Thursday, April 25, 2024

फलस्तीनी-एकता के प्रयास और बाधाएं

इस्माइल हानिये और एर्दोआन

 देस-परदेस

दो लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग। इसका पहला भाग यहाँ पढ़ें

पिछले छह महीने से गज़ा में चल रही लड़ाई में हमास के संगठन और सैनिक-तंत्र को भारी क्षति पहुँची है. वह उसकी भरपाई कर पाएगा या नहीं, यह तो वक्त बताएगा, पर यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि फलस्तीनी एकता को लेकर हमास की राय क्या है. हमास और फतह गुट की प्रतिद्वंद्विता से एक मायने में इसराइल को राहत मिली है, क्योंकि अब उसपर फतह का दबाव कम है.

हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप के अधीन फलस्तीन अथॉरिटी अलोकप्रिय होने लगी. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे इसराइल के प्रति नरम माना गया. प्राधिकरण, भ्रष्टाचार का शिकार भी था. 2004 में यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के पास करिश्माई नेतृत्व भी नहीं बचा.

एक जमाने तक अरफात का गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य समूह था. उसने ही इसराइलियों के साथ समझौता किया था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमास गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.

दोनों का फर्क

दोनों में अंतर क्या है?  यह अंतर वैचारिक है और रणनीतिक भी. फतह एक तरह से पुरानी लीक के सोवियत साम्यवादी संगठन जैसा है और हमास का जन्म मुस्लिम-ब्रदरहुड से हुआ है. फतह ने इसराइल को स्वीकार कर लिया है और इसराइल ने उसे. दूसरी तरफ हमास और इसराइल के बीच कोई रिश्ता नहीं है. दोनों एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते.

अभी तक हमास और इसराइल के बीच आमतौर पर मध्यस्थ की भूमिका क़तर ने निभाई है, पर अब क़तर कह रहा है कि हम अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे. लगता यह भी है कि तुर्की की इच्छा इस भूमिका को निभाने में है. पर क्या वह फलस्तीनी गुटों के बीच भी मध्यस्थ की भूमिका भी निभा पाएगा?

शनिवार 20 अप्रेल को हमास के प्रमुख इस्माइल हनिये तुर्की में थे. इस्तानबूल में उनकी तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन से करीब चार घंटे तक बात हुई. एर्दोआन का कहना था कि फलस्तीनी एकता बहुत जरूरी है.

इसके पहले इस साल फरवरी में फतह और हमास गुटों के प्रतिनिधियों के बीच मॉस्को में तीन दिन तक बातचीत हुई थी. ऐसी ही एक वार्ता 2017 में भी मॉस्को में ही हुई थी. पश्चिम एशिया की राजनीति में रूस भी भूमिका निभा रहा है. अफगानिस्तान के घटनाक्रम में भी रूस ने भूमिका निभाई थी. अब पश्चिम एशिया में जो चल रहा है, उसमें रूस और चीन की परोक्ष या प्रत्यक्ष भूमिकाओं पर भी नज़रें रखनी होंगी.

एकता-सरकार

पिछले साल 28 दिसंबर को फलस्तीनियों के पाँच संगठनों ने एक एकता सरकार बनाने की घोषणा की थी. इन पाँच में दो इस्लामिक समूह, हमास और फलस्तीनी इस्लामिक जिहाद तथा पीएलओ से संबद्ध रहे तीन छोटे मार्क्सवादी समूह शामिल थे. इन पाँचों से सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की घोषणा की.  

गज़ा की प्रशासनिक-व्यवस्था में इसराइल, हमास को किसी भी प्रकार की भूमिका देने को तैयार नहीं है. मिस्र चाहता है कि महमूद अब्बास का फतह-गुट और हमास आपस में मिलकर काम करें. मिस्र ने गज़ा के विसैन्यीकरण की तीन चरणों वाली योजना भी बनाई है. क़तर और मिस्र जैसे मध्यस्थों के बीच भी राजनीतिक-प्रतिद्वंद्विता है.

अब सुनाई पड़ रहा है कि हमास यूनिटी सरकार की अवधारणा पर विचार के लिए तैयार हो रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि सुधरी और पुनर्गठित फलस्तीनी अथॉरिटी को गज़ा की सत्ता सौंपी जा सकती है. पर इस बात की गारंटी कौन देगा कि वहाँ चरमपंथी विचारों को फिर से पैर ज़माने का मौका नहीं मिलेगा?

एकता की कोशिशें

इसराइल के साथ कभी कोई समझौता हुआ भी तो किसके नेतृत्व में होगा? अप्रेल 2014 में फलस्तीनियों के दोनों बड़े गुटों के बीच एकता का समझौता हुआ. हमास और फतह अस्थायी एकता सरकार गठित करने और चुनाव कराने की सहमति पर पहुंच गए थे और दोनों पक्षों ने दशकों पुरानी रंजिश खत्म करने की घोषणा की थी. यह सहमति मिस्र की मध्यस्थता में हासिल हुई थी.

बैठक में तय हुआ था कि सीमित जनादेश के साथ अस्थायी सरकार बनेगी, चुनाव की तारीख तय होगी. मिस्र इसके बाद सभी फलस्तीनी गुटों की काहिरा में एक बैठक बुलाएगा जिसमें सुलह समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएंगे.

ऐसा हुआ नहीं, पर एकता प्रयासों की बैठकें होती रहीं. नवीनतम बैठक 13 अक्तूबर, 2022 को अल्जीयर्स में हुई थी, जिसमें फतह और हमास सहित फलस्तीनियों के 14 संगठनों ने राष्ट्रपति पद और संसद के चुनाव एक साल के भीतर कराने का फैसला किया था.

हमास का असर

2014 में महमूद अब्बास के एकता-प्रयास को इसराइल ने पसंद नहीं किया. उसे हमास से नफरत है. उस समय भी इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू थे. उन्होंने आक्रोश के साथ कहा था कि अब्बास इसराइल के साथ शांति या हमास से दोस्ती में से किसी एक को चुनें.

नेतन्याहू ने यह भी कहा कि इस प्रकार के समझौते से हमास के लिए पश्चिमी तट पर भी नियंत्रण स्थापित करने का रास्ता साफ होगा जहाँ फलस्तीनी प्राधिकरण का मुख्यालय है. ऐसा हो भी रहा है. पश्चिमी किनारे पर हमास का प्रभाव बढ़ रहा है.

इसराइल चाहता था कि फतह गुट ग़ज़ा में सुरक्षा की जिम्मेदारी ले, जहाँ से हमास रॉकेट के वार करता रहा है. एक बार को स्थिति नियंत्रण में हो तो पूर्ण फलस्तीन की स्थापना पर आगे बातचीत की जाए. फतह ने इसराइल को और इसराइल ने फलस्तीन को स्वीकार कर लिया है.

जरूरी है कि इस विचार को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए. अब जब गज़ा पूरी तरह तबाही की ओर है, परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी हैं. हालांकि वहाँ लड़ाई चल ही रही है, पर वह रुकी भी, तो पहला काम पुनर्निर्माण का होगा और दूसरा वहाँ की प्रशासनिक-व्यवस्था पर नियंत्रण का. कौन देखेगा वहाँ की व्यवस्था?

गज़ा पट्टी में प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे काफी काम संरा राहत एवं कार्य एजेंसी (यूएनआरडब्लूए) करती है. इसराइल को इस एजेंसी के कार्यकर्ताओं से भी शिकायत है. 2005 में गज़ा पट्टी से इसराइल की वापसी के बाद कुछ समय के लिए अथॉरिटी और हमास की संयुक्त प्रशासनिक-व्यवस्था चली थी, पर 2006 में हमास ने अथॉरिटी को चुनाव में ही परास्त किया और 2007 में पूरी तरह तख्ता पलट हुआ और सत्ता हमास के हाथ में आ गई.

शांति का रोडमैप

1993 के ओस्लो समझौते के बाद लगता था कि समाधान का छोर मिल गया है. वह फलस्तीनी प्राधिकरण की स्थापना से जुड़ा था. ओस्लो समझौते के बाद पश्चिम एशिया में शांति को लेकर उत्साह इतना बढ़ा कि 2002 में अमेरिका के विदेश विभाग के अधिकारी डोनाल्ड ब्लोम ने ‘शांति का रोडमैप’ भी तैयार कर दिया, जिसमें अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, रूस और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका थी.

24 जून, 2002 को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा, इसराइल के साथ-साथ एक स्वतंत्र फलस्तीन की स्थापना होनी चाहिए. फिर 14 नवंबर को बुश प्रशासन ने उसका एक मसौदा जारी किया, जिसका अंतिम पाठ 30 अप्रेल, 2003 को जारी किया गया. 9/11 के बाद 2001 में जॉर्ज बुश के ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ के तहत शुरू हुई, यह परियोजना अपने पहले चरण में ही दम तोड़ गई और फिर दुबारा किसी ने उसका ज़िक्र नहीं किया.

फलस्तीन अथॉरिटी

ऑस्लो सम्मेलन के बाद 1994 में फलस्तीन राष्ट्रीय प्राधिकरण बना. मूलतः यह पाँच साल के लिए अंतरिम व्यवस्था थी, जिसे अंततः पूर्ण देश के रूप में तैयार होना था. वह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई. 2002 में फलस्तीन अथॉरिटी (पीए) ने एक अंतरिम संविधान भी बनाया था, जिसमें 2005 में कुछ संशोधन किए गए थे. तब से वही व्यवस्था चल रही है. पीए की राजधानी जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित रामल्ला में है.

फलस्तीन को मुख्यधारा में लाने की कोशिशें ऑस्लो समझौते के पहले से शुरू हो गई थीं. अमेरिका ने फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र के गैर-सदस्य पर्यवेक्षक देश के रूप में स्वीकार कर लिया था. पिछले साल अक्तूबर में गज़ा में लड़ाई शुरू होने के पहले की स्थिति यह थी कि जॉर्डन नदी का पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र फतह के नियंत्रण में था और गज़ा पट्टी पर हमास का कब्जा था. फलस्तीनी प्राधिकरण का प्रभाव आज भी पश्चिमी किनारे तक ही सीमित है, पर वहाँ भी हमास का प्रभाव बढ़ रहा है.

औपचारिक रूप से महमूद अब्बास फलस्तीन के राष्ट्रपति हैं, जिनके पास यासर अरफात की विरासत है. बावजूद इसके हमास और इसराइल दोनों उनके आलोचक हैं. मध्यमार्गी तबका या तो है नहीं और है, तो कमजोर है.

फलस्तीनी अथॉरिटी में जबर्दस्त भ्रष्टाचार है और हमास-नियंत्रित ग़ज़ा पट्टी में जीवन अराजक है. 2006 में फलस्तीनी संसद के और 2008 में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए थे. तब से स्थिति जस की तस है. फलस्तीन को पूरे देश का दर्जा देने की प्रक्रिया रुकी हुई है.

अरब रुख में बदलाव

वर्तमान टकराव मई 2021 के टकराव का ही अगला रूप है. उस समय हमास ने इसराइल पर रॉकेटों से वार तभी किए थे. उस समय भी लग रहा था कि पश्चिम एशिया में स्थायी शांति के आसार पैदा हो रहे हैं. अरब देशों का इसराइल के प्रति कठोर रुख बदलने लगा था. तीन देशों ने उसे मान्यता दे दी थी और संभावना इस बात की थी कि सऊदी अरब भी उसे स्वीकार कर लेगा.

अरब-इसराइल संबंध-सुधार के संकेत नवंबर, 2017 में तब मिले थे, जब इस आशय की खबरें आईं कि अरब देशों और इसराइल के बीच गुपचुप बातचीत चल रही है. 13-14 फरवरी 2019 को पोलैंड की राजधानी वॉरसा में अमेरिका की पहल पर पश्चिम एशिया सम्मेलन हुआ.

इसके बाद यह बात खुलकर सामने आ गई कि खाड़ी के देश इसराइल के साथ रिश्ते बेहतर बना रहे हैं. इस सम्मेलन में खासतौर से सऊदी अरब, यूएई और ओमान के प्रतिनिधियों की उपस्थिति थी. फिर 13 अगस्त, 2020 को अमेरिकी मध्यस्थता में अब्राहमिक समझौते की घोषणा हुई.

इसराइल और यूएई के साथ बाद में इसमें बहरीन भी शामिल हो गया. संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने 29 अगस्त को 48 साल पुराने 'इसराइल बहिष्कार क़ानून' को खत्म करने की घोषणा की, तो किसी को हैरत नहीं हुई. (पूर्ण)

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

हमास की वामपंथी आलोचना के लिए इस लेख को भी पढ़ें

 

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