तबका हमारे बीच है, यह भी सच है। पर यह हिन्दी की मुख्यधारा नहीं है। बिजनेस के दबाव में यह धारा फैसले करती है। 


बीबीसी के इस कार्यक्रम में शब्बीर खन्ना नाम के श्रोता ने बीबीसी की अपनी भाषा नीति पर हमला बोला। भाषा में बदलाव कितना होना चाहिए, कैसे होना चाहिए, यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। क्या कोई भाषा शुद्ध हो सकती है? दाल में नमक या नमक में दाल? संज्ञाएं नहीं क्रियाएं बदली जा रहीं है। मजेदार बात यह है कि न तो  इस हिन्दी को चलाने वाले नवभारत टाइम्स ने और न किसी दूसरे अखबार ने कोई बहस चलाई। कोई सर्वे भी नहीं किया। बीबीसी ने यह चर्चा की अच्छी बात है। इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। 
  
बीबीसी कार्यक्रम को सुनें 

Friday, July 23, 2010

पत्रकारिता का मृत्युलेख

रामनाथ गोयनका पत्रकारिता  पुरस्कार समारोह के दौरान पेड न्यूज़ को लेकर परिचर्चा भी हुई। ऐसी परिचर्चा पिछले साल के समारोह में भी हो सकती थी। हालांकि उस वक्त तक यह मामला उठ चुका था। यों पिछले साल जब हिन्दू में पी साईनाथ के लेख प्रकाशित हुए तब इस मामले पर बात शुरू हुई। वर्ना मान लिया गया था कि इस सवाल पर मीडिया मौन धारण करे रहेगा।


गुरुवार के समारोह में अभिषेक मनु सिंघवी ने ठीक सवाल उठाया कि मीडिया तमाम सवालों पर विचार करता है, इसपर क्यों नहीं करता। इस समारोह में मौज़ूद कुमारी शैलजा, सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुड्डा ने बताया कि उनके पास मीडिया के लोग आए थे। बात इतनी साफ है तो क्यों नहीं हम इस मामले पर आगे जाकर पता लगाएं कि कौन पैसा माँगने आया था। किसने किसको कितना पैसा दिया। वह पैसा कहाँ गया वगैरह का पता तो लगे।


पेज3 की पेड न्यूज़ और चुनाव की पेड न्यूज़ में फर्क नहीं करना चाहिए। यह सब अपनी साख को तबाह करना है। इस समारोह मे हालांकि ज्यादातर वे लोग शामिल थे, जो इन बातों से ज्यादा नहीं जुड़े रहे हैं, पर उनमे से ज्यादातर के मासूम सवाल जनता के सवाल हैं। मसलन रविशंकर प्रसाद का यह सवाल कि क्या पत्रकारिता सीधे-सीधे ट्रेड और बिजनेस है? क्या ऐसा है? ऐसा है कहने के बाद पूरी व्यवस्था धड़ाम से ज़मीन पर आकर गिरती है। अरुणा रॉय कहती हैं कि डैमोक्रेसी में मीडिया का रोल है। मीडिया को प्रॉफिट-लॉस का कारोबार नहीं बनना चाहिए।


अच्छी बात है कि हम मीडिया की भूमिका पर बात कर रहे हैं, पर हम क्यों उम्मीद करें कि मीडिया प्रॉफिट-लॉस के मोह-जाल से ऊपर उठकर काम करेगा। उसे निकालने के पीछे की मनोभावनाएं वही रहेंगी तो इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम मीडिया का मालिक कौन हो इस सवाल को उठाएं।  यह सब जनता के दरवार में तय होना है। जनता बहुत सी बातों से अपरिचित है। वह हमपर ही भरोसा करती थी, पर हम उसे बताना नहीं चाहते। इसलिए इस मीडिया के भीतर से साखदार मीडिया के उभरने की ज़रूरत है। यह बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि दूध का जला हर दूध को जलाने वाला समझेगा।


मुझे लगता है पत्रकारिता को जिस तरह से राजनेताओं और सत्ता से जोड़ा गया है, उसे देखते हुए जल्द किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिरकार इंडियन एक्सप्रेस का यह समारोह भी पीआर एक्सरसाइड़ थी जिसमें अखबार की रपट के अनुसार शामिल होने वाले गणमान्य लोगों में गिनाने लायक नाम राजनेताओं के ही थे। एकाध पत्रकार भी था, तो वही पेज3 मार्का। पत्रकारिता का व्यवस्था के साथ 36 का रिश्ता होना चाहिए, पर यहाँ वैसा है नहीं। इसलिए सारी बातें ढोंग जैसी लगती हैं।


इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर इस गोष्ठी की बड़ी सी खबर है जिसका शीर्षक है 'पेड न्यूज़ कुड मार्क डैथ ऑफ जर्नलिज़्म'। यह खुशखबरी है या दुःस्वप्न?


कुछ महत्वपूर्ण लिंक


प्रेस काउंसिल रपट
काउंटरपंच में पी साइनाथ का लेख
हिन्दू में पी साइनाथ का लेख
इंडिया टुगैदर
सेमिनार
द हूट
न्यूज़ फॉर सेलः द हूट
सैलिंग कवरेजः द हूट
प्लीज़ डू नॉट सैल-विनोद मेहता