Monday, February 23, 2015

अब होगी मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा

बजट सत्र में मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा

  • 56 मिनट पहले
पिछले कुछ महीनों से लगातार सफलता के शिखर पर पैर जमाकर खड़ी नरेंद्र मोदी सरकार के सामने सोमवार से शुरू हो रहा संसद का बजट सत्र बड़ी चुनौती साबित होगा.
संसद से सड़क तक की राजनीति, देश के आर्थिक स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर अनेक गंभीर सवालों के जवाब सरकार को देने हैं.
पिछले साल जुलाई में पेश किए गए रेल और आम बजट पिछली सरकार के बजटों की निरंतरता से जुड़े थे.
देखना होगा कि वित्त मंत्री का जोर राजकोषीय घाटे को कम करने पर है या वो सरकारी खर्च बढ़ाकर सामाजिक विकास को बढ़ावा देंगे.

पढ़ें, रिपोर्ट विस्तार से

यह मोदी सरकार के हनीमून की समाप्ति का सत्र होगा.
सत्र के ठीक पहले सरकारी दफ्तरों से महत्वपूर्ण दस्तावेजों की चोरी के मामले ने देश की प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था को लेकर गम्भीर सवाल खड़े किए हैं. इसकी गूँज इस सत्र में सुनाई पड़ेगी.
संसदीय कर्म के लिहाज से भी यह महत्वपूर्ण और लम्बा सत्र है. दो चरणों में यह 8 मई तक चलेगा.
तब तक संसद के बाहर सम्भवतः कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व परिवर्तन और मोदी सरकार के कामकाज का पहले साल का अंतिम सप्ताह शुरू होगा.

नए भारत की कहानी

मध्यवर्ग की दिलचस्पी आयकर छूट को लेकर होती है. क्या बजट में ऐसी नीतिगत घोषणाएं होंगी, जिनसे इस साल आर्थिक संवृद्धि की गति तेज होगी?

Sunday, February 22, 2015

बहुत कुछ नया होगा अबके बजट में

सोमवार से शुरू होने वाला बजट सत्र मोदी सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा साबित होगा। उसके राजनीतिक पहलुओं के साथ-साथ आर्थिक पहलू भी हैं। पिछले साल मई में नई सरकार बनने के एक महीने बाद ही पेश किया गया बजट दरअसल पिछली सरकार के बजट की निरंतरता से जुड़ा था। उसमें बुनियादी तौर पर नया कर पाने की गुंजाइश नहीं थी। इस बार का बजट इस माने में मोदी सरकार का बजट होगा। एक सामान्य नागरिक अपने लिए बजट दो तरह से देखता है। एक उसकी आमदनी में क्या बढ़ोत्तरी हो सकती है और दूसरे उसके खर्चों में कहाँ बचत सम्भव है। इसके अलावा बजट में कुछ नई नीतियों की घोषणा भी होती है। इस बार का बजट बदलते भारत का बजट होगा जो पिछले बजटों से कई मानों में एकदम अलग होगा। इसमें टैक्स रिफॉर्म्स की झलक और केंद्रीय योजनाओं में बदलाव देखने को मिलेगा। एक जमाने में टैक्स बढ़ने या घटने के आधार पर बजट को देखा जाता था। अब शायद वैसा नहीं होगा।
इस बार के बजट में व्यवस्थागत बदलाव देखने को मिलेगा। योजना आयोग की समाप्ति और नीति आयोग की स्थापना का देश की आर्थिक संरचना पर क्या प्रभाव पड़ा इसका पहला प्रदर्शन इस बजट में देखने को मिलेगा। पहली बार केंद्रीय बजट पर राज्यों की भूमिका भी दिखाई पड़ेगी। पिछली बार के बजट से ही केंद्रीय योजनाओं की राशि कम हो गई थी, जो प्रवृत्ति इस बार के बजट में पूरी तरह नजर आएगी। चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप अब राज्यों के पास साधन बढ़ रहे हैं। पर केंद्रीय बजट में अनेक योजनाओं पर खर्च कम होंगे। आर्थिक सर्वेक्षण का भी नया रूप इस बार देखने को मिलेगा। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बनाई है। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले में अर्थ-व्यवस्था का विवेचन होगा। साथ ही इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।

Monday, February 16, 2015

दिल्ली को पूर्ण राज्य का बनाना आसान नहीं

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में राजनीतिक दल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की माँग करते हैं, पर यह दर्जा मिलता नहीं है। पिछले दस साल से केंद्र और दिल्ली दोनों में कांग्रेस पार्टी का शासन था, पर इसे पूर्ण राज्य नहीं बनाया गया। इस बार चुनाव के पहले तक भारतीय जनता पार्टी इस विचार से सहमत थी, पर चुनाव के ठीक पहले जारी दृष्टिपत्र में उसने इसका जिक्र भी नहीं किया। पिछले साल उम्मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री अपने 15 अगस्त के भाषण में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा करेंगे, पर नहीं की। भाजपा ने देर से इस बात के व्यावहारिक पहलू को समझा। और आम आदमी पार्टी इसके राजनीतिक महत्व को समझती है।

Thursday, February 12, 2015

राजस्थान से आई यह निराली बधाई


11 फरवरी के राजस्थान पत्रिका, जयपुर के पहले पेज के जैकेट पर निराला विज्ञापन प्रकाशित हुआ। इसमें दिल्ली के विधान सभा चुनाव में 3 सीटें जीतने पर भाजपा को बधाई दी गई है। यह बधाई प्रतियोगिता परीक्षाओं से जुड़ी किताबें छापने वाले एक प्रकाशन की ओर से है। प्रकाशन के लेखक नवरंग राय, रोशनलाल और लाखों बेरोजगार विद्यार्थियों की ओर से यह बधाई दी गई है। इसमें ड़क्टर से राजनेता बने वीरेंद्र सिंह से अनुरोध किया गया है कि वे राजस्थान में आम आदमी पार्टी का नेतृत्व करें और उसे नए मुकाम पर पहुँचाएं। पिछले लोकसभा चुनाव में वीरेंद्र सिंह आम आदमी पार्टी के टिकट पर लड़े थे। 

भेड़ों की भीड़ नहीं, जागरूक जनता बनो

दिल्ली की नई विधानसभा में 28 विधायकों की उम्र 40 साल या उससे कम है. औसत उम्र चालीस है. दूसरे राज्यों की तुलना में 7-15 साल कम. चुने गए 26 विधायक पोस्ट ग्रेजुएट हैं. 20 विधायक ग्रेजुएट हैं, और 14 बारहवीं पास हैं. बीजेपी के तीन विधायकों को अलग कर दें तो आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों के पास राजनीति का अनुभव शून्य है. वे आम लोग हैं. उनके परिवारों का दूर-दूर तक रिश्ता राजनीति से नहीं है. उनका दूर-दूर तक राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. दिल्ली के वोटर ने परम्परागत राजनीति को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है. यह नई राजनीति किस दिशा में जाएगी इसका पता अगले कुछ महीनों में लगेगा. यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हुआ तो एक बड़ी उपलब्धि होगी.  

Monday, February 9, 2015

टूटना चाहिए चुनावी चंदे का मकड़जाल

यकीन मानिए भारत के आम चुनाव को दुनिया में काले धन से संचालित होने वाली सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। हमारे लोकतंत्र का सबसे खराब पहलू है काले धन की वह विशाल गठरी जिसे ज्यादातर पार्टियाँ खोल कर बैठती हैं। काले धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास तमाम रास्ते हैं। सबसे खुली छूट तो पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है। चंदा लेने की उनकी व्यवस्था काले पर्दों से ढकी हुई है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के चंदे को लेकर मीडिया में दो दिन का शोर-गुल हुआ। और उसके बाद खामोशी हो गई। बेहतर हो कि न केवल इस मामले में बल्कि पार्टियों के चंदे को लेकर तार्किक परिणति तक पहुँचा जाए।

सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए पार्टियों के प्रत्याशी करोड़ों के दाँव लगाते हैं? जीतकर आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े कानून शामिल हैं। अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे पीछे रखते हैं। ऐसा क्यों? व्यवस्था में जो भी सुधार हुआ नजर आता है वह वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हुआ है। सबसे बड़ा पेच खुद राजनीतिक दल हैं जिनके हाथों में परोक्ष रूप से नियम बनाने का काम है। चुनाव से जुड़े कानूनों में बदलाव का सुझाव विधि आयोग को देना है, पर दिक्कत यह है कि राजनीतिक दल विधि आयोग के सामने अपना पक्ष रखने में भी हीला-हवाला करते हैं।

Sunday, February 8, 2015

दिल्ली की विजय-पराजय के माने

दिल्ली विधानसभा के एग्जिट पोल आम आदमी पार्टी के सामान्य बहुमत से लेकर दो तिहाई बहुमत तक के इशारे कर रहे हैं। उनके अनुसार बीजेपी के वोट प्रतिशत में सन 2013 के मुकाबले बढ़ोत्तरी होगी और 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में कमी होगी। इस लिहाज से इसे नरेंद्र मोदी सरकार और व्यक्तिगत रूप से मोदी को लोकप्रियता में गिरावट के रूप में भी देखा जा रहा है। शायद इसी वजह से काफी विश्लेषकों को यह चुनाव महत्वपूर्ण लगता है। पर यह चुनाव केवल इतना ही मतलब नहीं रखता। आम आदमी पार्टी सामान्य राजनीतिक संस्कृति से ताल्लुक नहीं रखती। कम से कम उसका दावा इसी प्रकार का है। उसका साथ देने वाले सामान्य नागरिक है और उसके कार्यकर्ता आमतौर पर शहरी युवा हैं। यह शहरी युवा मोदी सरकार का समर्थक माना जा कहा था। एक धारणा है कि मोदी सरकार के समर्थकों ने हिन्दुत्व से जुड़े संकर्ण मामलों को उठाकर युवा वर्ग का मोहभंग किया है। दूसरी धारणा यह है कि मोदी सरकार ने बड़े-बड़े वादे कर दिए थे जो अब पूरे नहीं हो रहे हैं। एग्जिट पोल के बाद अब 10 फरवरी को परिणाम आने के बाद ही इस बारे में कोई राय कायम करना बेहतर होगा, पर चुनाव परिणाम ऐसा ही रहा तब भी उसके अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग माने होंगे। रोचक बात यह है कि आम आदमी पार्टी के पक्ष में ममता बनर्जी के साथ-साथ प्रकाश करात ने भी अपील की थी। क्या आम आदमी पार्टी वामपंथी पार्टी है? क्या वह उस युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर खरी उतरती है जो आम आदमी पार्टी के साथ है? क्या आम आदमी पार्टी के आर्थिक दृष्टिकोण से वह परिचित है? दूसरी ओर आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों, दलितों और मुस्लिम समुदाय का समर्थन भी नजर आता है। बीजेपी का पीछे मध्य वर्ग का समर्थन है। क्या यह वर्गीय ध्रुवीकरण है? आम आदमी पार्टी के कामकाज में यह ध्रुवीकरण किस रूप में नजर आएगा इसे समझना होगा। यदि मुस्लिम समुदाय ने आम आदमी के पक्ष में टैक्टिकल वोटिंग की है तो क्या इसका प्रभाव बिहार ौर यूपी के चुनाव में भी पड़ेगा? ऐसे कई सवाल सामने आएंगे।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव एक लिहाज से कोई माने नहीं रखते। बावजूद इसके यह चुनाव राष्ट्रीय महत्व रखता है तो सिर्फ इसलिए कि पिछले कुछ साल से दिल्ली की राजनीति ने पूरे देश को प्रभावित किया है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के तकरीबन छह महीने पहले हुए दिल्ली के चुनाव ने कांग्रेस और भाजपा के भीतर हलचल मचा दी थी। दोनों पार्टियों ने आम आदमी पार्टी के पीछे नागरिकों की ताकत को महसूस किया था। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद लगता है राष्ट्रीय दलों ने आम आदमी फैक्टर पर ध्यान देना बंद कर दिया था। खासतौर से भारतीय जनता पार्टी अपनी जीत के जोश में तेजी से उड़ चली थी। दिल्ली के चुनाव ने उसकी तंद्रा भंग की है। बहरहाल वोट पड़ चुके हैं, परिणाम का इंतजार है। पर यह चुनाव अपने परिणामों के अलावा कुछ दूसरे कारणों से भी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है।

Saturday, February 7, 2015

एग्जिट पोल परिणाम


1.एबीपी न्यूज़- नीलसन

आप=  43
बीजेपी= 26
कांग्रेस= 01

2. इंडिया टीवी- सी वोटर

आप= 31-39
बीजेपी= 27-35
कांग्रेस= 02-04

3. न्यूज़ नेशन

आप= 39-43
बीजेपी= 25-29
कांग्रेस= 01-03

4. आज तक

आप= 35-43
बीजेपी= 23-29
कांग्रेस= 03-05

5. इंडिया न्यूज़

आप= 53
बीजेपी= 17
कांग्रेस= 02

उपरोक्त चैनलों का औसत

आप= 41
बीजेपी= 26
कांग्रेस= 03

6. चाणक्य - न्यूज़-24

आप= 48
बीजेपी= 22
कांग्रेस= 00

7.डेटा मिनेरिया

आप  31
भाजपा 35
कांग्रेस 4
.

खेल बेचे तेल, आओ खेलें ये नया खेल

खेल विशेषज्ञों की दिलचस्पी इस बात में है कि इस बार का विश्व कप कौन जीतेगा। भारत के दर्शक मायूस हैं कि ट्राई सीरीज़ में धोनी के धुरंधरों ने नाक कटा दी। अब 15 को पाकिस्तान के साथ मैच है। हमारे मीडिया की चली तो इसे विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी घटना बनाकर छोड़ेगा। पर क्रिकेट में अब खेल कम, मनोरंजन ज्यादा है। यह अब आईबॉल्स का खेल है। संस्कृति, मनोरंजन, करामात, करिश्मा, जादू जैसी तमाम बातें क्रिकेट में आ चुकी हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं था। विश्व कप के चालीस साल के इतिहास में क्या से क्या हो गया। एक तरफ खेल बदला वहीं उसे देखने वाले भी बदल गए।

Thursday, February 5, 2015

Man That Never Seen Again.

Embedded image permalink

https://twitter.com/FreakyTheory

No documentation verifying this story has yet surfaced, but it was mentioned in several books, including The Directory of Possibilities (1981, p. 86) and Strange But True: Mysterious and Bizarre People (1999, p. 64). And given its puzzling ending, I doubt that any official would have written up a report concluding that the man and all his documented evidence simply vanished.

Surprisingly, misplaced travelers such as the business man from Taured have appeared on many occasions. In 1851, a man was found wandering Frankfurt an der Oder in northeast Germany who claimed he was from a country called Laxaria on the continent of Sakria. Another young man who spoke a completely unrecognizable language was caught stealing a loaf of bread in Paris in 1905; he said he was from Lizbia, which authorities assumed was Lisbon—or Lisboa in Portuguese, yet his language was not Portuguese nor did he recognize a map of Portugal as his homeland.
Is Taured out there somewhere? And what about Laxaria or Liziba? Did these men fall backward through time or pass through dimensions? Or were they simply perpetrating a hoax or mentally ill?
more read here

Sunday, February 1, 2015

किरण बेदी पहली आईपीएस हैं या नहीं?



सोशल मीडिया पर खबरें हैं कि किरण बेदी पहली महिला आईपीएस अधिकारी नहीं हैं। इसके पक्ष में एक अखबारी कतरन लगाई है। वास्तव में तथ्य क्या है यह बाद की बात है एक तथ्य यह सामने आया कि इंटरनेट पर ऐसी साइट्स जो अखबारों की फर्जी कतरनें तैयार करती हैं। नीचे मैं वह कतरन लगा रहा हूँ जो सोशल मीडिया में वायरल हुई है साथ ही उसी अंदाज में बनाई गई कतरनें भी हैं। इन्हें देख कर अंदाज लगाया जा सकता है कि सुरजीत कौर वाली कतरन भी फर्जी है। अलबत्ता सच क्या है इसकी छानबीन होनी चाहिए। अखबारों की कतरनें तैयार करने वाली एक साइट का यूआरएल इस प्रकार है http://www.fodey.com/generators/newspaper/snippet.asp

आक्रामक डिप्लोमेसी का दौर

मोदी सरकार के पहले नौ महीनों में सबसे ज्यादा गतिविधियाँ विदेश नीति के मोर्चे पर हुईं हैं। इसके दो लक्ष्य नजर आते हैं। एक, सामरिक और दूसरा आर्थिक। देश को जैसी आर्थिक गतिविधियों की जरूरत है वे उच्चस्तरीय तकनीक और विदेशी पूँजी निवेश पर निर्भर हैं। भारत को तेजी से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है जिसकी पटरियों पर आर्थिक गतिविधियों की गाड़ी चले। अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर डील का निहितार्थ केवल नाभिकीय ऊर्जा की तकनीक हासिल करना ही नहीं था। असली बात है आने वाले वक्त की ऊर्जा आवश्यकताओं को समझना और उनके हल खोजना है।

Saturday, January 31, 2015

अफसर बनाम सियासत, सवाल विशेषाधिकार का

विदेश सचिव सुजाता सिंह को हटाए जाने के पीछे कोई राजनीतिक मंतव्य नहीं था। इसके पीछे न तो ओबामा की भारत यात्रा का कोई प्रसंग था और न देवयानी खोबरागड़े को लेकर भारत और अमेरिका के बीच तनातनी कोई वजह थी। यह बात भी समझ में आती है कि सरकार सुब्रमण्यम जयशंकर को विदेश सचिव बनाना चाहती थी और उसे ऐसा करने का अधिकार है। यही काम समझदारी के साथ और इस तरह किया जा सकता था कि यह फैसला अटपटा नहीं लगता। अब कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। साथ ही सुजाता सिंह और सुब्रमण्यम जयशंकर की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को लेकर चिमगोइयाँ चलने लगी हैं। प्रशासनिक उच्च पदों के लिए होने वाली राजनीतिक लॉबीइंग का जिक्र भी बार-बार हो रहा है। यह देश के प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा नहीं है। अलबत्ता नौकरशाही, राजनीति और जनता के रिश्तों को लेकर विमर्श शुरू होना चाहिए। इन दोनों की भूमिकाएं गड्ड-मड्ड होने का सबसे बड़ा नुकसान देश की गरीब जनता का होता है। भ्रष्टाचार, अन्याय और अकुशलता के मूल में है राजनीति और प्रशासन का संतुलन।

Thursday, January 29, 2015

ओबामा यात्रा, खुशी है खुशहाली नहीं

ओबामा की यात्रा के बाद भारत आर्थिक उदारीकरण के काम में तेजी से जुट गया है. सरकार विदेशी निवेशकों से उम्मीद कर रही है. इसके लिए वोडाफोन के मामले पर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील नहीं करने का फैसला कैबिनेट ने किया है. ओबामा यात्रा मूलतः भारतीय विदेश नीति की दिशा तय करके गई है. भारत कोशिश कर रहा है कि अमेरिका के साथ बनी रहे और रूस और चीन के साथ भी. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि दुनिया एक और शीतयुद्ध की ओर न बढ़े. इस रविवार को सुषमा स्वराज चीन जा रही हैं. यह बैलेंस बनाने का काम ही है. फिलहाल मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ा काम है देश की अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाना. 

ओबामा यात्रा के बाद वैश्विक मंच पर भारत का रसूख बढ़ेगा, पर क्या यह हमारी बुनियादी समस्याओं के हल करने में भी मददगार होगी? शायद नहीं.  जिस बड़े स्तर पर पूँजी निवेश की हम उम्मीद कर रहे हैं वह अभी आता नजर नहीं आता. उसके लिए हमें कुछ व्यवस्थागत बदलाव लाने होंगे, जिसमें टाइम लगेगा. आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए के लिए इस इलाके में शांति का माहौल चाहिए. इस यात्रा पर पाकिस्तान और चीन की जो प्रतिक्रियाएं आईं हैं उनसे संदेह पैदा होता है कि यह इलाका भावनाओं के भँवर से बाहर निकल भी पाएगा या नहीं. डर यह है कि हम नए शीतयुद्ध की ओर न बढ़ जाएं.  

Tuesday, January 27, 2015

गणतंत्र दिवस पर मोदी की छाप

गणतंत्र दिवस परेड पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छाप सायास या अनायास दिखाई पड़ी। जिनमें से कुछ हैं:-

मेक इन इंडिया का मिकेनिकल शेर
प्रधानमंत्री जन-धन योजना की झाँकी
बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ झाँकी
गुजरात की झाँकी में पटेल की प्रतिमा
आयुष मंत्रालय की झाँकी
बुलेट ट्रेन की प्रतिकृति
स्वच्छ भारत की अपील करता स्कूली बच्चों का समूह नृत्य
कार्यक्रम में बराक ओबामा सहित तमाम अतिथि अपने हाथों में छाते छामे नजर आए। किसी को पहले से इस बात का अंदेसा नहीं था। शायद अगले साल से विशिष्ट अतिथियों के मंच के ऊपर शीशे की छत लगेगी।

आज दिल्ली के कुछ  अखबार प्रकाशित हुए हैं जिनसे कार्यक्रम की रंगीनी के अलावा मीडिया की दृष्टि भी नजर आती है। आज की कुछ कतरनें

नवभारत टाइम्स


इंडियन एक्सप्रेस





Monday, January 26, 2015

यह ‘परेड-डिप्लोमेसी’ कुछ कहती है


बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस की परेड का मुख्य अतिथि बनाने का कोई गहरा मतलब है? एक ओर सुरक्षा व्यवस्था का दबाव पहले से था, ओबामा की यात्रा ने उसमें नाटकीयता पैदा कर दी. मीडिया की धुआँधार कवरेज ने इसे विशिष्ट बना दिया है. यात्रा के ठीक पहले दोनों देशों के बीच न्यूक्लियर डील के पेचीदा मसलों का हल होना भी सकारात्मक है. कई लिहाज से यह गणतांत्रिक डिप्लोमेसी इतिहास के पन्नों में देर तक याद की जाएगी.    

दोनों के रिश्तों में दोस्ताना बयार सन 2005 से बह रही है, पर पिछले दो साल में कुछ गलतफहमियाँ भी पैदा हुईं. इस यात्रा ने कई गफलतों-गलतफहमियों को दूर किया है और आने वाले दिनों की गर्मजोशी का इशारा किया है. पिछले 65 साल में अमेरिका को कोई राजनेता इस परेड का मुख्य अतिथि कभी नहीं बना तो यह सिर्फ संयोग नहीं था. और आज बना है तो यह भी संयोग नहीं है. वह भी भारत का एक नजरिया था तो यह भी हमारी विश्व-दृष्टि है. ओबामा की यह यात्रा एक बड़ा राजनीतिक वक्तव्य है.

Sunday, January 25, 2015

आपके हाथ में है बदलाव की डोर

कुछ साल पहले एक नारा चला था, सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान। इस नारे में तकनीकी दोष है। सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं। सौ में 98 ईमानदार हैं और ईमानदारी से व्यवस्था को कायम करना चाहते हैं। सच यह है कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते, दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को भी बेईमान मान लिया तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।

Thursday, January 22, 2015

पत्रकार की नौकरी और स्वतंत्रता

पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी के बाद मीडिया की नौकरी और कवरेज को लेकर कुछ सवाल उठेंगे। ये सवाल एकतरफा नहीं हैं। पहला सवाल यह है कि मीडिया हाउसों की कवरेज कितनी स्वतंत्र और निष्पक्ष है? दूसरा यह कि किसी पत्रकार की सेवा किस हद तक सुरक्षित है? तीसरा यह कि सम्पादकीय विभाग के कवरेज से जुड़े निर्णय किस आधार पर होते हैं? यह भी पत्रकार के व्यक्तिगत आग्रहों और चैनल की नीतियों में टकराव होने पर क्या होना चाहिए? संयोग से इसी चैनल के एक पुराने एंकर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए और लोकसभा चुनाव भी लड़ा। पंकज श्रीवास्तव ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे राजनीति में आना चाहते हैं। वे मानते है कि उनके चैनल की कवरेज असंतुलित है। चैनल क्या इस बात को जानता नहीं? बेशक वह सायास झुकाव के लिए भी स्वतंत्र है। चैनलो से उम्मीद की जाती है कि वे तटस्थ होकर काम करेंगे। पर क्या यह तटस्थता व्यावहारिक रूप से सम्भव है? खासतौर से तब जब पत्रकार की अपनी राजनीतिक धारणाएं हैं और दूसरी ओर चैनल के व्यावसायिक हित हैं।

Tuesday, January 20, 2015

स्वास्थ्य का अधिकार देंगे, पर कैसे?

सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2015 के जिस मसौदे पर जनता की राय मांगी है उसके अनुसार आने वाले दिनों में चिकित्सा देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाएगी। यानी स्वास्थ्य व्यक्ति का कानूनी अधिकार होगा। सिद्धांततः यह क्रांतिकारी बात है। भारतीय राज-व्यवस्था शिक्षा के बाद व्यक्ति को स्वास्थ्य का अधिकार देने जा रही है। इसका मतलब है कि हमारा समाज गरीबी के फंदे को तोड़कर बाहर निकलने की दिशा में है। पर यह बात अभी तक सैद्धांतिक ही है। इसे व्यावहारिक बनने का हमें इंतजार करना होगा। पर यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना बढ़ी है।

Sunday, January 18, 2015

गूगल एडसेंस के बहाने मीडिया पर विमर्श

यों तो मैने कई ब्लॉग बना रखे हैं, पर नियमित रूप से जिज्ञासा और ज्ञानकोश को अपडेट करता हूँ। हाल में मेरी एक पोस्ट पर श्री अनुराग चौधरी ने टिप्पणी में सुझाव दिया कि मैं गूगल एडसेंस से जोड़ूं। उनकी टिप्पणी निम्नलिखित थी_-


आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
आपका ब्लॉग हमेशा देखता हूँ और मैं इंतजार कर रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर कब adsense के विज्ञापन चालू हो परन्तु अभीतक चालू नहीं हुए हैं। कृपया adsense के लिया apply करें आपका ब्लॉग adsense के लिए फिट है। Google ने हिंदी ब्लॉगों पर adsense शुरू कर दिया है। दूसरी बात यह है कि आपके ब्लॉग की सामग्री के अनुसार visitor संख्या कम है। कृपया कुछ समय निकल कर सर्च सेटिंग सही करें अथवा प्रत्येक पोस्ट को एक एक कर के गूगल सर्च इंजिन पर रजिस्टर करें।-अनुराग चौधरी

उसके पहले कई तरफ से जानकारी मिली थी कि अब हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉगों को भी गूगल एडसेंस की स्वीकृति मिल रही है। उनकी बात मानकर मैने एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई।

गुणवत्ता-विहीन हमारी शिक्षा

धारणा है कि हमारे स्कूलों का स्तर बहुत ऊँचा है। सीबीएसई और आईसीएसई परीक्षाओं में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रम सन 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया। विकसित देशों की संस्था ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक परीक्षण करती है। दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख बच्चे शामिल होते हैं। सन 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस परीक्षा में पहली बार शामिल हुए। चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत के बच्चे 72 वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश ही उसमें शामिल हुए थे।

Saturday, January 17, 2015

विज्ञान-दृष्टि विहीन वैज्ञानिक

पुष्प एम. भार्गव
भारत ने पिछले 85 सालों से विज्ञान में एक भी नोबेल पुरस्कार पैदा नहीं किया. इसकी बड़ी वजह देश में वैज्ञानिक आबोहवा की गैरमौजूदगी है.

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में 'साइंटिफिक टेम्पर' यानी वैज्ञानिक सोच (या विज्ञान दृष्टि) जुमला ईजाद किया था. यह पुस्तक 1946 में प्रकाशित हुई. वह एसोसिएशन ऑफ़ साइंटिफिक वर्कर्स ऑफ़ इंडिया (एएसडब्ल्यूआई) नाम की संस्था के अध्यक्ष भी थे. यह संस्था बतौर ट्रेड यूनियन पंजीकृत थी और 1940 दशक और 1950 के शुरूआती वर्षों में मैं भी इससे जुड़ा रहा. यह अपनी तरह का इकलौता उदाहरण होगा जब एक लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री किसी ट्रेड यूनियन का अध्यक्ष बना हो. संस्था के उद्देश्यों में एक था- वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार-प्रसार. शुरू में यह काफी सक्रिय रही लेकिन 1960 दशक आते-आते पूरी तरह बिखर गयी, क्योंकि देश के ज्यादातर वैज्ञानिक, जिनमें कई ऊंचे पदों पर आसीन थे, स्वयं वैज्ञानिक दृष्टि की उस अवधारणा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थे, जो तार्किकता व विवेक का पक्षपोषण तथा तमाम तरह की रूढ़ियों, अंधविश्वासों व झूठ से मुक्ति का आह्वान करती है.  

Friday, January 16, 2015

The Chameli Devi Jain Award 2014-15

The Media Foundation invites nominations for


The Chameli Devi Jain Award 2014-15



The Media Foundation is pleased to invite nominations for its annual Chameli Devi Jain Awards for an Outstanding Woman Mediaperson for 2014-15.

The annual Chameli Devi Award is the premier award for women mediapersons in India. It was first awarded in 1982 to an outstanding woman mediaperson, who has made a difference through writing with depth, dedication, courage and compassion. Chameli Devi awardees include some of the best known and respected names in Indian journalism. They have pioneered and popularised a new journalism in terms of themes and values – such as social development, politics, equity, gender justice, health, war and conflict, and consumer values.

Thursday, January 15, 2015

विज्ञान और वैज्ञानिकता से नाता जोड़िए

हाल में मुम्बई में हुई 102वीं साइंस कांग्रेस तथाकथित प्राचीन भारतीय विज्ञान से जुड़े कुछ विवादों के कारण खबर में रही. अन्यथा मुख्यधारा के मीडिया ने हमेशा की तरह उसकी उपेक्षा की. आमतौर पर 3 जनवरी को शुरू होने वाली विज्ञान कांग्रेस हर साल नए साल की पहली बड़ी घटना होती है. जिस उभरते भारत को देख रहे हैं उसका रास्ता साइंस की मदद से ही हम पार कर सकते हैं. इस बार साइंस कांग्रेस का थीम थी 'मानव विकास के लिए विज्ञान और तकनीकी'. इसके उद्घाटन के बाद पीएम मोदी ने कहा कि साइंस की मदद से ही गरीबी दूर हो सकती है और अमन-चैन कायम हो सकता है. यह कोरा बयान नहीं है, बल्कि सच है. बशर्ते उसे समझा जाए.

Monday, January 12, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावना की रक्षा?

शार्ली एब्दो हत्याकांड के विरोध में रविवार को पेरिस में जबर्दस्त रैली हुई। पूरा यूरोप इस घटना के बाद उठ खड़ा हुआ है, पर इस घटना ने एक नई बहस को जन्म भी दिया है। आतंकवाद पर चर्चा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर केंद्रित हो गई है। दुनियाभर के अखबार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर विचार-विमर्श में लगे हैं। भारत में यह सवाल उठ रहा है कि शार्ली एब्दो जैसी स्वतंत्रता क्या हम अपने कार्टूनिस्टों को दे सकते हैं? मकबूल फिदा हुसेन को निर्वसन में रहने को किसने मजबूर किया? संयोग से शार्ली एब्दो के एक कार्टूनिस्ट जॉर्जेस वोलिंस्की यहूदी थे। इसरायली अखबार 'हारेट्ज़' में प्रकाशित लेख में वहाँ के कलाकार इदो अमीन ने लिखा है कि शार्ली एब्दो का प्रकाशन इसरायल में सम्भव नहीं था, क्योंकि वहाँ के कानून धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के खिलाफ हैं। अमीन ने लिखा है,
Georges Wolinski, the leading caricaturist at Charlie Hebdo, was among those murdered in the terror attacks in Paris last week. He was one of my cultural heroes when I was starting out.
Neither Superman, Charlie Brown, Asterix nor "The Adventures of Tintin" spoke to me the way Wolinski’s black-and-white sketches did — with his distorted, exaggerated figures openly revealing their dark urges. This half-Polish, half-Tunisian Jew possessed an anarchist spirit that left no sacred cow standing.
Every community was insulted by his brush. His position toward readers was this: Does it bother you? So don’t read it! And if you want to ridicule me back, I won’t sue you.”
After the terrible massacre at Charlie Hebdo and the murders that followed at the Jewish market, concerned people have spoken out over the fate of France’s Jews. Don’t they see the time has come to move to Israel, as Prime Minister Benjamin Netanyahu told them after the murder at the Toulouse school?
And the sooner the better! But if Wolinski had moved to Israel and opened a Charlie weekly here, he would have had a problem.In France, freedom of speech is considered a universal right, while in Israel such a weekly would not be able to exist because of the Israeli law that bans “offending religious sensibilities.” During my years as a cartoonist I have had to become familiar with the laws restricting the Israeli press.
पूरा लेख यहाँ पढ़ें 

इस सिलसिले में कुछ और लेख पठनीय हैं।

पाकिस्तानी अखबार एक्प्रेस ट्रिब्यून में आकार पटेल का लेख Should the right to speech be absolute?

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नायनन का लेख A right to offend


जनसत्ता में प्रकाशित

इस सिलसिले में मनीषा सेठी की एक किताब काफ्कालैंड इन दिनों आई है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में नहीं है, पर वह आतंकवाद का पड़ताल से जुड़ी है। मनीषा सेठी से बीबीसी हिन्दी रेडियो की बातचीत को सुनना रोचक होगा। यहाँ सुने उनसे बातचीत

Sunday, January 11, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं

पेरिस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के माने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है। भारत में हाल के वर्षों में असीम त्रिवेदी के मामले में और फिर उसके बाद आम्बेडकर के कार्टून को लेकर यह सवाल उठा था। कुछ लोगों की मान्यता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। उसकी सीमा होनी चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या यह सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही लागू होती है? क्या धार्मिक या आस्था की स्वतंत्रता की सीमा भी नहीं होनी चाहिए? हाल में सिडनी के एक कैफे और पाकिस्तान के पेशावर में बच्चों की हत्या से जुड़े सवाल भी हमें इसी दिशा में लाते हैं? सवाल है कितनी आजादी? और किसकी आज़ादी?

Saturday, January 10, 2015

कब तक चलेगी मोदी की अध्यादेशी नैया?

भूमि अधिग्रहण कानून देश की राजनीति और प्रशासन की पोल खोलता है। लम्बे अरसे तक लटकाए रखने के बाद इसे जब पास किया गया तभी ज़ाहिर था कि कारोबार जगत को इसे लेकर अंदेशा है। जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पद भार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून में किसानों के पक्ष में पैरवी की थी, पर जब कानून पास हो रहा था तब उन्हें भी लगने लगा था कि आर्थिक विकास की दर को तेज़ करने के लिए इसकी कड़ी शर्तें कम करनी होंगी। निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा। अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसमें बदलाव लाना चाहती है, पर जब यह कानून पास हो रहा था तब पार्टी ने ये सवाल नहीं उठाए थे। फिलहाल इस मामले से जुड़े कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:-

· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।

· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।

· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?

· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?

Friday, January 9, 2015

रोमन हिन्दी को लेकर असगर वजाहत का एक पुराना लेख

“रोमन” हिंदी खिल रही है, “नागरी” हिंदी मर रही है

यह लेख मार्च 2010 में जनसत्ता में छपा था। इसे यहाँ फिर से लगाया है ताकि सनद रहे। इस सिलसिले में मैं कुछ और सामग्री खोजकर यहाँ लगाता जाऊँगा। 

मुंबई से फिल्म निर्देशक का फोन आया कि फिल्म के संवाद रोमन लिपि में लिखे जाएं। क्यों? इसलिए कि अभिनेताओं में से कुछ हिंदी बोलते-समझते हैं लेकिन नागरी लिपि नहीं पढ़ सकते। कैमरामैन गुजरात का है। वह भी हिंदी समझता-बोलता है लेकिन पढ़ नहीं सकता… इसी तरह… फिल्म से जुड़े हुए तमाम लोग हैं। फिल्मी दुनिया में गहरी पैठ रखने वालों ने बाद में बताया कि फिल्म उद्योग में तो हिंदी आमतौर पर रोमन लिपि में लिखी और पढ़ी जाती है। एनडीटीवी के हिंदी समाचार विभाग में बड़े ओहदे पर बरसों काम कर चुके एक दोस्त ने बताया कि टीवी चैनलों पर हिंदी समाचार आदि रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। वजह केवल यह नहीं है कि समाचार पढ़ने वाला नागरी लिपि नहीं जानता है बल्कि यह भी है कि समाचार की जांच-पड़ताल करने वाले नागरी लिपि के मुकाबले रोमन लिपि ज्यादा सरलता से पढ़ सकते हैं।

Thursday, January 8, 2015

रोमन हिन्दी के बारे में चेतन भगत की राय

आज यानी 8 जनवरी के दैनिक भास्कर में चेतन भगत ने रोमन हिन्दी के बारे में एक लेख लिखा है। इस लेख को पढ़कर अनेक लोगों की प्रतिक्रिया होगी कि चेतन भगत के लेख को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। यह प्रतिक्रिया या दंभ से भरी होती है या नादानी से भरी। जो वास्तव में उपस्थित है उससे मुँह मोड़कर आप कहाँ जाएंगे? भाषा अपने बरतने वालों के कारण चलती या विफल होती है, विशेषज्ञों के कारण नहीं। विशेषज्ञता वहाँ तक ठीक है जहाँ तक वह वास्तविकता को ठीक से समझे। बहरहाल आपकी जो भी राय हो, यदि आप इस लेख को पढ़ना चाहें तो यहाँ पेश हैः-

हमारे भारतीय समाज में हमेशा चलने वाली एक बहस हिंदी बनाम अंग्रेजी के महत्व की रही है। वृहद स्तर पर देखें तो इस बहस का विस्तार किसी भी भारतीय भाषा बनाम अंग्रेजी और किस प्रकार हमने अंग्रेजी के आगे स्थानीय भाषाओं को गंवा दिया इस तक किया जा सकता है। यह राजनीति प्रेरित मुद्‌दा भी रहा है। हर सरकार हिंदी के प्रति खुद को दूसरी सरकार से ज्यादा निष्ठावान साबित करने में लगी रहती है। नतीजा ‘हिंदी प्रोत्साहन’ कार्यक्रमों में होता है जबकि सारे सरकारी दफ्तर अनिवार्य रूप से हिंदी में सर्कुलर जारी करते हैं और सरकारी स्कूलों की पढ़ाई हिंदी माध्यम में रखी जाती है।

इस बीच देश में अंग्रेजी लगातार बढ़ती जा रही है। बिना प्रोत्साहन कार्यक्रमों और अभियानों के यह ऐसे बढ़ती जा रही है, जैसी पहले कभी नहीं बढ़ी। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि इसमें कॅरिअर के बेहतर विकल्प हैं, समाज में इसे अधिक सम्मान प्राप्त है और यह सूचनाओं व मनोरंजन की बिल्कुल नई दुनिया ही खोल देती है तथा इसके जरिये नई टक्नोलॉजी तक पहुंच बनाई जा सकती है। जाहिर है इसके फायदे हैं।



नव संवत्सर और नवरात्र आरम्भ के मौके पर सुबह से मोबाइल फोन पर शुभकामना संदेश आने लगे। पहले मकर संक्रांति, होली-दीवाली, ईद और नव वर्ष संदेश आए। काफी संदेश हिन्दी में हैं, खासकर मकर संक्रांति और नवरात्रि संदेश तो ज्यादातर हिन्दी में हैं। और ज्यादातर हिन्दी संदेश रोमन लिपि में।
मोबाइल फोन पर चुटकुलों, शेर-ओ-शायरी और सद्विचारों के आदान-प्रदान का चलन बढ़ा है। संता-बंता जोक तो हिन्दी में ही मज़ा देते हैं। रोमन के इस्तेमाल से हिन्दी और अंग्रेजी की मिली-जुली भाषा भी विकसित हो रही है। क्या ऐसा पहली बार हो रहा है?

Tuesday, January 6, 2015

संरचनात्मक निरंतरता की देन है ‘नीति आयोग’

नीति आयोग बन जाने के बाद जो शुरुआती प्रतिक्रियाएं हैं उनके राजनीतिक आयाम को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्य अभी इसके व्यावहारिक स्वरूप को देखना चाहते हैं। इस साल वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्श नहीं हुआ है। असम सरकार ने छठी अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए साधनों को लेकर चिंता व्यक्त की है। वहीं आंध्र सरकार अपनी नीति आयोग बनाने की योजना बना रहा है। तेलंगाना सरकार की समझ कहती है कि अब राज्य को बगैर किसी योजना आयोग की शर्तों से बँधे सीधे धनराशि मिलेगी। देखना यह है कि नीति आयोग का नाम ही बदला है या काम भी बदलेगा। केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय में भी भारी बदलाव होने जा रहे हैं। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बना रहे हैं। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले खंड में अर्थ-व्यवस्था का विश्लेषण और विवेचन होगा। साथ ही इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।

Monday, January 5, 2015

प्राचीन भारत में विज्ञान

मुम्बई में 102वीं साइंस कांग्रेस के दौरान वैदिक विमानन तकनीक पर अपने पर्चे में कैप्टन आनंद जे बोडास ने कहा, 'भारत में सदियों पहले भी विमान मिथक नहीं थे, वैदिक युग में भारत में विमान ना सिर्फ एक से दूसरे देश, बल्कि एक दूसरे ग्रह से दूसरे ग्रह तक उड़ सकते थे, यही नहीं इन विमानों में रिवर्स गियर भी था, यानी वे उल्टा भी उड़ सकते।' केरल में एक पायलट ट्रेनिंग सेंटर के प्रिंसिपल पद से रिटायर हुए कैप्टन बोडास ने अपने पर्चे में कहा, 'एक औपचारिक इतिहास है, एक अनौपचारिक। औपचारिक इतिहास ने सिर्फ इतना दर्ज किया कि राइट बंधुओं ने 1903 में पहला विमान उड़ाया। उन्होंने भारद्वाज ऋषि के वैमानिकी तकनीक को अपने पर्चे का आधार बताया। साइंस कांग्रेस के 102 सालों में पहली बार संस्कृत साहित्य से वैदिक विज्ञान के ऊपर परिचर्चा का आयोजन हुआ है। आयोजकों के मुताबिक यह विषय रखने का मकसद था कि संस्कृत साहित्य के नजरिए से भारतीय विज्ञान को देखा जा सके। इस परिचर्चा में वैदिक शल्य चिकित्सा का भी ज़िक्र हुआ। इस बात के दो पहलू हैं। केप्टेन बोडास की बात मुझे समझ में नहीं आती। सदियों पहले हमारे पूर्वज विमान बनाना जानते थे तो बाद में वे विमान गायब क्यों हो गए? जो समाज विज्ञान के लिहाज से इतना उन्नत था तो वह समाज विदेशी हमलों का सामना क्यों नहीं कर पाया? आर्थिक रूप से पिछड़ा क्यों रह गया वगैरह। विज्ञान कांग्रेस में बोडास का यह पर्चा पेश न किया जाए इसके लिए नासा में भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ राम प्रसाद गांधीरामन ने एक मुहिम भी शुरू की थी। यह पर्चा चूंकि पढ़ा जा चुका है इसलिए अब विज्ञान से जुड़े लोगों को विचार करना चाहिए कि वे कह क्या रहे हैं।

Sunday, January 4, 2015

‘नीति आयोग’ की राजनीति

नए साल पर सरकार ने योजना आयोग की जगह नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया यानी संक्षेप में नीति आयोग बनाने की घोषणा की है। पहले कहा जा रहा था कि नई संस्था का नाम 'व्यय आयोग' होगा। उसके बाद इसका नाम नीति आयोग सुनाई पड़ा, जिसमें नीति माने पॉलिसी था। अब नीति को ज्यादा परिभाषित किया गया है। मोटे तौर पर यह छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति की घोषणा है। इसका असर क्या होगा और नई व्यवस्था किस रूप में काम करेगी अभी स्पष्ट नहीं है। फिलहाल यह कदम प्रतीकात्मक है और व्यावहारिक रूप से संघीय व्यवस्था को रेखांकित करने की कोशिश भी है। कुछ लोगों ने इसे राजनीति आयोग बताया है। बड़ा फैसला है, जिसके राजनीतिक फलितार्थ भी होंगे। कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि इसका नाम न बदले, भले ही काम बदल जाए।

Saturday, January 3, 2015

भारत सौर ऊर्जा पर 100 अरब डॉलर खर्च करेगा

राजस्थान में जयपुर के पास सांभर झील के निकट प्रस्तावित विश्व का सबसे
 बड़ा सौर ऊर्जा प्लांट
रायटर्स की खबर के मुताबिक भारत सरकार ने अगले सात साल में सौर ऊर्जा पर 100 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। लक्ष्य है सौर ऊर्जा की क्षमता एक लाख मेगावाट करना। भारत में सात लाख से 21 लाख मेगावॉट तक सौर बिजली बनाने लायक यानी यूरोपीय देशों के मुकाबले दुगनी धूप उपलब्ध है। हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसार, भारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में 250-300 धूप निकलने वाले दिनों सहित प्रतिदिन प्रति वर्गमीटर 4-7 किलोवाट घंटे का सौर विकिरण प्राप्त होता है। राजस्थान और गुजरात में प्राप्त सौर विकिरण उड़ीसा में प्राप्त विकिरण की अपेक्षा ज्यादा है। देश में 30-50 मेगावाट/ प्रतिवर्ग किलोमीटर छायारहित खुला क्षेत्र होने के बावजूद उपलब्‍ध क्षमता की तुलना में देश में सौर ऊर्जा का दोहन काफी कम है (जो 31-5-2014 की स्थिति के अनुसार 2647 मेगावाट है)। यूपीए सरकार ने सन 2009 में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन योजना की शुरुआत की थी। यह जलवायु परिवर्तन पर राष्‍ट्रीय कार्य योजना के एक हिस्‍से के रूप में थी। इस मिशन का लक्ष्य 2022 तक 20 हजार मेगावाट क्षमता वाली ग्रिड से जोड़ी जा सकने वाली सौर बिजली की स्‍थापना और 2 हजार मेगावाट के समतुल्‍य गैर-ग्रिड सौर संचालन के लिए नीतिगत कार्य योजना का विकास करना है। इसमें सौर तापीय तथा प्रकाशवोल्टीय दोनों तकनीकों के प्रयोग का अनुमोदन किया गया। इस मिशन का उद्देश्‍य सौर ऊर्जा के क्षेत्र में देश को वैश्विक नेता के रूप में स्‍थापित करना है।

इस दिशा में जो महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार किया जा रहा है उसे देखते हुए भारत सौर ऊर्जा के मामले में दुनिया के ज्यादातर देशों से आगे जाना चाहता है। खासतौर से हमें जर्मनी से प्रेरणा मिल रही है, जिसने अपना परमाणु ऊर्जा का कार्यक्रम पूरी तरह समाप्त करने का ऐलान किया है। हाल में हरियाणा सरकार ने बड़े प्लॉटों और मॉल में सौर बिजली संयंत्र लगाना अनिवार्य कर दिया है। पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश सरकारों ने इस मामले में पहल की है। पिछले साल मध्य प्रदेश के नीमच की जावद तहसील के भगवानपुरा (डिकेन) में शुरू हुआ सौर एनर्जी प्लांट एशिया का सबसे बड़ा सौर एनर्जी प्लांट बताया जाता है। इस सबसे बड़ी सौर ऊर्जा परियोजना का शुभारंभ 26 फरवरी 2014 को हुआ था। इसी तरह राजस्थान में सांभर झील इलाके में दुनिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा प्लांट लगाया जा रहा है।

सौर ऊर्जा संयंत्र महंगे होते हैं, पर भारत सरकार को लगता है कि जब बड़े स्तर पर उन्हें लगाया जाएगा तो एक समय के बाद वे सस्ते पड़ेंगे। अनुमान है कि इतने बड़े स्तर पर सौर ऊर्जा प्लांट लगाने से तीन साल के भीतर ताप बिजलीघरों के मुकाबले उनकी लागत का अंतर खत्म हो जाएगा। उनसे उत्पादित बिजली की लागत कम होगी और यह बिजली पर्यावरण-मित्र भी होगी। रायटर की खबर के अनुसार Solar energy in India costs up to 50 percent more than power from sources like coal. But the government expects the rising efficiency and falling cost of solar panels, cheaper capital and increasing thermal tariffs to close the gap within three years.,,,Foreign companies say they are enthused by Modi's personal interest, but red tape is still an issue. "The policy framework needs to be improved vastly. Documentation is cumbersome. Land acquisition is time-consuming. Securing debt funding in India and financial closures is a tough task," said Canadian Solar's Vinay Shetty, country manager for the Indian sub-continent.

पूरी खबर पढ़ें रायटर्स की वैबसाइट पर





Thursday, January 1, 2015

कैलेंडर नहीं, समय की चाल को देखिए

 देश की सवा अरब की आबादी में पाँच से दस करोड़ लोगों ने कल रात नए साल का जश्न मनाकर स्वागत किया. इतने ही या इससे कुछ ज्यादा लोगों को पता था कि नया साल आ गया है, पर वे इस जश्न में शामिल नहीं थे. इतने ही लोगों ने किसी न किसी के मुँह से सुना कि नया साल आ गया है और उन्होंने यकीन कर लिया. इतने ही और लोगों ने नए साल की खबर सुनी, पर उन्हें न तो यकीन हुआ और न अविश्वास. इस पूरी संख्या से दुगनी तादाद ऐसे लोगों की थी, जिन्हें किसी के आने और जाने की खबर नहीं थी. उनकी यह रात भी वैसे ही बीती जैसे हर रात बीतती थी.