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Tuesday, January 24, 2023

मुसलमानों के करीब जाने के भाजपा-प्रयास


करीब दो दशक तक मुसलमानों की नाराजगी का केंद्र बने नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी ने मुसलमानों के साथ जुड़ने की कोशिशें शुरू की हैं। इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता लिज़ मैथ्यूस ने खबर दी है कि पार्टी ने 60 ऐसी लोकसभा सीटों को छाँटा है, जहाँ 2024 के चुनाव में मुसलमान-प्रत्याशियों को आजमाया जा सकता है। ऐसी खबरें काफी पहले से हवा में हैं कि बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों को आकर्षित करने का फैसला किया है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक केवल पसमांदा ही नहीं मुसलमानों के कुछ दूसरे वर्गों को पार्टी ने अपने साथ जोड़ने का प्रयास शुरू किया है। पार्टी फिलहाल इसके सहारे बड़ी संख्या में वोट पाने या सफलता पाने की उम्मीद नहीं कर रही है, बल्कि यह मुसलमानों के बीच भरोसा पैदा करने और अपने हमदर्दों को तैयार करने का प्रयास है।

नरेंद्र मोदी ने हाल में दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा कि पार्टी के नेताओं को मुसलमानों के प्रति अभद्र टिप्पणी करने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि देश में कई समुदाय भाजपा को वोट नहीं देते हैं, लेकिन इसके बाद भी उन्हें (भाजपा कार्यकर्ताओं को) उनके प्रति नफरत नहीं दिखानी चाहिए, बल्कि बेहतर तालमेल स्थापित कर बेहतर व्यवहार बनाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने मुसलमानों में पसमांदा और बोहरा समुदाय के लोगों के ज्यादा करीब जाने की बात भी कही।

पर्यवेक्षक मानते हैं कि बीजेपी अब स्थायी ताकत के रूप में उभर रही है। उसका प्रयास अब अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने का है। इसके पहले प्रधानमंत्री ने हैदराबाद कार्यकारिणी में भी कुछ इसी तरह की बात कही थी। यह सवाल अपनी जगह है कि नरेंद्र मोदी को इस तरह का बयान क्यों देना पड़ा, और क्या उनके इन बयानों के बाद मुसलमानों के प्रति भाजपा नेताओं के नफरती बयानों में कमी आएगी?

मुसलमानों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार की इस नसीहत के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि हिंदू समाज हजारों साल से गुलाम रहा है, अब उसमें जागृति आ रही है। इस वजह से कभी-कभी हिंदू समुदाय की ओर से आक्रामक व्यवहार दिखाई पड़ता है। उन्होंने इसे ठीक तो नहीं बताया, लेकिन परोक्ष रूप से इस बात का समर्थन किया कि हिंदू समुदाय का यह आक्रोश इतिहास को देखते हुए सही है। कुछ लोग इन दोनों बातों को एक-दूसरे के विपरीत मान रहे हैं।

Friday, January 6, 2023

2024 में संभव है बीजेपी को हराना: डेरेक ओ’ब्रायन


कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है, उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए हैं.

तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओब्रायन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 2024 में बीजेपी को हराया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा चुनाव को अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों को रूप में जोड़ा जाए। जब भी किसी इलाके की मजबूत पार्टी से बीजेपी को सामना करना पड़ा, तो वह कमज़ोर साबित हुई है। उन्होंने लिखा है कि मैं जानबूझकर क्षेत्रीय पार्टी (रीज़नल पार्टी) शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बहुत सी पार्टियों को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिली हुई है। यदि आप हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के चुनाव परिणामों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करें, तो पाएंगे कि बीजेपी को 240 तक पहुँचने में भी मुश्किल होगी। मई, 2021 में पश्चिम बंगाल में क्या हुआ था? मोदी और अमित शाह दोनों ने ज़ोर लगा दिया, पर हार गए। पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

…और यह है बीजेपी की रणनीति

आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिज़ मैथ्यूस की लंबी रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है, जिसमें बताया गया है कि 2024 के लिए बीजेपी की रणनीति क्या है। इसके अनुसार पार्टी ने अपने बूथ-स्तर के कार्यकर्ता से लेकर केंद्रीय मंत्रिस्तर के नेता तक को अपनी संगठनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा बनाया है। गृहमंत्री अमित शाह मानते हैं कि मजबूत संगठन के बगैर बीजेपी अपनी जीत को दोहरा नहीं पाएगी। पार्टी ने पिछले साल अपनी लोकसभा प्रवास योजना शुरू कर दी है, जिसके तहत मंत्रियों सहित पार्टी के नेताओं को उन मुश्किल चुनाव-क्षेत्रों की जिम्मेदारी दी है, जहाँ 2019 में पार्टी दूसरे नंबर पर रही या बहुत मामूली अंतर से जीती थी। शुरू में ऐसे 144 चुनाव-क्षेत्र तय किए गए थे, जिनकी संख्या अब 160 हो गई है। 2019 में पार्टी ने 436 स्थानों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 303 पर उसे जीत मिली। इस प्रकार 133 पराजित और 11 मामूली अंतर से जीती गई सीटों के आधार पर 144 की संख्या बनी थी, जिसे अब 160 कर लिया गया है। पूरी रिपोर्ट पढ़ें यहाँ

आसान नहीं है वैकल्पिक ऊर्जा की राह

अगर वर्ष 2022 ने दुनियाभर के नीति-निर्माताओं को कुछ सिखाया है तो वह यह कि उन्हें अपनी स्वच्छ ऊर्जा नीतियों को लेकर व्यावहारिक होना जरूरी था। रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध सभी विकसित और विकासशील देशों के लिए एक कड़वे सच को पहचानने जैसा था, क्योंकि ये देश इस बात को लेकर बड़े आश्वस्त थे कि वे कोयले से बहुत ही जल्दी निजात पा लेंगे और हाइड्रोकार्बन पर अपनी निर्भरता को बड़ी तेजी से कम करने में सफल हो जाएंगे। मगर वर्ष ने कोयले की मांग और कीमत दोनों को और बढ़ा दिया।

विकसित देश जैसे अमेरिका और जर्मनी अब फिर से ईंधन की ओर रुख कर रहे हैं और कोयले के बंद पड़े संयंत्रों को फिर से शुरू कर रहे हैं। विशेष रूप से, पश्चिमी यूरोप इस बात को समझ गया है कि अगर इसे सस्ती दरों पर प्राकृतिक गैसों की आपूर्ति नहीं मिलती तो उसे सौर और पवन ऊर्जाओं से मदद नहीं मिलने वाली है। इसने यह भी पाया है कि पारंपरिक ऊर्जा आपूर्ति में रुकावट आने से लीथियम और निकल जैसे खनिजों की कीमतें बढ़ जाएंगी। बिजनेस स्टैंडर्ड में पढ़ें प्रसेनजित दत्ता का आलेख