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Monday, July 26, 2010

विकीलीक्स यानी साहस की पत्रकारिता

इराक और अफगानिस्तान में नागरिकों की हत्या हो रही है, यह बात खबरों में कब से है। पर जब आप अपनी आँख से हत्याएं देखते हैं, तब दिल दहल जाता है। अमेरिकी सेना के ऑफीशियल वीडियो इस बात की जानकारी देते हैं, तब हमें सोचना पड़ता है। 


आज खबर है कि विकीलीक्स ने अमेरिकी सेना के करीब 92,000 गोपनीय दस्तावेज़ दुनिया के तीन अखबारों को सौंपे हैं, जिनसे अमेरिका के अफगान युद्ध के क्रूर मुख पर रोशनी पड़ती है। बताते हैं यह लीक 1970 के पेंटागन पेपर्स से भी ज्यादा बड़ा है।साथ वाला चित्र अफगानिस्तान में हेलीकॉप्टर से नागरिकों पर गोलीबारी का है। यूट्यूब पर यह वीडियो उपलब्ध है। लिंक नीचे दिया है। 


हमारे अधिकतर पाठक विकीलीक्स से परिचित नहीं हैं। हम पत्रकारिता के पेज3 मार्का मनोरंजन-मुखी चेहरे को ही देखते आए हैं। विकीलीक्स धीरे-धीरे एक वैश्विक शक्ति बनता जा रहा है। यह पत्रकारिता वह मिशनरी पत्रकारिता है, जो इस कर्म का मर्म है। जिस तरह से विकीपीडिया ने ज्ञान की राह खोली है उसी तरह विकीलीक्स ने इस ज़माने की पत्रकारिता का रास्ता खोला है। 


यह न तो कोई खुफिया संस्था है और न अमेरिका-विरोधी। यह सिर्फ अनाचार और स्वयंभू सरकारों के विरुद्ध है। इसने अमेरिका, चीन, सोमालिया, केन्या और आइसलैंड तक हर जगह असर डाला है। कुछ समय पहले तक कोई नहीं जानता था कि इसके पीछे कौन है। केवल ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार जूलियन  असांज सामने आते हैं। शायद वे इसके संस्थापकों में से एक हैं। बाईं ओर का चित्र असांज का है। उनसे बातचीत का वीडियो लिंक भी नीचे है। 


दुनिया की सबसे ताकतवर सरकारों के बारे मे निगेटिव सामग्री का प्रकाशन बेहद खतरनाक है। विकीलीक्स के पास न तो इतना पैसा है और न ताकत। अदालतें उसके खिलाफ कार्रवाई करतीं है। धीरे-धीरे इसे दुनिया के सबसे अच्छे वकीलों की सेवाएं मुफ्त मिलने लगीं हैं। जनता के दबाव के आगे संसदें झुकने लगीं हैं। शायद अभी आपकी निगाहें इस ओर नहीं गईं हैं।


बीबीसी की खबर
विकीलीक्स वैबसाइट
कोलेटरल मर्डरः वीडियो देखें, आप दहल जाएंगे 
जूलियन असेंज क्या कहते हैं
क्या है विकीलीक्स

Friday, July 23, 2010

पत्रकारिता का मृत्युलेख

रामनाथ गोयनका पत्रकारिता  पुरस्कार समारोह के दौरान पेड न्यूज़ को लेकर परिचर्चा भी हुई। ऐसी परिचर्चा पिछले साल के समारोह में भी हो सकती थी। हालांकि उस वक्त तक यह मामला उठ चुका था। यों पिछले साल जब हिन्दू में पी साईनाथ के लेख प्रकाशित हुए तब इस मामले पर बात शुरू हुई। वर्ना मान लिया गया था कि इस सवाल पर मीडिया मौन धारण करे रहेगा।


गुरुवार के समारोह में अभिषेक मनु सिंघवी ने ठीक सवाल उठाया कि मीडिया तमाम सवालों पर विचार करता है, इसपर क्यों नहीं करता। इस समारोह में मौज़ूद कुमारी शैलजा, सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुड्डा ने बताया कि उनके पास मीडिया के लोग आए थे। बात इतनी साफ है तो क्यों नहीं हम इस मामले पर आगे जाकर पता लगाएं कि कौन पैसा माँगने आया था। किसने किसको कितना पैसा दिया। वह पैसा कहाँ गया वगैरह का पता तो लगे।


पेज3 की पेड न्यूज़ और चुनाव की पेड न्यूज़ में फर्क नहीं करना चाहिए। यह सब अपनी साख को तबाह करना है। इस समारोह मे हालांकि ज्यादातर वे लोग शामिल थे, जो इन बातों से ज्यादा नहीं जुड़े रहे हैं, पर उनमे से ज्यादातर के मासूम सवाल जनता के सवाल हैं। मसलन रविशंकर प्रसाद का यह सवाल कि क्या पत्रकारिता सीधे-सीधे ट्रेड और बिजनेस है? क्या ऐसा है? ऐसा है कहने के बाद पूरी व्यवस्था धड़ाम से ज़मीन पर आकर गिरती है। अरुणा रॉय कहती हैं कि डैमोक्रेसी में मीडिया का रोल है। मीडिया को प्रॉफिट-लॉस का कारोबार नहीं बनना चाहिए।


अच्छी बात है कि हम मीडिया की भूमिका पर बात कर रहे हैं, पर हम क्यों उम्मीद करें कि मीडिया प्रॉफिट-लॉस के मोह-जाल से ऊपर उठकर काम करेगा। उसे निकालने के पीछे की मनोभावनाएं वही रहेंगी तो इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम मीडिया का मालिक कौन हो इस सवाल को उठाएं।  यह सब जनता के दरवार में तय होना है। जनता बहुत सी बातों से अपरिचित है। वह हमपर ही भरोसा करती थी, पर हम उसे बताना नहीं चाहते। इसलिए इस मीडिया के भीतर से साखदार मीडिया के उभरने की ज़रूरत है। यह बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि दूध का जला हर दूध को जलाने वाला समझेगा।


मुझे लगता है पत्रकारिता को जिस तरह से राजनेताओं और सत्ता से जोड़ा गया है, उसे देखते हुए जल्द किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिरकार इंडियन एक्सप्रेस का यह समारोह भी पीआर एक्सरसाइड़ थी जिसमें अखबार की रपट के अनुसार शामिल होने वाले गणमान्य लोगों में गिनाने लायक नाम राजनेताओं के ही थे। एकाध पत्रकार भी था, तो वही पेज3 मार्का। पत्रकारिता का व्यवस्था के साथ 36 का रिश्ता होना चाहिए, पर यहाँ वैसा है नहीं। इसलिए सारी बातें ढोंग जैसी लगती हैं।


इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर इस गोष्ठी की बड़ी सी खबर है जिसका शीर्षक है 'पेड न्यूज़ कुड मार्क डैथ ऑफ जर्नलिज़्म'। यह खुशखबरी है या दुःस्वप्न?


कुछ महत्वपूर्ण लिंक


प्रेस काउंसिल रपट
काउंटरपंच में पी साइनाथ का लेख
हिन्दू में पी साइनाथ का लेख
इंडिया टुगैदर
सेमिनार
द हूट
न्यूज़ फॉर सेलः द हूट
सैलिंग कवरेजः द हूट
प्लीज़ डू नॉट सैल-विनोद मेहता 

Monday, July 12, 2010

संकट और समाधान के दोराहे पर


यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी?  काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।

खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।   
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था,  इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर ना कहना चाहिए। रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर इलस्ट्रेटेड वीकली में कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशन ही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है। 

Tuesday, July 6, 2010

चमत्कार को मीडिया का नमस्कार


टेलीशॉपिंग या होम शॉपिंग के किसी चैनल पर आपने अक्सर विज्ञापन देखे होंगे, जिनमें किसी की बुरी नज़र से बचाने या दुर्भाग्य से मुक्ति पाने के लिए किसी सिद्ध कवच को खरीदने का आग्रह किया जाता है। किसी सुखी परिवार को देखकर किसी स्त्री या पुरुष की आँखों से बुरी नज़र की किरणें निकलतीं हैं। वे उस परिवार का जीवन तबाह कर देती हैं। ऐसे ही किसी का चलता कारोबार बिगड़ जाता है। हमारे जीवन में ऐसे कवच, गंडे-ताबीज़ों की कमी नहीं है। बड़े-बड़े सेलेब्रिटी भी इनका सहारा लेते हैं। खराब वक्त प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ज्यादातर सेलेब्रिटीज़ के सेलेब्रिटी एस्ट्रॉलॉजर होते हैं। ज्यादातर चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं में भाग्य बताने वाले कॉलम होते हैं। यह व्यक्तिगत आस्था का मामला है। कोई इनपर यकीन करता है, तो उसके यकीन करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पर गंडे-ताबीज़, कवच और जादुई चिकित्सा के प्रचार पर हमारे देश में कानूनी रोक है। फिर भी ऐसे विज्ञापन आराम से छपते हैं।
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टीज़मेंट्स) एक्ट 1954 के अंतर्गत कई तरह के औषधीय दावों और रोगों के इलाज की चमत्कारिक दवाओं के विज्ञापन गैर-कानूनी हैं। खासकर जिन दावों को साबित न किया जा सके। इस आरोप में छह महीने से साल भर तक की सज़ा और ज़ुर्माने की व्यवस्था है। हिन्दी या अंग्रेजी का शायद ही कोई अखबार हो, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसे दावे के विज्ञापन न छपते हों। कुछ विज्ञापनों पर ध्यान दीजिएः-
खुला चैलेंजः शक्ति चमत्कार देखें अपनी आँखों से
गुरूजी कमाल खान बंगाली

लव मैरिज, वशीकरण, सौतन, दुश्मन से छुटकारा आदि सभी का A to Z समाधान
बाबा खान बंगाली

जापानी ऑटोमेटिक इन्द्रीयवर्धक यंत्र

डायबिटीज़ः हैरतंगेज़ नई खोज

लम्बाई बढ़ाएं

नज़र रक्षा कवच

दुर्गा रक्षा कवच

इनमें मालिश करने वाले, एस्कॉर्ट्स और मैत्री के विज्ञापन भी शामिल हैं, जो अश्लीलता, अभद्रता और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा से ताल्लुक रखते हैं। कुछ साल पहले ऋषिकेश के नीरज क्लीनिक के मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन तक ने उसमें हस्तक्षेप किया। देश की एडवर्टाइज़िंग स्टैंडर्ड काउंसिल ने भी दबाव डाला और वह विज्ञापन बंद हुआ। पर वह मनोवृत्ति कायम है। इसकी वजह विज्ञापन देने वालों के अलावा विज्ञापन लेने वाले भी हैं। केरल के अखबारों में एक विज्ञापन छपता था जिसमें ऊँचाई बढ़ाने का वादा था। नादिया नाम की एक लड़की उसके चक्कर में फँस गई। उसकी ऊँचाई बढ़ना तो बाद की बात है, चलना-फिरना मुश्किल हो गया। अंततः अपोलो अस्पताल में उसे इलाज कराना पड़ा। हालांकि इस कानून के तहत सरकारी अधिकारी अपने तईं हस्तक्षेप करके सम्बद्ध व्यक्ति या संस्था के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, पर व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं होता।
एडवर्टाइज़िग स्टैंडर्ड काउंसिल के दिशा-निर्देशों के अनुसार विज्ञापन को स्वीकार करते वक्त उसके नैतिक पक्ष की जाँच होनी चाहिए। विज्ञापन का अर्थ यह नहीं होता कि आप पैसा देकर कुछ भी छपवा लें। काउंसिल के सेल्फ रेग्युलेशन कोड के मुताबिक विज्ञापन देने वाले के साथ-साथ विज्ञापन बनाने वालों, उसे प्रकाशित करने वालों और इसमें सहयोग करने वालों की जिम्मेदारी भी इसमें है। यह देखना ज़रूरी है कि विज्ञापन में कही गई बातें भ्रम तो नहीं फैला रहीं। इस गैर-जिम्मेदारी से हिन्दी का पाठक ज्यादा प्रभावित होता है। खासकर दुर्गा रक्षा-कवच या शिव रक्षा-कवच की गुणवत्ता को सर्टिफाई करने वाली कोई संस्था देश में नहीं है। ऐसे कवच विज्ञापन के बगैर भी बिकेंगे, पर विज्ञापन से उसे वैधानिकता मिलती है। सरकार के पास कानून का सहारा है, जो आसानी से उसे रोक सकती है। वहीं, जिन चैनलों पर ऐसे विज्ञापन नज़र आते हैं, उनकी भी जिम्मेदारी बनती है। दिक्कत यह है कि कानूनी व्यवस्था होने के बावजूद ऐसे विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं।
तकरीबन हर शहर में दुनिया के सारे रोगों का इलाज करने वाली दवाएं मिलतीं हैं। इसकी एक वजह हमारा अवैज्ञानिक मन, दूसरे चमत्कार में यकीन और तीसरे महंगी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था तक पहुँच न हो पाने की वजह से वैकल्पिक व्वस्था को खोजना है। विकल्प है देशी और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ। बेशक इन पद्धतियों की चिकित्सा को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। इनके पीछे हजारों साल का अनुभव है। पर इनकी आड़ में कमाई करने वाले भी हैं। अमेरिका में औषधि नियम बहुत सख्त हैं। शायद हमारे यहाँ उतना सख्त करना व्यावहारिक नहीं, पर कानून इतना लचर भी नहीं होना चाहिए कि उसका मज़ाक बन जाए। इधर अनेक चमत्कारिक दवाएं फूड सप्लीमेंट के रूप में बेची जा रहीं हैं। ताकत, स्फूर्ति और मर्दानगी की तमाम दवाएं इसी श्रेणी में आतीं हैं। हिन्दी के अखबारों में इनके विज्ञापन ज्यादा होते हैं। इसे वह वर्ग पढ़ता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बाहर हो चुका है और जिसके पास विशेषज्ञों से कंसल्ट करने की न तो आर्थिक शक्ति है और न आत्मविश्वास। वह ठगे जाने को अभिशप्त है। उसके पक्ष में खड़े होने की ज़िम्मेदारी मीडिया की है, जो जाने-अनजाने अपनी ज़िम्मेदारी को भूल गया है।
पहले पत्रकारिता का जन्म हुआ था। उसके करीब सौ साल बाद विज्ञापन आए थे। पर सारी नकारात्मक भूमिका विज्ञापन की नहीं है। कंटेंट मे भी यही सब है। ऐसे में उसे कानून से नहीं रोका जा सकेगा। दूर-दराज़ की बात नहीं है दिल्ली के अखबारों तक में जाको राखे साइयाँ टाइप खबरें छपतीं हैं। 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान की खबरें छपते वक्त हम इसे देख चुके हैं। ऐसा ही दिल्ली में काले बंदर की खबरों को लेकर हुआ था। कोई रिपोर्टर खोज पर निकले तो उसे हिन्दी प्रदेशों के शहरों और कस्बों में अनेक कथाएं इस किस्म की चर्चित और प्रचारित मिलेंगी। चमत्कारी बकरी, तीन सिर वाला बच्चा, आसमान से बरसे फूल ऐसी खबरें गाहे-बगाहे अखबारों में जगह पाती हैं। लोक-रुचि के नाम पर वैज्ञानिक विषयों की खबरें भी चमत्कारिक ढंग से लिखी जाती हैं। विज्ञान को किसी अखबार ने गम्भीरता से नहीं लिया। विज्ञान के नाम पर टेक्नॉलजी खूब छपती है, क्योंकि उसका कमर्शियल पहलू है। विज्ञान बड़े स्तर पर उपेक्षित है।  
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें अंधविश्वास को बढ़ावा देने की अनुमति भी देता है। ज्योतिषीय परामर्श तक बात ठीक है, पर आए दिन चमत्कारों की कहानियों का क्या अर्थ है? वैज्ञानिक खबरों के साथ भी यही होता है। उन्हें चमत्कार के रूप में लिखने की कोशिश की जाती है। आधुनिकता सिर्फ खाने-पीने, पहनने और बोलने की रह गई है, जो वस्तुतः नकल और प्रकारांतर से पिछड़ापन है। विवेक-विचार और विश्लेषण की आधुनिकता नहीं। इसे सुधारना तभी सम्भव है जब विज्ञान और चमत्कारों के बारे में मीडिया कोई कोड ऑफ कंडक्ट बनाए। बीटी बैंगन, जेनेटिक्स और विज्ञान की नैतिकता पर विमर्श करने से अधकचरा ज्ञान रोकता है। 

Monday, June 28, 2010

जोरदार और जानदार जर्नलिज्म !!


मार्क ट्वेन ने अपने शुरुआती वर्षों में अखबारों में भी काम किया। उनकी पुस्तक रफिंग इटसे एक छोटा सा अंश आप पढ़ें :

13 साल की उम्र से ही मुझे कई तरह के रोज़ी-रोज़गारों में हाथ लगाना पड़ा। पर मेरे काम से कोई खुश नज़र नहीं आया। एक दिन के लिए परचूनी की दुकान पर क्लर्क का काम मिला, पर उस दौरान उसकी दुकान की इतनी चीनी मैने फाँक ली कि मालिक ने मुझे चलता किया। एक हफ्ता कानून की पढाई की, पर वह काम इतना लिखाऊ(प्रोज़ी) और थकाऊ था कि अपुन से नहीं बना। फिर लोहार का काम सीखा। वहाँ धौंकनी नहीं सम्हली और उस्ताद ने बाहर कर दिया। कुछ समय के लिए किताब की दुकान में मुंशी बना। वहाँ कस्टमर इतना परेशान करते थे कि आराम से कोई किताब पढ़ ही नहीं पाता था। एक ड्रग स्टोर में काम किया, वहाँ मेरे नुस्खे अभागे साबित हुए।
अपने अच्छे दिनों में मैं वर्जीनिया डेली टेरीटोरियल एंटरप्राइज़ को लैटर्स लिखता था। जब वे छपते तब मुझे बड़ा विस्मय होता। सम्पादकों के बारे में मेरी अच्छी राय भी बिगड़ने लगी। छापने के लिए उनके पास और कुछ नहीं था क्या। तभी मुझे एक रोज़ चिट्ठी मिली कि वर्जीनिया चले आइए और एंटरप्राइज़ के सिटी एडीटर बन जाइए। सो अपुन वर्जीनिया पहुँच गए, नया काम करने।
अखबार के प्रधान सम्पादक और प्रोपराइटर एम गुडमैन से मैने कहा, मुझे क्या काम करना है और कैसे करना है कुछ बताएं। उन्होंने कहा, शहर में जाओ। तमाम तरह के लोगों से मिलो। उनसे हर तरह के सवाल करो। जो जानकारी मिले उसे नोट करते रहो। दफ्तर आकर उसे लिख दो। उन्होंने फिर कहाः
यह कभी मत लिखना कि ज्ञात हुआ है या जानकारी मिली है या कहा जाता है। सीधे घटनास्थल तक जाओ, पक्की जानकारी लाओ और लिखो ऐसा-ऐसा है। वर्ना लोग तुम्हारी खबर पर विश्वास नहीं करेंगे। पक्की बात से ही किसी अखबार को इज्जत मिलती है।

मैं अपने पहले दिन को कभी नहीं भूलूँगा। मैने हरेक से सवाल पूछे। पूछ-पूछकर बोर कर दिया। मुझे अपने सम्पादक के वचन याद थे, बात पक्की होनी चाहिए। पर यहाँ तो किसी को कुछ पता नहीं था। पाँच घंटे खपाने के बाद भी मेरी नोटबुक खाली थी। मैने मिस्टर गुडमैन को सारी बात बताई। वह बोलेः
तुमसे पहले डैन यह काम करता था। उसका कमाल था कि तब भी जब आगज़नी नहीं होती, या मुकदमों की सुनवाई नहीं होती, कब भी वह सिर्फ भूसा गाड़ियों की खबरें निकाल लाता था। क्या ट्रकी से कोई भूसा गाड़ी तक नहीं आ रही है? आ रही है तो तुम भूसा बाज़ार की एक्टिविटीज़ पर खबर बना सकते हो। यह टॉपिक मज़ेदार नहीं है, पर बिजनेस न्यूज़ तो है।
मैंने शहर का मुआयना फिर किया। किसी ने किसी की हत्या कर दी थी। मैने हत्यारे का शुक्रिया अदा किया। मज़ा आ गया। फिर देखा गाँव की ओर से एक भूसागाड़ी घिसटती चली आ रही है। मैने उसे 16 से गुणा किया। फिर 16 दिशाओं से उसे शहर में प्रवेश दिलाया। इससे 16 अलग-अलग आइटम बनाए। वर्जीनिया में भूसे के कारोबार का कुछ ऐसा नजारा पेश किया जैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ।
इसके बाद मैने कुछ वैगन देखे जो बागी इंडियन इलाकों की तरफ से आ रहे थे। उन्हें कुछ हादसों का सामना करना पड़ा था। मुझे हालात ने जितनी अनुमति दी उतनी बढ़िया रपट बना दी। पर मेरे मुकाबले दूसरे अखबारों के रिपोर्टर भी तो थे। मैं चाहता था कि मेरी रपटों में उनकी रपटों से अलग कुछ और बातें हों, जो अलग नज़र आएं। एक वैगन कैलीफोर्निया की ओर जाता नज़र आया। उसके मालिक से पता करके पहले मैंने यह इतमीनान कर लिया कि अगले रोज यह इस शहर में नहीं होगा। इसके बाद उसमें बैठे यात्रियों के नाम लिखे। अपनी रपट में मैंने उस वैगन को इंडियनों की ऐसी हिंसा का शिकार बनाया जैसी इतिहास में कभी हुई न थी। लोगों के नाम की लिस्ट मेरे पास थी। मेरी खबर में वे हताहत थे।
मेरे दो कॉलम पूरे हो गए। उन्हें जब मैंने पढ़ा तो मुझे लगा कि वह धंधा मुझे मिल गया, जिसकी तलाश थी। खबरें और जोशीली खबरें ही किसी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। और मुझमें ऐसी खबरें लिखने की क्षमता है। इस इलाके के सारे लोगों को अपने पेन से मार सकता हूँ, अगर्चे ज़रूरत पड़ी और अखबार ने माँग की।…..’’

मार्क ट्वेन ने यह किताब 1870-71 में लिखी थी। इसमें पत्रकारिता से जुड़े कुछ प्रसंग हैं, जिनमें आज के संदर्भ खोजे जा सकते हैं। उनका स्मित व्यंग्य 140 साल बाद भी प्रासंगिक है। सेंसेशनल, एग्रेसिव, वायब्रेंट, एक्सक्ल्यूसिव और एंटरटेनिंग शब्द आज हवा में हैं। मीडिया में कम्पटीशन है। नया करने की चुनौती है। अखबारों और चैनलों में कुछ डिग्री का फर्क है। इसकी एक वजह है चैनलों का छोटा इतिहास और अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व। हैंगोवर से मुक्त। जो ओपन है और इंडस्ट्री की ज़रूरत को पहचानता है। अखबार उसी रास्ते पर जाना चाहते हैं। कुछ नाटकीय, हैरतंगेज़ और अविश्वसनीय। मीडिया विश्वसनीय रहे या न रहे अपनी बला से।
विश्वसनीयता की फिक्र किसे है? हाल में आर वैद्यनाथन का एक लेख पढ़ने को मिला। वे किसी ऐसी जगह गए, जहां 500 के आसपास पोस्ट ग्रेजुएट छात्र मौज़ूद थे। उन्होंने छात्रों से पूछा, आप में से कितने लोगों को मीडिया पर यकीन है? कोई दसेक हाथ उठे। हो सकता है, इससे ज्यादा लोगों को यकीन हो। कम से कम हिन्दी पाठक को है। वह कम पढ़ा-लिखा है। उसे मीडिया का सहारा है। फिर भी लगता है, इस यकीन में कमी आ रही है। या हम पाठक को धोखा दे रहे हैं। सेंशेनल शब्द आज वैसा अग्राह्य नहीं है, जैसा पहले होता था। हिन्दी में इसका एक पर्याय तेज-तर्रार है। ईमानदारी और सार्वजनिक हित पत्रकारिता की साख बढ़ाने वाले तत्व हैं। तेज़-तर्रारी और सौम्यता उसकी एप्रोच या तौर-तरीका है। पत्रकार संदेशवाहक है। लड़ाई उसकी नहीं है। खबर को सरल, रोचक और सबकी पसंदीदा बनाना एक काम है। ऑब्जेक्टिव, फेयर और एक्यूरेट बनाना दूसरा। दोनों में कोई टकराव नहीं।  
खबरों में रोचकता बढ़ी है, पड़ताल, होमवर्क और संतुलन में कमी आई है। सनसनी का तड़का है। पिछले कुछ दिनों की खबरें देखें। आईपीएल, सानिया-शोएब, भोपाल मामला, रुचिका मामला, हॉरर (या ऑनर) किलिंग्ज़, नितीश-नरेन्द्र मोदी ऐसे मामले हैं, जिन्हें न्याय कामना के बजाय सनसनी की वज़ह से कवर किया गया। बेशक मीडिया की सकारात्मक भूमिका थी, पर इसमें छिद्र हैं। न्याय करने से ज्यादा यह दिखाने की इच्छा है कि हम न्याय कर रहे हैं। हर खबर में सनसनी का न्यूज़-पैग खोजने की कोशिश हो रही है। पिछले पच्चीस साल से भोपाल से जुड़े एक्टिविस्ट अक्सर दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते रहे। किसी को ख्याल नहीं आया कि वहाँ अन्याय हो रहा है। अदालत का फैसला आने के बाद अचानक मीडिया ने तेजी पकड़ी। ऐसा ही नक्सली हिंसा के साथ है। मीडिया-प्रतिनिधि नक्सली इलाकों के भीतर जाकर सच्चाई को सामने लाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
बर्गर जेनरेशन तेजी से निकल कर आती है। मिनटों में फैसला करती हैं और आगे बढ़ जाती है। हाल में पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ीं हैं। इसका असर क्या होगा, हर पखवाड़े कीमतों में बदलाव किस तरह होगा और सरकार सब्सिडी को घटाकर क्या करने वाली है, इसके बारे में कुछ खास काम दिखाई नहीं पड़ा। बजाय इसके एक सुपर मॉडल की आत्महत्या ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है। हिन्दी के अखबारों मे डिटेल्स एकदम कम हो गए हैं। मौसम और मॉनसून तक के बारे में वैज्ञानिक सामग्री कम है। इस बार अल-नीनो की जगह ला-नीना का असर दिखाई पड़ेगा। क्या है यह ला-नीना?  इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? ऐसी खबरें नज़र नहीं आतीं।
दो साल पहले बिहार में कोसी की बाढ़ के साथ यही हुआ। अरसा गुज़र जाने के बाद कोसी नज़र आई। कैलीफोर्निया की आपदा फौरन नज़र आती है। अपनी आपदा दिखाई नहीं पड़ती। छोटी खबरें और छोटे पैकेज आसानी से पसंद किए जाते हैं, पर किसी न किसी जगह डिटेल्स भी चाहिए। अक्सर कवरेज एक-तरफा और अपूर्ण लगती है। ऐसा मार्केट की वजह से नहीं शॉर्ट कट्स की वजह से है। पत्रकार मेहनत करना नहीं चाहता। जल्दी स्टार बनना चाहता है। ऐसे में वे पत्रकार हार रहे हैं, जो समय लगाकर क्रेडिबल खबरें लिखना चाहते हैं।
खबर वजनदार तब होती है जब वह हमारे आसपास की हो, काफी लोगों की दिलचस्पी की हो और उसका इम्पैक्ट हो। यानी महत्वपूर्ण व्यक्ति से जुड़ी हो। अक्सर लोग सवाल उठाते हैं कि खबरों से गाँव कहाँ चला गया। एक जवाब है, जहाँ अखबार बिकता है वहाँ की खबरें ही तो होंगी। दिल्ली के अखबार के पास गाँव के लिए जगह कहाँ है। ऐसा है तो दिल्ली के स्लम्स की खबरें क्यों नहीं हैं? क्योंकि स्लम्स में रहने वाले पाठक नहीं हैं। मीडिया और पाठकों का तबका जो इस बिजनेस-सिस्टम से बाहर है, वह खबर के बाहर है।
सनसनी और खबरों की स्लांटिंग के पीछे सिर्फ मार्केट नहीं है। इसके पीछे एक कारण कम समय में कम मेहनत से ज्यादा इम्पैक्ट वाली खबर बनाने की इच्छा भी है। तथ्य संकलन में समय लगाने का वक्त नहीं है। खबर को जाँचने-बाँचने वाले भी नहीं हैं। उससे किसकी प्राइवेसी भंग हो रही है, किसके व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, यह देखने वाले भी नहीं। अपनी ताकत को लेकर एक प्रकार की एरोगैंस पत्रकार के भीतर है। वह न्यायपालिका तक पर प्रहार कर रहा है। यह शुभ लक्षण नहीं है। वह अपने को अब असाधारण मानता है क्योंकि वह बड़े लोगों के सम्पर्क में है। इसमें कोई दोष नहीं बशर्ते वह यह याद रखे कि वह मैसेंजर है, मैसेज नहीं।   

Tuesday, June 22, 2010

सब पर भारी सूचना की बमबारी


विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता चल रही है। साथ ही श्रीलंका में एशियाकप क्रिकेट प्रतियोगिता भी। देश में क्रिकेट की लोकप्रियता मुकाबले फुटबॉल के कहीं ज्यादा है। पर मीडिया की कवरेज देखें तो फुटबॉल की कवरेज क्रिकेट से ऊपर है। वह तब जब इसमें भारतीय फुटबॉल टीम खेल भी नहीं रही है। यों हिन्दी के एक मार्केट सैवी अखबार ने अपने संडे एडीशन के पहले सफे पर हैडिंग दी फुटबॉल पर भारी पड़ा क्रिकेट का रोमांच। उसी अखबार के खेल पन्नों पर फुटबॉल का रोमांच हावी था। शाब्दिक बाज़ीगरी अपनी जगह है, पर सारे रोमांच पाठक तय नहीं करते। फरबरी-मार्च में विश्वकप हॉकी प्रतियोगिता दिल्ली में हुई थी। उसकी कवरेज़ आईपीएल के मुकाबले फीकी थी। अपने अखबारों में आपको हर रोज़ एक न एक खबर फॉर्मूला कार रेस की नज़र आती है। कितना लोकप्रिय है यह खेल हमारे यहाँ? यही हाल गॉल्फ का है। टाइगर वुड हाल तक खबरों पर हावी थे। हिन्दी के कितने पाठकों की दिलचस्पी टाइगर वुड के खेल में है? कितने लोग उसके व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी रखते थे? मीडिया ने तय किया कि आपको क्या पसंद आना चाहिए।

बाजार का सिद्धांत है, जो ग्राहक कहे वह सही। पर मार्केटिंग टीमें यह तय करतीं हैं कि ग्राहक को क्या पसंद करवाना है। फुटबॉल की वैश्विक व्यवस्था क्रिकेट की वैश्विक व्यवस्था से ज्यादा ताकतवर है। यह क्या आसानी से समझ में नहीं आता? मीडिया का कार्यक्षेत्र उतना सीमित नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। पाठक को परोसी जाने वाली खबरें और विचार इसका छोटा सा पहलू है। सरकारों, कम्पनियों, संस्थाओं और कारोबारियों के भीतर होने वाला संवाद ज्यादा बड़ा पहलू है। यह हमारे जीवन को परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। हर रोज़ हज़ारों-लाखों पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन आने वाले वक्त के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की रूपरेखा तय करते हैं। वे मीडिया का एजेंडा तय करते हैं। पाठक, दर्शक या श्रोता उसका ग्राहक है सूत्रधार नहीं।

vहमारे पाठक पश्चिमी देशों के पाठकों से फर्क हैं। हम लोग अधिकतर सद्यःसाक्षर हैं, जागृत विश्व से दूर हैं और अपने हालात को बदलने के फेर में फँसे हैं।

vहम पर चारों ओर से सूचना की जबर्दस्त बमबारी होने लगी है। इस सूचना का हमसे क्या रिश्ता है हम जानते ही नहीं। इसमें काफी सूचना हमारे संदर्भों से कटी है, पर हम इसमें कुछ कर नहीं सकते।

vमार्शल मैकलुहान के शब्दों में मीडिया इज़ मैसेज(जो बाद में मसाज हो गया)। यानी सूचना से ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया। फेसबुक में मेरे अनेक मित्रों की राय है कि यहाँ गम्भीर संवाद संभव नहीं। फेसबुक दोस्त बनाने का टूल है। इसमें मस्ती ज्यादा है। संज़ीदगी डालने की कोशिश करेंगे तो उसे मंज़ूरी नहीं मिलेगी।  

vव्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का बेहतर माध्यम ब्लॉग है, पर ब्लॉग में भी चटपटेपन को लोकप्रियता मिलती है। या उन्हें जो हमारे रोज़ के जीवन में उपयोगी हैं।

vएक बदलते समाज को देश-काल की बुनियादी बातों का पता भी होना चाहिए। खबरों के संदर्भों की जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बताने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया आपको नहीं बताता तो आप उसका क्या कर लेंगे?

vजो हो रहा है वह सब अनाचार ही नहीं है। खेल और फुटबॉल में कोई करिश्मा ज़रूर है, जो इतने लोग उसके दीवाने हैं। उसे समझने और फिर उसे वृहत् स्तर पर मानव कल्याण से जोड़ने वाली समझ हमारे पास होनी चाहिए।

किर्गीज़िस्तान में हिंसा क्यों हो रही है? वहाँ भारतीय क्या करने गए थे? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उस पोस्टर पर क्या आपत्ति थी, जिसमें वे नरेन्द्र मोदी का हाथ पकड़ कर खड़े हैं? भाजपा और जद(यू) एक-दूसरे को पसंद नहीं करते तो मिलकर सरकार क्यों चलाते हैं? भोपाल मामला क्या है? जस्टिस अहमदी ने कानून की सीमा के बारे में जो बात कही है, वह क्या हैमसलन प्रातिनिधिक दायित्व (विकेरियस लायबिलिटी) क्या है? उसकी बारीकियाँ क्या हैं? इस तरह के हादसों से जुड़े कानून बनाने के बारे में क्या हुआ? जाति आधारित जनगणना की माँग क्यों हो रही है? उसके पक्ष में क्या तर्क हैं और उसे न कराने के पीछे क्या कारण हैं?

ऐसे अनेक सवाल एक सामान्य पाठक के मन में उठते होंगे। पर हिन्दी का सामान्य पाठक कौन है? वह विश्वविद्यालय का छात्र है, सरकारी कर्मचारी है, रिटायर कर्मचारी है, छोटा और मझोला व्यापारी है, घरेलू महिला है। इनमें किसान हैं, कुछ मज़दूर भी हैं। प्राइमरी कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक के छात्र इनमें शामिल हैं। काफी बड़ा तबका ऐसा है जो सारी बारीकियों को नहीं समझता। जानकारी उच्चस्तरीय स्पेस साइंस और कानूनी बारीकियों की हो तो दिक्कत और ज़्यादा है। उसे सही संदर्भ में जानकारी चाहिए।

जब सूचना का विस्फोट हो रहा हो, हर मिनट लाखों-करोड़ों शब्द आपकी मुट्ठी में मौज़ूद आईपैड, आईफोन, ब्लैकबैरी या मामूली मोबाइल फोन के रास्ते इधर से उधर हो रहे हों, तो उम्मीद करनी चाहिए कि देखते ही देखते समूचा समाज जानकार हो जाएगा। सब कुछ साफ हो जाएगा। एक सूचना आधारित विश्व होगा। अमर्त्य सेन के शब्दों में अकाल नहीं पड़ेंगे क्योंकि जागरूक जन समुदाय के दबाव में वितरण व्यवस्था दुरुस्त रहेगी। जानकारी पाने के अधिकार ने भी द्वार खोल दिए हैं। पर बुनियादी भ्रम दूर नहीं हो रहा, बल्कि सूचना के बॉम्बार्डमेंट के कारण बढ़ गया है। यह उस मिकैनिज्म के कारण है, जो सूचना-क्रांति को भी अपने पक्ष में मोड़ लेने की ताकत रखता है। यह वैचारिक भ्रम नहीं है। सूचना का भ्रम है।  

पिछली पीढ़ी बताती है कि शुरू में लोग रोज़ चाय पीने के आदी नहीं थे। चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए कम्पनियों ने कई तरह के काम किए। ऐसा डालडा के साथ भी हुआ। लोग नूडल्स खाने के आदी नहीं थे, पर मार्केटिंग ने आदी बनाया। पीत्ज़ा, बर्गर और कोक के साथ भी ऐसा ही हुआ। हुक्के की जगह सिगरेट ने ली। देसी की जगह अंग्रेजी शराब ने ली। इसमें दो तत्वों की भूमिका थी। एक संदेश की और दूसरे ग्राहक की। संदेश आधुनिक बनने का है। लोग अपने बच्चों के करियर के लिए अपना पैसा, समय और ऊर्जा खर्च करते हैं। इन बच्चों को टार्गेट बनाकर बाज़ार अपनी मार्केटिंग रणनीति तय करता है।

चेंज या बदलाव नई जेनरेशन जल्दी स्वीकार करती है। इसलिए तकरीबन हर प्रोडक्ट में मस्ती का भाव है। यह मस्ती युवा वर्ग का एक सहज गुण है। पर यही एक गुण नहीं है। युवा वर्ग में उत्कंठा या जिज्ञासा भी होती है। वह आदर्शों से प्रेरित होता है और रोमांचकारी काम करने को तैयार रहता है। नूडल्स और टूथपेस्ट बेचने के पीछे व्यावसायिक प्रवृत्ति है। पूँजी को बढ़ाने की इच्छा है। सही संदर्भ में जानकारी देना, सामाजिक बदलाव के लिए तैयार करना और देश-दुनिया की व्यापक समझ बनाना उसकी प्राथमिकता नहीं है। तब फिर किसकी प्राथमिकता है? इस रासते पर बढ़ने के लिए हमारे पास इंसेंटिव क्या हैं?  और हम किसी को ज़िम्मेदार-जागरूक बनाना ही क्यों चाहते हैं?

सामाजिक जीवन में निजी प्रॉफिट-लॉस एक तरफ हैं और सार्वजनिक प्रॉफिट-लॉस दूसरी तरफ। सार्वजनिक हित भी किसीकी जिम्मेदारी है, खासकर मीडिया के संदर्भ में। कौन है जिसे सार्वजनिक हित के बारे में सोचना चाहिए? या तो पाठक को या सरकार को। आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल को आप न मानें तब भी चलना उसके ही साथ है। कोई विकल्प सामने नहीं है। इसलिए जो है उसके अंतर्विरोध ही बेहतर परिस्थिति का निर्माण करेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति चेतना उस सार्वजनिक संकट से उपजी है, जो सबके सामने खड़ा है। बेहतर शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरत आर्थिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं को है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए शिक्षित और जागरूक जन-समूह चाहिए। यह शिक्षित जन-समूह बेहतर मीडिया के सहारे शक्ल लेता है और फिर बेहतर मीडिया को शक्ल देता है। विकसित और शिक्षित समाजों में ऐसा ही हुआ है।

हमारे मीडिया में जो भ्रम है वह सारी दुनिया के मीडिया में नहीं है। पश्चिमी देशों के टेबलॉयड अखबारों और संजीदा अखबारों में जो अंतर है वह हमारे यहाँ नहीं है। हमारे ब्रॉडशीट अखबार टेबलॉयड का काम भी कर रहे हैं। टीवी पर बीबीसी की खबरें वैसी ही हैं, जैसी होती थीं। बीबीसी से तुलना न करें, फॉक्सन्यूज़ भी भारतीय चैनलों के मुकाबले सोबर है। इसकी वजह दर्शक की उदासीनता भी है। शायद ही कोई दर्शक अपनी नाराज़गी मीडिया हाउस तक लिख कर भेजता है। वह अपनी जानकारी को लेकर उदासीन है। या प्राप्त जानकारी से संतुष्ट। अभी इस मीडिया के अंतर्विरोध उभरे नहीं हैं। फिलहाल हमारे सामने दो विकल्प हैं या तो हम समानांतर मीडिया तैयार करें, जिसके लिए पूँजी चाहिए। या फिर सूचना के सही संदर्भों से जुड़े बाज़ार के विकसित होने का इंतज़ार करें। ये सूचना-संदर्भ लोकतांत्रिक-व्यवस्था का कच्चा माल है। यह इस बाज़ार-व्यवस्था का विरोधी भी नहीं है। लोकतंत्र अपने आप में एक बड़ी बाज़ार व्यवस्था है।    
    

    

Tuesday, June 15, 2010

मॉनसून क्यों और मानसून क्यों नहीं?



प्रमोद जोशी

मैने हाल में अपने ब्लॉग में कहीं मॉनसून शब्द का इस्तेमाल किया। इसपर मुझसे एक पत्रकार मित्र ने पूछा मॉनसून क्यों मानसून क्यों नहीं? मैने उन्हें बताया कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा लगता है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।
बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिन्दी का जहाँ भी प्रयोग है वहां की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिन्दी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे टारगेट पर एंडरसन लिखेंगे  या टार्गेट यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? ऐसा मैं हिन्दी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। मसलन लैंगिक, जातीय, सामुदायिक, धार्मिक या क्षेत्रीय संवेदनाओं-मर्यादाओं को किस तरह ध्यान में रखें। किन शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचें। किन शब्दों का प्रयोग करते वक्त क्या सावधानी बरतें वगैरह। इसी तरह कानून और पत्रकारीय नैतिकता के किन सवालों पर ध्यान दिया जाय यह भी शैली पुस्तिका के दायरे में आता है।
हिन्दी के अखबारों का विस्तार हो रहा है। शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिन्दी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिन्दी के सभी अखबार वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिन्दी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या अंग्रेज़ी के शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा। उर्दू में ज़ंग और जंग में फर्क होता है। रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। फिर लिंग की गड़बड़ियाँ हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच,प्याज,न्याय पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? बड़ा भ्रम है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।
शैली पुस्तिका बनाने का मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। एक धारणा है कि हमें अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। काफी लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। नए शब्दों को स्टाइलशीट में रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सम्पादकीय विभाग के लिए विकसित हो रहे सॉफ्टवेयरों में इस तरह की व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
स्टाइलशीट का सबसे नया पहलू डिज़ाइन का है। अखबार के डिज़ाइन के बाबत मूल धारणा और प्रयोग डिज़ाइन की स्टाइलबुक में हो तो बेहतर है। यहाँ मेरा आशय क्वार्क या पेजमेकर की स्टाइलशीट से नहीं है। मेरा आशय है कि ग्रैफिक प्रयोगों, खासकर टैक्स्ट और विज़ुअल के गुम्फ़न से है। इसे इनफोग्रैफ कहते हैं। इसका चलन हिन्दी में कम है। यह विधा जानकारी को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाती है। रंगों और फॉर्म के प्रयोग किसी अखबार या किसी विषय की पहचान बन सकते हैं। इसे सार्थक बनाने के लिए स्टाइलशीट की ज़रूरत होती है। बल्कि लेखन, सम्पादन और डिज़ाइन के समन्वय के लिए ग्रिड बनाकर काम किया जा सकता है।
इतने सारे अखबारों के बीच अलग पहचान बनाने के लिए खास विषयों और उनके प्रेजेंटेशन पर फोकस की ज़रूरत होती है। इसके लिए लिखने से लेकर पेश करने तक क्वालिटी चेक के कई पायदान होने चाहिए। इधर हुआ इसका उल्टा है। अखबारों से प्रूफ रीडर नाम का प्राणी लुप्त हो गया। अब यह मानकर चलते हैं कि कोई कॉपी रिपोर्टर लिख रहा है तो उसमें प्रयुक्त वर्तनी आदि देखने की जिम्मेदारी उसकी है। व्यवहार में ऐसा नहीं है। रिपोर्टर ही नहीं अब कॉपी डेस्क पर भी भाषा और विषय की अच्छी समझ वाले लोग कम हो रहे हैं। मीडिया हाउसों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर सकता है। 
समाचार फॉर मीडिया कॉम पर प्रकाशित

Monday, May 31, 2010

कृपया तेज़ी के इस दौर में सावधानी भी बरतें

30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस था। 184 साल के अनुभव के साथ हिन्दी पत्रकारिता एक ढलान पर आ गई है। इस ढलान ने उसकी गति तेज़ कर दी है। चढ़ाई चढ़ते वक्त गति धीमी होती है और दम ज़्यादा लगता है। ढलान में गति ज़्यादा होती है। ताकत कम लगती है, लम्बी दूरी कम समय में पार होती है। रास्ते चढ़ाई वाले होते हैं, सपाट भी और ढालदार भी। चलने वाले को उन्हें पार करना होता है। तीनों रास्तों में बरती जाने वाली सावधानियाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। ढलान में खतरा बाहन के भटकने या रास्ते से उछलकर टकराने का होता है। हिन्दी मीडिया को कुछ सावधानियों की ज़रूरत है।

हिन्दी मीडिया की प्रगति प्रशंसनीय है। इलाके में साक्षरता बढ़ रही है और गतिशीलता भी। यानी लोग एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जा रहे हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसे समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं या नहीं जिनसे पता लगे कि हिन्दी के अखबारों ने जीवन पर क्या प्रभाव डाला, पर ऐसे अध्ययनों की ज़रूरत है। मोटे तौर पर कमज़ोर तबकों को ताकत देने में कोई न कोई भूमिका अखबार की भी है। शायद यह बदलाव की एक प्रक्रिया है, जिसमें अखबार भी भागीदार हैं। अखबार, टीवी, रेडियो, मोबाइल फोन और सिनेमा हमारा सहज मासमीडिया है। इंटरनेट अभी नहीं है, शायद आने वाले समय में हो।

हिन्दी के अखबारों के सामने अपनी सामग्री को परिभाषित करने, टेक्नॉलजी और अपने संगठन को सुसंगत करने और पाठक की माँग को समझने की ज़रूरत है। करीब-करीब ऐसी ही ज़रूरत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की है। दोनों में एक फर्क है। हिन्दी के ज्यादातर अखबार स्थानीय या किसी एक इलाके के थे। वे दूसरे इलाकों में गए। इसके विपरीत टेलीविज़न ने राष्ट्रीय कवरेज से शुरूआत की। वह अब लोकल बाज़ार खोज रहा है। दोनो स्थितियों में महत्वपूर्ण है हमारा दूर-दराज़ का इलाका। पिछले साल सितम्बर में आंध्र के मुख्यमंत्री वाईएसआर के हेलिकॉप्टर की दुर्घटना की कवरेज करने सबसे आगे कोई तेलुगु चैनल आया। हाल में दंतेवाड़ा में सीआरपी के दस्तों पर नक्सली हमले के दौरान साधना चैनल और किसी लोकल चैनल ने कमान सम्हाली। मंगलूर में विमान दुर्घटना की कवरेज के लिए कोई कन्नड़ चैनल मौज़ूद था। राष्ट्रीय चैनलों ने इन लोकल चैनलों की फुटेज का इस्तेमाल किया। इस फुटेज को लोकल चैनलों ने वॉटरमार्क करके पब्लिसिटी हासिल की।

हमारे पास सूचना संकलन का आधार ढाँचा बन रहा है। टेकनॉलजी सस्ती हो रही है। पूँजी भी आ रही है। नए पत्रकार, कैमरामैन, टेक्नीशियन बन रहे हैं। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। तेज विस्तार के कारण हम कंटेंट के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाए हैं। सोचा भी है तो उसे लागू करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा गया है।
हाल में एक खबर थी किसी लड़की ने दहेज लोभी लड़के वालों का स्टिंग ऑपरेशन करके शादी तय होने के पहले ही उन्हें पकड़वा दिया। स्टिंग ऑपरेशन ने टीवी की ताकत बढ़ा दी। पर इसने कवरेज के विद्रूपण की राह भी खोल दी। दिल्ली में उमा खुराना मामले में यह नज़र आया। अचानक स्टिंग जर्नलिज्म की ट्रेनिंग देने वाले संस्थान खुलने लगे। इसका इस्तेमाल ब्लैक मेलिंग के लिए भी होने लगा। यह जल्दबाज़ी की वजह से हुआ। मोबाइल फोन के कैमरा ने क्रांति कर दी। पर अचानक एमएमएस की भरमार हो गई।

मीडिया दुधारी तलवार है। इसे ज्ञान और सूचना का वाहक और अभिव्यक्ति का जिम्मेदार माध्यम बनाए रखने के लिए अपने भीतर के मिकेनिज्म को भी समझना चाहिए। यह काम दो स्तर पर होगा। एक ओर पत्रकार संगठन आपस में मिलकर इसपर विचार करें और दूसरी ओर प्रत्येक संगठन भीतरी जाँच चौकियां बनाए। संविधान स्वीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें असीमित अधिकार नहीं देती। ज़रूरत इस बात की है कि हम सामान्य पत्रकार को उन मर्यादाओं की जानकारी दें, जिनका पालन उसे करना है। उसे पता होना चाहिए कि वह सार्वजनिक हित मे काम करता है, व्यक्तिगत हित में नहीं। पत्रकारों को सामान्य नागरिक की प्राइवेसी के बारे में भी जागरूक होना चाहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने वालों को यह बात खासकर समझनी होगी।

हिन्दी अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों में से ज्यादातर अब पत्रकारिता संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आ रहे हैं। पत्रकारिता संस्थानों में सभी का स्तर समान नहीं है। काफी बड़ी संख्या में ये संस्थान निम्नस्तरीय और सिर्फ कमाई के अड्डे हैं। जो भी हैं उन्हें अखबारों की ज़रूरतों के अनुसार व्यावहारिक प्रशिक्षण देना चाहिए। उनका ज्यादातर प्रशिक्षण सैद्धांतिक है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि नए पत्रकार भाषा को लेकर संज़ीदा नहीं हैं। उन्हें इमला बोला जाए तो एक पैरा मे दस-दस गलतियाँ निकलतीं हैं। वे लोग अखबार में जाकर इन्हीं गलतियों को दोहराते हैं। एक ओर शाम को खबरों का दबाव ऊपर से ज्यादातर खबरों में भ्रष्ट भाषा। तीसरे ठीक से चेक करने की व्यवस्था की अनुपस्थिति। परिणाम आप किसी भी हिन्दी अखबार में छप रही गम्भीर गलतियों के रूप मे देख सकते हैं।

एक और जगह है जहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है। वह है खबरों का चयन। ज्यादातर अखबार अब अपनी खबरों का सिलेक्शन या तो नेट से करते हैं या चैनलों से। चूंकि यहाँ रेडीमेड माल मिलता है इसलिए यह आसान लगता है। पर यह गलत है। एक तो यह नैतिक रूप से गलत है। किसी नेट साइट की पूरी खबर को उड़ाना चोरी है। दूसरे वह आपकी खबर नहीं है, इसलिए उसका वेरिफकेशन नहीं होता। पिछले दिनों एक हिन्दी अखबार ने दूसरों को पकड़ने के लिए अपने यहाँ फर्जी खबरें लगा दीं। नकलचियों ने उन्हें भी उठा लिया और अपनी थू-थू कराई। अखबार के सीनियर लोग खुद अपनी खबरें चुनें तो उनके प्रेजेंटेशन मे अपनापन हो। नकल करने पर सबका प्रेजेंटेशन एक सा होता है। वैसे भी बड़े-बड़े अखबारों को शोभा नहीं देता कि वे चोरी की खबरें छापें। आपके पास पैसा है। अपने स्रोत तैयार करें।

चैनलों से खबर उड़ाने या प्रेजेंटेशन का तरीका चुराने का असर अखबारों के लगातार सनसनीखेज़ होने के रूप में दिखाई पड़ रहा है। चैनल मामूली सी खबर को भी जबतक अच्छी तरह मसालों से टॉपअप नहीं करते उन्हें मज़ा नहीं आता। वे आपसी प्रतियोगिता में ऐसे घिरे हैं कि सनसनी छोड़ सादगी से खबरें दिखाने की सलाह देना वहाँ सबसे बड़ा पाप है। उसी सनसनी को अखबार पकड़ना चाहते हैं। यह शॉर्टकट उन्हें कहीं नहीं ले जाएगा। उनके पास इतनी अच्छी खबरें हैं कि वे प्रभावशाली अखबार निकाल सकते हैं, पर अच्छी भली जानकारी का मलीदा बना देते हैं।

अखबार शायद रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात हम सबको समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाएं, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया है। हिन्दी इलाके के सामाजिक–सांस्कृतिक जीवन में इतनी रंगीन खबरें हैं कि उन्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। जो बिकेगा वही देंगे का तर्क कमज़ोर लोगों का है। बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। इसलिए हम चटनी का रास्ता पकड़ते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है। उसे नकल के नहीं अकल के रास्ते पर चलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि इस ढलान के बाद एक सपाट रास्ता आएगा और शायद फिर चढ़ाई आए। उसके पहले अपनी कुशलता और रचनात्मकता को ऊँचाई तक पहुँचाना चाहिए।