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Tuesday, December 18, 2018

राजनीतिक दलदल में ‘राफेल’


राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विवाद बजाय खत्म होने के बढ़ गया है. अदालती फैसले के एक पैराग्राफ को लेकर कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर नए आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं. इससे मूल विवाद के अलावा कुछ नए आरोप और जुड़ गए हैं. शुक्रवार को अदालत ने जो फैसला सुनाया था, उससे सरकारी पक्ष मजबूत हो गया था, पर फैसले की भाषा के कारण लगता है कि यह विवाद अभी तबतक चलेगा, जबतक सुप्रीम कोर्ट उसे और स्पष्ट न करे.

शनिवार को सरकार ने हलफनामा दाखिल करके कहा कि सरकार ने सीलबंद लिफाफों में अदालत को जानकारी दी थी, उसमें यह नहीं लिखा गया था कि इस मामले में सीएजी रिपोर्ट आ गई है और उसे लोकलेखा समिति (पीएसी) को दिखा दिया गया है. सरकार ने केवल यह बताया था कि इस प्रकार के सौदों की जानकारी संसद के सामने लाने की प्रक्रिया क्या है. अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है. ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है.

Saturday, December 15, 2018

कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियाँ

जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब परीक्षा होगी. 
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी. 

Wednesday, December 12, 2018

बीजेपी की उतरती कलई


इन चुनाव परिणामों का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए एक ही संदेश है. वक्त है अब भी बदल जाओ. पर फटकार बीजेपी के नाम है. उत्तर के तीनों राज्यों में उसकी कलई उतर गई है. दक्षिण और पूर्वोत्तर में भी कुछ मिला नहीं. उसने खोया ही खोया है. बेशक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों में एंटी-इनकम्बैंसी थी, पर पार्टी ने बचने के लिए जिस हिन्दुत्व का सहारा लिया, वह कत्तई कारगर साबित नहीं हुआ. संघ का कुशल-कारगर संगठन और अमित शाह की शतरंजी-योजनाएं फेल हो गईं.

सबसे बड़ी और शर्मनाक हार छत्तीसगढ़ में हुई, जो बीजेपी का आदर्श राज्य हुआ करता था. उसकी तरह 5 साल की एंटी इनकम्बैंसी मध्य प्रदेश में भी थी, पर शिवराज सिंह चौहान को श्रेय जाता है कि उन्होंने शर्मनाक हार को बचाकर उसे काँटे की टक्कर बनाया. दोनों पार्टियों का वोट प्रतिशत तकरीबन बराबर है. रमन सिंह और वसुंधरा राजे ऐसा करने में विफल रहे. छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों राज्यों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में आठ-आठ फीसदी की गिरावट आई है.

Tuesday, December 4, 2018

किसानों का दर्द और जीडीपी के आँकड़े


दो तरह की खबरों को एकसाथ पढ़ें, तो समझ में आता है कि लोकसभा चुनाव करीब आ गए हैं. नीति आयोग और सांख्यिकी मंत्रालय ने राष्ट्रीय विकास दर के नए आँकड़े जारी किए हैं. इन आँकड़ों की प्रासंगिकता पर बहस चल ही रही थी कि दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने देश का ध्यान खींच लिया. दोनों परिघटनाओं की पृष्ठभूमि अलग-अलग है, पर ठिकाना एक ही है. दोनों को लोकसभा चुनाव की प्रस्तावना मानना चाहिए.

संसद के शीत-सत्र की तारीखें आ चुकी हैं. किसानों का मसला उठेगा, पर इससे केवल माहौल बनेगा. नीतिगत बदलाव की अब आशा नहीं है. इसके बाद बजट सत्र केवल नाम के लिए होगा. जहाँ तक किसानों से जुड़े दो निजी विधेयकों का प्रश्न है, यह माँग हमारी परम्परा से मेल नहीं खाती. ऐसे कानून बनने हैं, तो विधेयक सरकार को लाने होंगे, वैसे ही जैसे लोकपाल विधेयक लाया था. यों उसका हश्र क्या हुआ, आप बेहतर जानते हैं.

Wednesday, November 28, 2018

चुनावी दौर में मंदिर का शोर

अयोध्या में राम मंदिर बनाने की माँग फिर से सुनाई पड़ रही है. रविवार को विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की धर्मसभा में आंदोलन को जारी रखने का संकल्प किया. शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अयोध्या आए और उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास मंदिर बनाने का पूरा अधिकार है. ऐसा नहीं करेगी तो यह सरकार दोबारा नहीं बनेगी, लेकिन राम मंदिर जरूर बनेगा. ठाकरे की दिलचस्पी अपने वोटर में है. उन्होंने सरकार से मंदिर निर्माण की तारीख पूछी है.  
उधर नागपुर की हुंकार सभा में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हमारे धैर्य का समय बीता जा रहा है. एक साल पहले तक मैं कहता था, धैर्य रखो, आज मैं कह रहा हूँ कि अब आंदोलन निर्णायक हो.उन्होंने सरकार से कहा कि वह सोचे कि मंदिर कैसे बनाया जा सकता है. संघ के एक राष्ट्रीय नेता इंद्रेश कुमार ने मंगलवार को एक गोष्ठी में सुप्रीम कोर्ट पर भी तीखी टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा कि सरकार कानून बनाने जा रही है. चुनाव की आदर्श आचरण संहिता लागू है, इसलिए घोषणा नहीं की है. साथ में उनका कहना है कि सरकार कानून बनाने का प्रस्ताव लाए, तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट उसे स्टे कर दे. हो सकता है आदेश लाने के खिलाफ कोई सिरफिरा सुप्रीम कोर्ट जाएगा, तो आज का चीफ जस्टिस उसे स्टे भी कर सकता है. बीजेपी और संघ के नेता सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं. उधर विहिप नेता कह रहे हैं, अब याचना नहीं, रण होगा. निर्मोही अखाड़े के महंत रामजी दास ने कहा, मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा महाकुंभ के दौरान की जाएगी.

Saturday, November 24, 2018

कश्मीर को नई शुरुआत का इंतजार


कश्मीर विधानसभा भंग करने के फैसले ने एक तरफ राजनीतिक और सांविधानिक विवादों को जन्म दिया है, वहीं राज्य की जटिल समस्या को शिद्दत के साथ उभारा है. कुछ संविधान विशेषज्ञों ने विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के अधिकार को लेकर आपत्ति व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि सरकार बनने की स्थिति है या नहीं, इसका फैसला सदन के फ्लोर पर होना चाहिए. राज्यपाल सतपाल मलिक का कहना है कि मैं किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देता तो राज्य में बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती.

सरकार बनाने के लिए वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रहीं थीं. दोनों के स्थायित्व की गारंटी नहीं थी. पता नहीं कि राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए. सवाल है कि विधानसभा भंग करने की भी जल्दी क्या थी? लोकतांत्रिक विकल्प खोजने चाहिए थे. विधानसभा भंग होनी ही थी, तो जून में क्यों नहीं कर दी गई, जब बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती ने इस्तीफा दिया था?

Wednesday, November 21, 2018

सरकार और बैंक की सकारात्मक सहमतियाँ


सरकार, रिजर्व बैंक, उद्योग जगत की महत्वपूर्ण हस्तियों और बैंकिंग विशेषज्ञों की आमराय से देश की पूँजी और मौद्रिक-व्यवस्था न केवल पटरी पर वापस आ रही है, बल्कि भविष्य के लिए नए सिद्धांतों को भी तय कर रही है. इस लिहाज से हाल में खड़े हुए विवादों को सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए. ये फैसले और यह विमर्श रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 की रोशनी में ही हुआ है. सोमवार को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक अपने किस्म की पहली थी. इतनी लम्बी बैठक शायद ही पहले कभी हुई होगी. करीब नौ घंटे चली बैठक के बाद सरकार और बैंक के बीच तनातनी न केवल ठंडी पड़ी, बल्कि भविष्य का रास्ता भी निकला है. 

यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?

बैठक के पहले कयास था कि बैंक पर सरकार द्वारा मनोनीत प्राइवेट निदेशक अपने संख्याबल के आधार पर हावी हो जाएंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार किसी भी प्रस्ताव पर मतदान की नौबत नहीं आई. बैंक-प्रतिनिधियों ने सरकार की बातों को गौर से सुना और सरकार ने बैंक-प्रतिनिधियों को पूरा सम्मान दिया. दोनों पक्षों ने आग पर पानी डालने का काम किया. यह तनातनी कितनी थी, इसे लेकर भी कयास ज्यादा हैं. मीडिया और राजनीति के मैदान में इसका विवेचन ज्यादा हुआ और ट्विटरीकरण ने आग लगाई.

Tuesday, November 13, 2018

‘नाम’ और उससे जुड़ी राजनीति


इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने और फिर फैजाबाद की जगह अयोध्या को जिला बनाए जाने के बाद नाम से जुड़ी खबरों की झड़ी लग गई है. केंद्र सरकार ने पिछले एक साल में कम से कम 25 शहरों, कस्बों और गांवों के नाम बदलने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी है जबकि कई प्रस्ताव उसके पास विचाराधीन हैं. इनमें पश्चिम बंगाल का नाम ‘बांग्ला’ करने, शिमला को श्यामला, लखनऊ को लक्ष्मणपुरी, मुजफ्फरनगर को लक्ष्मीनगर, अलीगढ़ को हरिगढ़ और आगरा को अग्रवन का नाम देने के प्रस्ताव शामिल हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री ने कहा है कि हम अहमदाबाद का नाम कर्णवती करने पर विचार कर रहे हैं. 

दो राय नहीं कि यह नाम-परिवर्तन बीजेपी के हिन्दुत्व का हिस्सा है और इस तरीके से पार्टी अपने जनाधार को बनाए रखना चाहती है. सवाल है कि क्या वास्तव में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को यह सब पसंद आता है? क्या इन तौर-तरीकों से बड़े स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना जागेगी? और क्या इस तरीके से देश की मुस्लिम संस्कृति को  सिरे से झुठलाया या खारिज किया जा सकेगा? हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की वास्तविकता को क्या इस तरीके से खारिज किया जा सकता है?

नाम-परिवर्तन की प्रक्रिया आज अचानक शुरू नहीं हुई है. काफी पहले से चली आ रही है. भारत ही नहीं, सारी दुनिया में. कुंस्तुनतुनिया का नाम इस्तानबूल हो गया. पाकिस्तान के लायलपुर का नाम अब फैसलाबाद है. इस नाम-परिवर्तन के अलग-अलग कारण हैं. देश-काल, ऐतिहासिक घटनाक्रम और संस्कृतियों के बदलाव से ऐसा होता है. आज के दौर के इतिहास को बदलने में राजनीति की बड़ी भूमिका है. इस बदलाव के सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण साफ हैं. बदलाव करने वाले इसे छिपाना भी नहीं चाहते.

Monday, November 5, 2018

सरकार और रिज़र्व बैंक की निरर्थक रस्साकशी


भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए दो-तीन अच्छी खबरें हैं. ईरान से तेल खरीदने पर अमेरिकी पाबंदियों का खतरा टल गया है. अमेरिका ने जापान, भारत और दक्षिण कोरिया समेत अपने आठ मित्र देशों को छूट दे दी है. तेल की कीमतों में भी कुछ कमी आई है. विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है. इससे भारत को विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी. इसके पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव है. बैंकों की दशा खराब है.

वित्त मंत्रालय की कोशिशों के बावजूद लगता है कि इस साल राजकोषीय घाटा लक्ष्य से बाहर चला जाएगा. व्यापार घाटे में लगातार इजाफा हो रहा है. ऐसे में सीबीआई के भीतर टकराव और रिज़र्व बैंक के साथ केंद्र के टकराव ने हालात को और बिगाड़ दिया है. विडंबना है कि यह टकराव सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि नासमझी का नतीज़ा है. और मीडिया ने इसे सनसनी का रूप दे दिया है. पराकाष्ठा पिछले हफ्ते हुई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श शुरू कर दिया. केंद्र सरकार जरूरी होने पर इस धारा का इस्तेमाल करते हुए, रिज़र्व बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है.

Wednesday, October 31, 2018

जनता के मसले कहाँ हैं इस चुनाव में?

पाँच राज्यों में चुनाव बादल छाए हैं. छत्तीसगढ़ में पहले दौर का चुनाव प्रचार चल रहा है. नामांकन हो चुके हैं, प्रत्याशी मैदान में हैं और प्रचार धीरे-धीरे शोर में तब्दील हो चुका है. दूसरे चरण की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें नामांकन की आखिरी तारीख 2 नवंबर है. उसी रोज मध्य प्रदेश और मिजोरम का नोटिफिकेशन हो जाएगा. इसके बाद राजस्थान और तेलंगाना. 7 दिसंबर तक मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. मीडिया के शोर और सूचनाओं की आँधी के बीच क्या कोई बता सकता है कि इन चुनावों के मुद्दे क्या हैं? छत्तीसगढ़ के क्या सवाल हैं, मध्य प्रदेश के मसले क्या हैं और राजस्थान और तेलंगाना के वोटरों की अपेक्षाएं क्या हैं? विधानसभा चुनाव राज्यों के मसलों पर लड़े जाते हैं और लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय प्रश्नों पर. क्या फर्क है दोनों में?

हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?

Wednesday, October 17, 2018

उत्तर भारत पर प्रदूषण का एक और साया

पिछले कुछ वर्षों का अनुभव है कि जैसे ही हवा में ठंडक पैदा हुई उत्तर भारत में प्रदूषण का खतरा पैदा होने लगता है. पंजाब और हरियाणा के किसान फसल काटने के बाद बची हुई पुआल यानी पौधों के सूखे डंठलों-ठूंठों को खेत में ही जलाते हैं. इससे दिल्ली समेत पूरा उत्तर भारत गैस चैंबर जैसा बन जाता है. मौसम में ठंडक आने से हवा भारी हो जाती है और वह ऊपर नहीं उठती. उधर इसी मौसम में दशहरे और दीपावली के त्योहार भी होते हैं. इस वजह से माहौल धुएं से भर जाता है. इस साल भी वह खतरा सामने है.

दिल्ली में हवा धीरे-धीरे बिगड़ने लगी है. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, केंद्र सरकारों और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी एजेंसियों के बार-बार हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं. किसानों पर जुर्माने लगाने और सज़ा देने की व्यवस्थाएं की गई हैं. वे जुर्माना देकर भी खेतों में आग लगाते हैं. कहीं पर व्यावहारिक दिक्कतें जरूर हैं. बहरहाल मौसम विभाग ने आने वाले दिनों के लिए अलर्ट जारी कर दिया है. अब इंतजार इस बात का है कि हवा कितनी खराब होगी और सरकारें क्या करेंगी.

Monday, October 1, 2018

तीखे अंतर्विरोध और अदालती फैसले


आधुनिकता की ओर बढ़ता हमारा देश कई प्रकार के अंतर्विरोधों से भी जूझ रहा है. पिछले हफ्ते हमारे सुप्रीम कोर्ट ने कम के कम छह ऐसे फैसले किए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा का कार्यकाल इस हफ्ते खत्म हो रहा है. वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई. उसकी दस्तक सुप्रीम कोर्ट में भी हुई. उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं. इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं.
इस हफ्ते के ज्यादातर फैसलों के भी प्रत्यक्ष और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ हैं. पर दो मामले ऐसे हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों और परम्परागत समाज के अंतर्विरोधों से जुड़े हैं. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया था. लगभग उसी प्रकार का एक फैसला इस हफ्ते व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से जुड़ा है. हमारे देश में व्यभिचार आईपीसी की धारा 497 के तहत अपराध है, पर यह धारा केवल पुरुषों पर लागू होती है. इसे रद्द करने की माँग पुरुषों को राहत देने के अनुरोध से की गई थी. अलबत्ता अदालत ने इसे स्त्रियों के वैयक्तिक अधिकार से भी जोड़ा है.  

Tuesday, September 18, 2018

मोदी के ‘स्वच्छाग्रह’ के राजनीतिक मायने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 सितंबर से स्वच्छता ही सेवा अभियानशुरू किया है, जो 2 अक्टूबर तक चलेगा. इस 2 अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वाँ जयंती वर्ष भी शुरू हो रहा है. व्यापक अर्थ में यह गांधी के अंगीकार का अभियान है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. उनके कार्यक्रमों पर चलने की घोषणा भी की है. यह एक प्रकार की 'सॉफ्ट राजनीति' है. इसका प्रभाव वैसा ही है, जैसा योग दिवस का है. मोदी ने गांधी को अंगीकार किया है, जिसका विरोध कांग्रेस नहीं कर सकती. 
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 अक्टूबर को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण भी करेंगे, जो दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा है. पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीना है. उनके स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने स्वच्छाग्रहशब्द का इस्तेमाल किया.

Tuesday, September 11, 2018

सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका


धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।

Wednesday, August 29, 2018

आक्रामक राहुल गांधी

राहुल गांधी ने हाल में जर्मनी और ब्रिटेन में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिन्हें लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयानों को देश-विरोधी बताया है, वहीं किसी ने राहुल के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया है. मुजफ्फरपुर में इस केस को दायर करने वाले का आरोप है कि राहुल ने देश का अपमान किया है. राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. इसके जवाब में बीजेपी की ओर से कहा गया कि उन्हें भारत की अभिकल्पना के साथ धोखा बंद करना चाहिए. राहुल गांधी ने जर्मनी के हैम्बर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी और लोगों के अंदर पनपे ग़ुस्से के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं होने लगी हैं. उनका यह भी कहना था कि विश्व में कहीं भी लोगों को विकास की प्रक्रिया से दूर रखा जाता है तो आईएस जैसे गुटों को बढ़ावा मिलता है.

पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

Saturday, August 18, 2018

अटल ने बीजेपी की स्थायी 'विरोधी' छवि को तोड़कर उसे सत्तारूढ़ बनाया

बीजेपी सत्ता में नहीं होती तो शायद अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर इतना जबर्दस्त शोक-प्रदर्शन न हुआ होता. इस शोक प्रदर्शन में कई तरह के लोग हैं, पर मोटे तौर पर दो तरह के लोगों को पहचाना जा सकता है. पहले हैं भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक और दूसरे हैं भारतीय जनता पार्टी के विरोधी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसकों में बड़ी संख्या उनके विरोधियों की भी रही है, पर आज काफी लोग वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में भी अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं. वे रेखांकित कर रहे हैं कि अटल क्यों गुणात्मक रूप से मोदी-व्यवस्था से भिन्न थे. यह फर्क अटल की समन्वयवादी रीति-नीति और देश की सामाजिक बहुलता के प्रति दृष्टि के कारण है. अटल बिहारी वाजपेयी ने यह साबित किया कि बीजेपी भी देश पर राज कर सकती है. उसे स्थायी विपक्ष के स्थान पर सत्ता-पक्ष बनाने का श्रेय उन्हें जाता है. उन्होंने वह सूत्र पकड़ा, जिसके कारण कांग्रेस देश की एकछत्र पार्टी थी. इस बात का विश्लेषण अभी लम्बे समय तक होगा कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है या बीजेपी, पर यह भी सच है कि आजादी के ठीक पहले तक कांग्रेस को हिन्दू पार्टी माना जाता था. तब बीजेपी थी भी नहीं. उनका निधन ऐसे मौके पर हुआ है, जब बीजेपी के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हैं. बेशक अटल के नाम पर बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा. देखना यह भी होगा कि पार्टी अटल की उदारता और सहिष्णुता की विरासत को आगे बढ़ाने के बारे में सोचेगी या नहीं.

अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद रात के टेलीविजन शो में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी, जो अटल बिहारी वाजपेयी के कटु आलोचक हुआ करते थे, तारीफ करते नजर आए. उनकी राय थी कि अटलजी उदार और व्यावहारिक नेता थे. हालांकि इनमें से काफी लोग उन्हें तब भी फासिस्ट बताते थे. आज वे उन्हें उदार मान रहे हैं, तो इसके दो कारण हैं. हमारी संस्कृति में निधन के बाद व्यक्ति की आलोचना नहीं करते, पर यह राजनीति का गुण नहीं है. पिछले डेढ़ दशक की राजनीति के ठोस सत्य से रूबरू होने के बाद यह वास्तव में दिल की आवाज है.

अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.

Saturday, August 11, 2018

तमिल-राजनीति में एक और ब्रेक


करीब पाँच दशक तक तमिलनाडु की राजनीति के शिखर पर रहने वाले एम करुणानिधि के निधन के बाद करीब बीस महीने के भीतर राज्य की राजनीति में बड़ा ब्रेक आया है. इसके पहले दिसम्बर 2016 में जे जयललिता का निधन पहली बड़ी परिघटना थी. गौर से देखें दोनों परिघटनाओं के इर्द-गिर्द एक नई तमिल राजनीति जन्म ले रही है. कालांतर में तमिल राजनीति दो ध्रुवों में बँट गई थी, पर इन दोनों ध्रुवों के नायकों के चले जाने के बाद सवाल पैदा हो रहे हैं, जिनके जवाब अब मिलेंगे. सन 2019 के चुनाव के लिए होने वाले गठबंधनों में उनकी तस्वीर नजर आएगी.
इन दो दलों के नजरिए से देखें तो द्रमुक की स्थिति बेहतर लगती  है, क्योंकि करुणानिधि ने विरासत का फैसला जीते जी कर दिया था, जबकि अद्रमुक में विरासत की लड़ाई जारी है. करुणानिधि ने पार्टी की कमान एमके स्टैलिन को सौंप जरूर दी है, पर वे उनकी कुव्वत का फैसला वक्त करेगा. वे अपने पिता की तरह कद्दावर नेता साबित होंगे या नहीं? इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या तमिलनाडु की स्थितियाँ पचास के दशक जैसी हैं, जब द्रविड़ आंदोलन ने अपने पैर जमाए थे? तमिल-राजनीति को ज्यादा बड़े फलक पर देखने की जरूरत है. पर उसकी पृष्ठभूमि को समझना भी उपयोगी होगा.

Thursday, August 2, 2018

असम के सवाल पर संयम की जरूरत

असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हैं. इनमें दो प्रतिक्रियाएं राजनीतिक हैं. तीसरी इस समस्या के समाधान को लेकर चिंतित नागरिकों की है. हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह और असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल  ने स्पष्ट किया है कि जिन 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, पर राजनीतिक स्तर पर हो रही बयानबाजी के कारण बेवजह का तनाव फैल रहा है. यह सब 2019 के चुनाव की पृष्ठपीठिका है. इससे ज़ाहिर यह हो रहा है कि राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर भी राजनीति कितने निचले स्तर पर जा सकती है. अब तक की आधिकारिक स्थिति यह है कि सूची में नाम नहीं होने के कारण किसी को विदेशी नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा. सम्भव है कि आने वाले समय में कुछ नाम अलग हो जाएं, तब हम क्या करेंगे, इसपर विचार करना चाहिए. दिक्कत इस मसले के राजनीतिकरण के कारण खड़ी हो रही है. आग में में घी डालने का काम अमित शाह और ममता बनर्जी दोनों ने किया है. 
अभी तक किसी भी स्तर पर यह तय नहीं हुआ है कि असम में कितने अवैध नागरिक हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में चल रही है. मंगलवार को अदालत ने एनआरसी से बाहर रह गए 40 लाख से ज्यादा लोगों से कहा है कि उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. अदालत ने केंद्र को निर्देश दिया है इन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. बाहर रह गए लोगों की आपत्तियां निष्पक्ष रूप से दर्ज करें और इसके लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन किया जाना चाहिए. अदालत के सामने 16 अगस्त तक एसओपी की रूपरेखा पेश कर दी जाएगी. सांविधानिक दायरे में और मानवीय प्रश्नों को सामने रखकर ही अंततः कोई फैसला होगा.

Tuesday, July 24, 2018

2019 की बहस का आग़ाज़


मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का गिरना खबर नहीं है, क्योंकि इसे पेश करने वाले भी जानते थे कि पास होने वाला नहीं. से लेकर तीन किस्म की जिज्ञासाएं थीं. एक, एनडीए के पक्ष में कितने वोट पड़ेंगे, दूसरे विरोधी दलों की एकता कितनी मजबूती से खड़ी दिखाई पड़ेगी और तीसरे, क्या लोकसभा चुनाव के लिए कोई मूमेंटम इससे बनेगा? शुक्रवार को इस बहस के लिए सात घंटे का समय रखा गया था, पर चर्चा 12 घंटे चली.
पूरी बहस का उल्लेखनीय पहलू है, दोनों तरफ की जबर्दस्त नाटकीयता और शोर. लगता है कि 2019 के चुनाव का अभियान शुरू हो गया है. यह अविश्वास प्रस्ताव तेलगु देशम की ओर से आंध्र को लेकर था, पर ज्यादातर वक्ताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया. सारा ध्यान बीजेपी और कांग्रेस पर रहा. राहुल गांधी का निशाना मोदी पर था और मोदी का राहुल पर.

Thursday, July 19, 2018

संसदीय कर्म की दिशाहीन राजनीति


लोकसभा चुनाव समय से हुए तो संसद के तीन सत्र उसके पहले हो जाएंगे. इन तीनों सत्रों में सत्तापक्ष और विपक्ष की जोर-आजमाइश अपने पूरे उभार पर देखने को मिलेगी. इसका पहला संकेत बुधवार से शुरु हुए मॉनसून सत्र में देखने को मिल रहा है और अभी मिलेगा. इसकी शुरुआत मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस से हुई है. राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद और लोकसभा में कांग्रेस के सदन के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी के फैसले का ऐलान करते हुए कहा था कि 15 पार्टियां हमारे साथ हैं. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे विचार के लिए स्वीकार कर लिया है. प्रस्ताव पर चर्चा शुक्रवार 20 जुलाई को होगी. लगता है कि यह सत्र ही नहीं अगले चुनाव तक देश की राजनीति इस प्रस्ताव के इर्द-गर्द रहेगी.

इस पहल की केंद्रीय राजनीति जरूर विचारणीय है. यह नोटिस तेदेपा की ओर से दिया गया है और इसके पीछे आंध्र को विशेष राज्य के दर्जे से वंचित किए जाने को महत्वपूर्ण कारण बताया गया है. अविश्वास प्रस्ताव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और इसके बहाने देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर चर्चा भी होती है. यह नोटिस क्षेत्रीय राजनीति की ओर से दिया गया है. बेहतर होता कि यह राष्ट्रीय सवालों को लेकर आता और कांग्रेस इसे लाती. बेशक सवाल राष्ट्रीय उठेंगे, पर इसकी प्रेरणा क्षेत्रीय राजनीति से आई है. आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने से ज्यादा बड़े सवाल हैं अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन में बढ़ती कटुता और मॉब लिंचिंग जैसी अराजकता. बहरहाल इसके पीछे की जो भी राजनीति हो, हमें अच्छी संसदीय बहस का इंतजार करना चाहिए.