नरेन्द्र मोदी की
सार्वजनिक सभाओं के लाइव टीवी प्रसारण के पीछे क्या कोई साजिश, योजना या रणनीति है? और है तो उसकी जवाबी योजना
और रणनीति क्या है? इसमें दो राय नहीं कि समाज को बाँटने वाले या ध्रुवीकरण करने
वाले नेताओं की सूची तैयार करने लगें तो नरेन्द्र मोदी का नाम सबसे ऊपर ऊपर की ओर होगा.
उनकी तुलना में भाजपा के ही अनेक नेता सेक्यूलर और सौम्य घोषित हो चुके हैं. मोदी के
बारे में लिखने वालों के सामने सबसे बड़ा संकट या आसानी होती है कि वे खड़े कहाँ हैं.
यानी उनके साथ हैं या खिलाफ? किसी एक तरफ रहने में आसानी है और बीच के रास्ते में संकट.
पर अब जब बीजेपी के लगभग नम्बर एक नेता के रूप में मोदी सामने आ गए हैं, उनके गुण-दोष
को देखने-परखने की जरूरत है. जनता का बड़ा तबका मोदी के बारे में कोई निश्चय नहीं कर
पाया है. पर राजनेता और आम आदमी की समझ में बुनियादी अंतर होता है. राजनेता जिसकी खाता
है, उसकी गाता है. आम आदमी को निरर्थक गाने और बेवजह खाने में यकीन नहीं होता.
नरेन्द्र मोदी भारत के ध्रुवीकारी नेताओं में सबसे आगे हैं, इसे मान लिया जाना चाहिए. उनका समर्थन और विरोध लगभग समान आक्रामक अंदाज़ में होता है. इस वजह से उन्हें ख़बरों में बने रहने के लिए अब कुछ नहीं करना पड़ता.
ख़बरों को उनकी तलाश रहती है. इसमें आक्रामक समर्थकों से ज़्यादा उनके आक्रामक विरोधियों की भूमिका होती है.
दूसरी बात यह कि उनसे जुड़ी हर बात घूम फिर कर सन 2002 पर जाती है. रॉयटर्स के रॉस कॉल्विन और श्रुति गोत्तीपति का पहला सवाल इसी से जुड़ा था. वे जानना चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी को क्या घटनाक्रम पर कोई पछतावा है.
पिल्ले का रूपक
मोदी का वही जवाब था जो अब तक देते रहे हैं. उनका कहना था, "फ्रस्टेशन तब आएगा जब मैने कोई ग़लती की होगी. मैंने कुछ ग़लत किया ही नहीं."