Saturday, August 23, 2014
कश्मीर को लेकर क्या कोई नई लकीर खींचना चाहते हैं मोदी?
Sunday, May 21, 2017
‘महाबली’ प्रधानमंत्री के तीन साल
Tuesday, June 17, 2014
राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियाँ
Monday, December 27, 2021
भारत-बांग्ला रिश्तों के खट्टे-मीठे पचास साल
भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस के रूप में उभरा था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी। बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में भारत का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। तब इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?
विभाजन की कड़वाहट
दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम
है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान
भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके ‘भारत
में अपनापन’ भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान
भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका ‘भारत-विरोधी’ भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश
के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी
गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति,
मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी।
शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के
साथ हैं।
पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार
होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है,
तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ
भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते
हैं। वही ‘विजय’ कट्टरपंथियों
के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की
सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में
काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और
उन्हें रोकने में मदद की है।
लोकतांत्रिक अनुभव
शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे
थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी
और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया
के मुख्य विरोधी-दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दुनिया
के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे। भारत ने समर्थन किया था, इसलिए कि
बांग्लादेश में अस्थिरता का भारत पर असर पड़ता है।
उस विवाद से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उस चुनाव में अवामी लीग ने कुल 300 में से 288 सीटों पर विजय पाई। दुनिया के मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है। बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता माना जाएगा।
Thursday, August 3, 2023
विदेश-नीति और आंतरिक-राजनीति की विसंगतियाँ
विदेशमंत्री एस जयशंकर ने पिछले हफ्ते लोकसभा में विरोधी सदस्यों के हंगामे के बीच भारत की विदेश-नीति तथा देश के नेताओं की हाल की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी देने के लिए एक बयान दिया. उस बयान को जिस राजनीतिक-बेरुखी का सामना करना पड़ा, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आंतरिक-राजनीति, विदेश-नीति को कितना महत्व दे रही है.
इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि सरकार
किसी भी पार्टी की हो, राष्ट्रीय-सुरक्षा और विदेश-नीति को लेकर आमराय होनी चाहिए.
इन नीतियों में क्रमबद्धता होती है. ऐसा नहीं होता कि सरकार बदलने पर इन नीतियों
में भारी बदलाव हो जाता हो.
इस महीने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स का एक
महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन होने वाला है. उसके बाद सितंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन
दिल्ली में होगा. ये सभी घटनाएं भारत के राष्ट्रीय-हितों के लिए भी महत्वपूर्ण
हैं.
कैसे ‘इंडिया’?
संसद में अपने बयान के प्रति बेरुखी को देखते
हुए जयशंकर ने कहा कि वे ‘इंडिया’ (विरोधी गठबंधन) होने का दावा करते हैं, लेकिन अगर वे भारत के राष्ट्रीय हितों के बारे में सुनने के लिए
तैयार नहीं हैं, तो वे किस तरह के ‘इंडिया’
हैं?
बहरहाल पिछले दिनों कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं हैं, जिनपर मीडिया का ध्यान कम गया है. एक और घटना संसद से ही जुड़ी है. विदेशी मामलों से जुड़ी संसदीय समिति ने भारत सरकार को सलाह दी है कि यदि पाकिस्तान पहल करे, तो उसके साथ आर्थिक संबंध फिर से कायम करने चाहिए.
Thursday, November 28, 2019
क्या हम हिंद महासागर में बढ़ते चीनी प्रभाव को रोक पाएंगे?
Saturday, December 7, 2019
क्या हम हिंद महासागर में बढ़ते चीनी प्रभाव को रोक पाएंगे?
Tuesday, May 11, 2021
एशिया में तेज गतिविधियाँ और भारतीय विदेश-नीति की चुनौतियाँ
पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अचानक गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। एक तरफ अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी शुरू हो गई है, वहीं अमेरिका के हटने के बाद की स्थितियों को लेकर आपसी विमर्श तेज हो गया है। अफगानिस्तान में हाल में हुए एक आतंकी हमले में 80 के आसपास लोगों की मृत्यु हुई है, जिनमें ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ हैं। ये लड़कियाँ शिया मूल के हज़ारा समुदाय से ताल्लुक रखती हैं।
ऐसा माना जा रहा है
कि यह हमला दाएश यानी इस्लामिक स्टेट ने किया है। इस हमले के बाद अमेरिका ने कहा
है कि अफगान सरकार और तालिबान को मिलकर इस गिरोह से लड़ना चाहिए। दूसरी तरफ
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री सऊदी अरब का दौरा करके आए हैं। इस दौरे के पीछे भी असली
वजह अमेरिका के पश्चिम एशिया से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर जाना है।
सऊदी अरब का प्रयास
है कि भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव खत्म हो, ताकि अफगानिस्तान में हालात पर काबू
पाया जा सके, साथ ही इस इलाके में आर्थिक सहयोग का माहौल बने। इस बीच सऊदी अरब और ईरान के बीच भी सम्पर्क स्थापित हुआ है। जानकारों
के अनुसार अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन का ईरान के साथ परमाणु समझौते को
दोबारा बहाल करने की कोशिश करना और चीन का ईरान में 400 अरब डॉलर के निवेश के
फ़ैसले के कारण सऊदी अरब के रुख़ में बदलाव नज़र आ रहा है।
अमेरिका की कोशिश भी ईरान से रिश्तों को सुधारने में है। इतना ही नहीं सऊदी और तुर्की रिश्तों में भी बदलाव आने वाला है। इस प्रक्रिया में भारत की नई भूमिका भी उभर कर आएगी। भारत ने प्रायः सभी देशों के साथ रिश्तों को सुधारा है। पाकिस्तान के कारण या किसी और वजह से तुर्की के साथ खलिश बढ़ी है, पर उसमें भी बदलाव आएगा।
Sunday, January 6, 2013
अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत
हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति अब्दुल्ला ग़ुल और आसिफ अली ज़रदारी, |
अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।
अमेरिकी रक्षामंत्री ने अफगानिस्तान में चल रही तालिबानी गतिविधियों को लेकर अपनी झुँझलाहट भी व्यक्त की और कहा कि उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने में पाकिस्तान लगातार विफल हो रहा है। पेनेटा ने कहा कि हमारे सब्र की सीमा खत्म हो रही है। पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के कड़वे बयान अब नई बात नहीं रहे। जैसे-जैसे अमेरिका और नेटो सेनाओं की वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अमेरिकी व्यग्रता बढ़ती जा रही है। उधर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का एजेंडा कुछ और था, पर भीतर-भीतर उन परिस्थितियों को लेकर विचार-विमर्श भी था जब अफगानिस्तान से अमेरिका हटेगा तब क्या होगा। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। इस संगठन में चीन और रूस के अलावा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान और किर्गीजिस्तान सदस्य देश हैं। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर आने वाले समय में इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो सकता है। इस संगठन में भारत, पाकिस्तान और ईरान पर्यवेक्षक हैं।
हालांकि अफगानिस्तान एससीओ का न तो सदस्य है और न पर्यवेक्षक, पर इस बार उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया और उम्मीद है कि जल्द ही उसे पर्यवेक्षक का दर्जा मिल जाएगा। पाकिस्तान इस संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लिहाज से भारत और ईरान की भूमिका भी है। तुर्की की भी इस इलाके में खासी दिलचस्पी है। खासतौर से कैस्पियन सागर से आने वाली तेल और गैस पाइप लाइनों के कारण यह इलाका आने वाले समय में महत्वपूर्ण होगा। चीन के पश्चिमी प्रांत इस इलाके से जुड़े हैं, पर वहाँ इस्लामी आतंकवाद का प्रभाव भी है। चीन का आरोप है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग कैम्पों में आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है। पाकिस्तान ने चीन के लिए गिलगित और बल्तिस्तान के दरवाजे खोल दिए हैं। वह चाहता है कि चीन की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका हो। ऐसा वह इसलिए भी चाहता है कि भारत को इस इलाके में ज्यादा सक्रिय होने का मौका न मिले।
पिछले साल दिल्ली आए अमेरिकी रक्षामंत्री पेनेटा ने कहा था कि पिछले दस साल में भारत ने अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, पर हम चाहते है कि भारत यहाँ सक्रिय हो। यह बात पाकिस्तान में पसंद नहीं की जाएगा, पर सच यह है कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सैकड़ों साल पुराने हैं। भारत वहाँ तकरीबन 2 अरब डॉलर का निवेश करके सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनवा रहा है। इसके अलावा अफगान सेना और पुलिस की ट्रेनिंग में भी भारत अपनी सेवा दे रहा है। अमेरिका इसे और बढ़ाना चाहता है। सवाल है क्या भविष्य में भारत इस इलाके में अमेरिकी हितों की रक्षा का काम करेगा? इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भारत को अंततः अपने हितों के लिए ही काम करना है। चीन और रूस भारत के सहयोगी देश हैं। पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं।
पिछले साल 20-21 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में हुए नेटो के शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान में 2015 के बाद की स्थितियों की समीक्षा की गई। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण फ्रांस और जर्मनी भी जल्द से जल्द हट जाना चाहते हैं, पर उसके पहले वे ऐसी व्यवस्था कायम कर देना चाहते हैं जो तालिबान से लड़ सके। पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में तालिबान का हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है। पाकिस्तानी सेना इसे परास्त करने में विफल रही है। अमेरिका की मान्यता है कि पाक सेना जान-बूझकर तालिबान को परास्त करना नहीं चाहती। अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपने प्रभाव को उसी तरह वापस लाना चाहता है जैसा 2001 से पहले था। पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जिसे लगता है कि अंततः अफगान कबीलों के हाथों में ताकत आएगी। अमेरिका ने वजारिस्तान में अल कायदा नेटवर्क को तकरीबन समाप्त कर दिया है। इसी 4 जून को सीआईए के एक ड्रोन हमले में अल कायदा का नम्बर दो अबू याह्या अल लीबी मारा गया। पाकिस्तानी सेना के विरोध के बावजूद अमेरिका के ड्रोन हमले जारी हैं। उधर सन 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी कम हो रही है।
पाकिस्तानी सेना और सरकार दोनों अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं, पर वहाँ की जनता आमतौर पर अमेरिका-विरोधी है। उत्तरी वजीरिस्तान में अमेरिकी कर्रवाई से जनता नाराज़ है। मुख्यधारा के राजनेता भी कट्टरपंथियों से दबते हैं। पर पाकिस्तान की मजबूरी है अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना। देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह अमेरिकी रहमो-करम पर है। इसी कारण सन 2001 में अमेरिकी फौजी कारवाई शुरू होने के बाद से पाकिस्तान नेटो सेनाओं की कुमुक के लिए रास्ता देता रहा है। शुरू में यह रास्ता मुफ्त में था, बाद में 250 डॉलर एक ट्रक का लेने लगा। 2011 के नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने सप्लाई पर रोक लगा दी थी। मई 2012 में शिकागो के नेटो सम्मेलन में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी खुद गए थे। बहरहाल नेटो की रसद सप्लाई फिर से शुरू हो गई।
अब इधऱ वॉशिंगटन और इंग्लैंड की कोशिशों से तुर्की को बीच में लाया गया है। तुर्की नेटो देश है और पाकिस्तान के लिए अपेक्षाकृत मुफीद होगा। तुर्की ने पाकिस्तान की जेलों से रिहा हुए पुराने तालिबानियों की अफगान शासकों से बातचीत कराने की पेशकश भी की है। पर इस बातचीत में भारत को शामिल करने का विचार नहीं है। दिसम्बर 2012 में अंकारा में आसिफ अली ज़रदारी, हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति अब्दुल्ला ग़ुल की त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। इसके दौरान एक प्रस्ताव सामने आया कि तालिबान का एक दफ्तर तुर्की में खोला जाए। हाल में तुर्की की राजनीति में इस्लामी तत्व प्रभावशाली हुए हैं। मिस्र के इस्लामिक ब्रदरहुड को मदद देने में तुर्की का हाथ भी है। इका उद्देश्य मध्यमार्गी इस्लामी समूहों को आगे लाने का है, तो यह उपयोगी भी हो सकता है। अफगानिस्तान के भीतर भी तुर्की से परहेज़ रखने वाले अनेक समूह हैं। खासतौर से उज़्बेक और हाज़रा समुदाय।
तुर्की का इस मामले में प्रवेश अनायास नहीं है। सन 2010 में तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था। पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था। पर उसके बाद नवम्बर 2011 में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा "एशिया के केंद्र में सुरक्षा और सहयोग" विषय पर अफगानिस्तान के संबंध में इस्ताम्बुल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस प्रतिनिधिमंडल में प्रधानमंत्री के विशेष दूत एस.के. लांबा और विदेश सचिव रंजन मथाई शामिल थे।
सम्मेलन में अपने राष्ट्रपति करजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच अक्टूबर 2011 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी समझौते का उल्लेख करते हुए अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की सराहना की। उन्होंने भारत को एक महान मित्र और इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी बताया। सम्मेलन की घोषणा में, आतंकवादियों के सुरक्षित पनाह स्थलों को समाप्त करने की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, आतंकवाद के संबंध में भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों की चिंताओं तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है। अफगानिस्तान में शांति और मेल-मिलाप की आवश्यकता के संबंध में यह दस्तावेज, रेड लाइन अर्थात हिंसा से बचने, आतंकवादी समूहों से संबंध विच्छेद करने, अफगानिस्तान के संविधान का सम्मान करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग की संरचना में एशिया के मध्य, दक्षिण और अन्य भागों को जोड़ते हुए व्यापार, पारगमन, ऊर्जा, आर्थिक परियोजनाओं और निवेश का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता के प्रति समझ-बूझ के महत्व पर बल देता है।
पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान के मध्यमार्गी समूहों को वैधानिकता मिले ताकि वे अफगानिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकें। इसके लिए तालिबान का एक दफ्तर किसी देश में खोलने की कोशिश हो रही है। यह दफ्तर सऊदी अरब में खोलने का विचार था, पर सऊदी अरब कट्टरपंथ और आतंकी गतिविधियों के प्रति सख्त रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए तुर्की बेहतर जगह लगती है। पाकिस्तानी सेना भी तुर्की के प्रति श्रद्धा का भाव रखती है। तुर्की पूरे इस्लामी देशों में सबसे आधुनिक है। और वह स्वयं को सफल इस्लामी लोकतंत्र साबित करना चाहता है। तुर्की और भारत के रिश्ते भी अच्छे हैं। ये रिश्ते आर्थिक हैं और आने वाले समय में तुर्की मध्य एशिया से दक्षिण एशिया को थल मार्ग से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर सन 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू और कश्मीर का उल्लेख किए जाने पर भारत ने चिंता व्यक्त की थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है तथा ऐसे सभी द्विपक्षीय मसलों से निपटने के लिए इन दोनों देशों के बीच उचित तंत्र हैं। हालांकि तुर्की ने इस बात को स्वीकार किया था, और स्पष्ट किया था कि उसके प्रधानमंत्री का आशय कश्मीर मुद्दे को उठाना नहीं था अपितु वह इस समय जारी भारत पाकिस्तान वार्ता के संबंध में पुराने विवादों का उल्लेख मात्र करना चाहते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तुर्की का सत्ताधारी दल अर्थात जस्टिस एंड डिवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) ने भारत के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने का सामरिक निर्णय लिया है। अफगानिस्तान में बदलते हालात का जायज़ा लेने में तुर्की हमारा मददगार हो सकता है इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन फरवरी में तुर्की जाएंगे। इस बात पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियाँ सिर उठाने न पाएं।
Sunday, December 25, 2016
तिराहे पर खड़ा देश
Sunday, June 27, 2021
कश्मीर से सकारात्मक-संदेश
इस हफ्ते 24 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कश्मीरी नेताओं की वार्ता ने न केवल जम्मू-कश्मीर में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता की सम्भावनाओं का द्वार खोला है। इस बातचीत के सही परिणाम मिलेंगे या नहीं, यह भी कहना मुश्किल है, पर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के शब्दों में यह ‘सही दिशा में उठाया गया कदम’ है। कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रिया की प्रक्रिया शुरू होने के साथ दूसरी प्रक्रियाएं शुरू होंगी, जिनसे हालात को सामान्य बनाने का मौका मिलेगा। इनमें सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियाँ शामिल हैं।
पहले
परिसीमन
सरकार ने जो रोडमैप दिया है उसके अनुसार राज्य में पहले परिसीमन, फिर चुनाव और उसके बाद
पूर्ण राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया होगी। पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर
पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि राज्य में परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद
चुनाव होंगे। उसके पहले अगस्त 2019 में गृहमंत्री अमित साह ने संसद में कहा था कि
समय आने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा। वस्तुतः यह कश्मीर
के नव-निर्माण की प्रक्रिया है।
सन 2019 में संसद से जम्मू-कश्मीर
पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद मार्च 2020 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग को
रिपोर्ट सौंपने के लिए एक साल का समय दिया गया था, जिसे इस साल मार्च में एक साल
के लिए बढ़ा दिया गया है। 6 मार्च, 2020 को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त
न्यायाधीश जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में आयोग का गठन किया था।
प्रधानमंत्री के साथ बातचीत का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि पूरी बातचीत में बदमज़गी पैदा नहीं हुई। बैठक में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे थे, जो 221 दिन से 436 दिन तक कैद में रहे। उनके मन में कड़वाहट जरूर होगी। वह कड़वाहट इस बैठक में दिखाई नहीं पड़ी। बेशक बर्फ पिघली जरूर है, पर आगे का रास्ता आसान नहीं है।
Monday, July 9, 2012
नया वैश्विक सत्य, उन्माद नहीं सहयोग
Tuesday, November 21, 2023
भारत-अमेरिका रिश्तों की अगली पायदान
भारत और अमेरिका के बीच हाल में हुई ‘टू प्लस टू’ वार्ता आपसी मुद्दों से ज्यादा वैश्विक-घटनाक्रम के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुई, फिर भी रक्षा-सहयोग और आतंकवाद से जुड़े कुछ मुद्दों ने खासतौर से ध्यान खींचा है। कनाडा में खालिस्तानी आतंकियों को मिल रहे समर्थन के संदर्भ में भारत ने अपना पक्ष दृढ़ता से रखा, वहीं रक्षा-तकनीक में सहयोग को लेकर कुछ संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं।
इन बातों को जून के महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान किए गए फैसलों की रोशनी में भी देखना होगा, क्योंकि ज्यादातर बातें उस दौरान तय किए गए कार्यक्रमों से जुड़ी हैं। गज़ा में चल रहा युद्ध और भारत-कनाडा टकराव अपेक्षाकृत बाद का घटनाक्रम है, पर उनसे दोनों देशों के रिश्तों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। दोनों परिघटनाएं प्रत्यक्ष नहीं, तो परोक्ष रूप में पहले से चल रही थीं।
Wednesday, August 16, 2023
इक्कीसवीं सदी में विदेश-नीति की बदलती दिशा
आज़ादी के सपने-08
भारत को आज़ादी ऐसे वक्त पर मिली, जब दुनिया दो खेमों में बँटी हुई थी. दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. यह चुनौती आज भी है. ज्यादातर बुनियादी नीतियों पर पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की छाप थी, जो 17 वर्ष, यानी सबसे लंबी अवधि तक, विदेशमंत्री रहे.
राजनीतिक-दृष्टि से उनका वामपंथी रुझान था. साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फासीवाद के वे विरोधी थे.
उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक-दृष्टि में रूमानियत इतनी ज्यादा थी कि कुछ
मामलों में राष्ट्रीय-हितों की अनदेखी कर गए. किसी भी देश की विदेश-नीति उसके
हितों पर आधारित होती है. भारतीय परिस्थितियाँ और उसके हित गुट-निरपेक्ष रहने में
ही थे. बावजूद इसके नेहरू की नीतियों को लेकर कुछ सवाल हैं.
चीन से दोस्ती
कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण और तिब्बत पर चीनी
हमले के समय की उनकी नीतियों को लेकर देश के भीतर भी असहमतियाँ थीं. तत्कालीन
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और नेहरू जी के बीच के पत्र-व्यवहार से यह बात ज़ाहिर
होती है. उन्होंने चीन को दोस्त बनाए रखने की कोशिश की ताकि उसके साथ संघर्ष को
टाला जा सके, पर वे उसमें सफल नहीं हुए.
तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारत का दूतावास
हुआ करता था. उसका स्तर 1952 में घटाकर कौंसुलर जनरल का कर दिया गया. 1962 की
लड़ाई के बाद वह भी बंद कर दिया गया. कुछ साल पहले भारत ने ल्हासा में अपना दफ्तर
फिर से खोलने की अनुमति माँगी, तो चीन ने इनकार कर दिया.
1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण जरूर दी, पर
‘एक-चीन नीति’
यानी तिब्बत पर चीन के अधिकार को मानते रहे. आज भी यह भारत की नीति है. तिब्बत को हम
स्वायत्त-क्षेत्र मानते थे. चीन भी उसे स्वायत्त-क्षेत्र मानता है, पर उसकी
स्वायत्तता की परीक्षा करने का अधिकार हमारे पास नहीं है.
सुरक्षा-परिषद की सदस्यता
पचास के दशक में अमेरिका की ओर से एक अनौपचारिक
प्रस्ताव आया था कि भारत को चीन के स्थान पर संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी कुर्सी
दी जा सकती है. नेहरू जी ने उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि चीन की
कीमत पर हम सदस्य बनना नहीं चाहेंगे.
उसके कुछ समय पहले ही चीन में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली थी, जबकि संरा में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक की ताइपेह स्थित कुओमिंतांग सरकार कर रही थी. नेहरू जी ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता भी दी और उसे ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन भी किया.
Sunday, August 24, 2014
कश्मीर में नई लक्ष्मण रेखा
Saturday, November 8, 2014
आर्थिक शक्ति देती है सामरिक सुरक्षा की गारंटी
Friday, June 25, 2021
दक्षिण एशिया में शांति और विकास की राह भी कश्मीर से होकर गुजरेगी
अच्छी बात यह है कि गुरुवार को प्रधानमंत्री के साथ कश्मीरी नेताओं की बातचीत में बदमज़गी नहीं थी। इस बैठक में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे थे, जो 221 दिन से 436 दिन तक कैद में रहे। उनके मन में कड़वाहट जरूर होगी। वह कड़वाहट इस बैठक में दिखाई नहीं पड़ी। बेशक इससे बर्फ पिघली जरूर है, पर आगे का रास्ता आसान नहीं है।
इस बातचीत पहले देश
के प्रधानमंत्री के साथ कश्मीरी नेताओं की वार्ता का एक उदाहरण और है। 23 जनवरी
2004 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कश्मीर के (हुर्रियत के)
अलगाववादी नेताओं की बात हुई थी। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने
उन्हें बुलाया था। उस बातचीत के नौ महीने पहले अटल जी ने श्रीनगर की एक सभा में ‘इंसानियत,
जम्हूरियत और कश्मीरियत’ का संदेश दिया
था।
पाकिस्तान की कश्मीर-योजना
तब में और अब में परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन आया है। कश्मीरी
मुख्यधारा की राजनीति के सामने भी अस्तित्व का संकट है और दिल्ली में जो सरकार है,
वह कड़े फैसले करने को तैयार हैं। दोनों पक्षों के पास टकराव का एक अनुभव है।
समझदारी इस बात में है कि दोनों अब आगे का रास्ता समझदारी के साथ तय करें। हालात
को सुधारने में पाकिस्तान की भूमिका भी है। भारत-द्वेष की कीमत भी उन्हें चुकानी
होगी। सन 1965 के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को जबरन हथियाने का जो कार्यक्रम
शुरू किया है, उसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच गई है।
भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार
यदि एक प्लेटफॉर्म पर आकर आर्थिक सहयोग करें तो यह क्षेत्र चीन की तुलना में कहीं
ज्यादा तेजी से विकास कर सकता है। यह सपना है, जो आसानी से साकार हो सकता है। इसके
लिए सभी पक्षों को समझदारी से काम करना होगा।
एकीकरण की जरूरत
गत 18 फरवरी को नरेंद्र मोदी ने चिकित्सा आपात स्थिति के दौरान दक्षिण
एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र के देशों के बीच डॉक्टरों, नर्सों और एयर एंबुलेंस की निर्बाध आवाजाही के लिए क्षेत्रीय
सहयोग योजना के संदर्भ में कहा था कि 21 वीं सदी को एशिया की सदी बनाने के लिए
अधिक एकीकरण महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान सहित 10 पड़ोसी देशों के साथ ‘कोविड-19
प्रबंधन, अनुभव और आगे
बढ़ने का रास्ता’ विषय पर एक कार्यशाला में उन्होंने यह बात कही। इस बैठक में
मौजूद पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने भारत के रुख का समर्थन किया। बैठक में यह भी कहा
गया कि ‘अति-राष्ट्रवादी मानसिकता मदद नहीं करेगी।’ पाकिस्तान ने कहा कि वह इस
मुद्दे पर किसी भी क्षेत्रीय सहयोग का हिस्सा होगा।
मोदी ने कहा, महामारी के दौरान देखी गई क्षेत्रीय एकजुटता की भावना ने साबित कर दिया है कि इस तरह का एकीकरण संभव है। कई विशेषज्ञों ने घनी आबादी वाले एशियाई क्षेत्र और इसकी आबादी पर महामारी के प्रभाव के बारे में विशेष चिंता व्यक्त की थी, लेकिन हम एक समन्वित प्रतिक्रिया के साथ इस चुनौती सामना कर रहे हैं। इस बैठक और इस बयान के साथ पाकिस्तानी प्रतिक्रिया पर गौर करना बहुत जरूरी है। कोविड-19 का सामना करने के लिए भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी इन दिनों खासतौर से चर्चा का विषय है। इस वक्तव्य के एक हफ्ते बाद 25 फरवरी को भारत और पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम की घोषणा की।
Tuesday, November 11, 2014
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कैसा होगा मोदी का ‘ब्रांड इंडिया’
Friday, March 24, 2023
पानी पर कब्जे की लड़ाई या सहयोग?
जनवरी के महीने में जब भारत ने पाकिस्तान को सिंधु जलसंधि पर संशोधन का सुझाव देते हुए एक नोटिस दिया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि यह एक नए राजनीतिक टकराव का प्रस्थान-बिंदु है. सिंधु जलसंधि दुनिया के सबसे उदार जल-समझौतों में से एक है. भारत ने सिंधु नदी से संबद्ध छह नदियों के पानी का पाकिस्तान को उदारता के साथ इस्तेमाल करने का मौका दिया है. अब जब भारत ने इस संधि के तहत अपने हिस्से के पानी के इस्तेमाल का फैसला किया, तो पाकिस्तान ने आपत्ति दर्ज करा दी.
माना जाता है कि कभी तीसरा विश्वयुद्ध हुआ, तो
पानी को लेकर होगा. जीवन की उत्पत्ति जल में हुई है. पानी के बिना जीवन संभव नहीं,
इसीलिए कहते हैं ‘जल ही जीवन है.’ जल दिवस 22 मार्च को मनाया जाता है. इसके पहले
14 मार्च को दुनिया में ‘एक्शन फॉर रिवर्स दिवस’ मनाया गया है. नदियाँ पेयजल उपलब्ध कराती हैं, खेती में
सहायक हैं और ऊर्जा भी प्रदान करती हैं.
इन दिवसों
का उद्देश्य विश्व के सभी देशों में स्वच्छ एवं सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित
कराना है. साथ ही जल संरक्षण के महत्व पर भी ध्यान केंद्रित करना है. दुनिया यदि
चाहती है कि 2030 तक हर किसी तक स्वच्छ पेयजल और
साफ़-सफ़ाई की पहुँच सुनिश्चित हो, जिसके लिए एसडीजी-6
लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो हमें चार गुना तेज़ी से काम करना
होगा.
चीन का नियंत्रण
हाल के वर्षों में चीन का एक बड़ी
आर्थिक-सामरिक शक्ति के रूप में उदय हुआ है. जल संसाधनों की दृष्टि से भी वह महत्वपूर्ण
शक्ति है. दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में बहने वाली सात महत्वपूर्ण नदियों पर
चीन का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण है. ये नदियाँ हैं सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी,
सलवीन, यांगत्जी और मीकांग. ये नदियां भारत,
पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार,
लाओस और वियतनाम से होकर गुजरती हैं.
पिछले साल, पाकिस्तान और नाइजीरिया में आई बाढ़, या अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से पता लगता है कि पानी का संकट हमारे जीवन को पूरी तरह उलट देगा. हमारे स्वास्थ्य, हमारी सुरक्षा, हमारे भोजन और हमारे पर्यावरण को ख़तरे में डाल देगा.