Tuesday, March 1, 2016

ग्रामीण भारत को ‘मेगापुश’

मोदी सरकार ने चार राज्यों के चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जरूरतों का पूरा करने वाला बजट पेश किया है. इसमें सबसे ज्यादा जोर ग्रामीण क्षेत्र, इंफ्रास्ट्रक्चर, रोजगार और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर है. राजकोषीय घाटे को 3.5 प्रतिशत रखने के बावजूद सोशल सेक्टर के लिए धनराशि का इंतजाम किया गया है. अजा-जजा उद्यमियों के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम भी इसका संकेत देते हैं. बजट का संदेश है कि अमीर ज्यादा टैक्स दें, जिसका लाभ गरीबों को मिले. हालांकि सरकार ने पूँजी निवेश के लिए प्रोत्साहन योजनाओं की घोषणा की है, पर कॉरपोरेट जगत में कोई खास खुशी नजर नहीं आती.

Wednesday, February 24, 2016

सरकारी पेशबंदी बनाम विपक्षी घेराबंदी

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण के साथ ही मंगलवार को संसद के बजट सत्र शुरू हो गया। पिछले सत्रों की तरह ही इस बार भी बड़े विपक्षी दल जेएनयू और दूसरे मुद्दों पर सरकार को घेरने की योजना बना रहे हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकारी पेशबंदी भी दिखाई पड़ती है। राष्ट्रपति ने प्रतीकों के सहारे मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को संसद के सामने रखा है। उन्होंने कहा कि हमारी संसद जनता की आकांक्षा को व्यक्त करती है। लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए।

Tuesday, February 23, 2016

क्या मोदी सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाला?

प्रमोद जोशी


भारतीय संसदImage copyrightAP
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जादवपुर विश्वविद्यालय तक छात्र आंदोलन और जींद से झज्जर तक जाट आंदोलन ने केंद्र सरकार को बड़े नाजुक मौके पर साँसत में डाल दिया है.
संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है और चार राज्यों में चुनाव के नगाड़े बज रहे हैं.
जेएनयू के आंदोलन को देखकर लगता है कि मोदी सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.
Image copyrightTarendra
Image caption'रष्ट्रद्रोह' बनाम 'राष्ट्रभक्ति' का मुद्दा उठा सकती है भाजपा
राष्ट्रवाद और देश-द्रोह की बहस में मोदी सरकार अपने फ़ायदे का सौदा देख रही है, पर पार्टी के भीतर की एकता सुनिश्चित नहीं है.
जब भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह नेतृत्व बैकफुट पर आया है, पार्टी के ‘दिलजलों’ ने खुशियाँ मनाई हैं.
साल 2002 के बाद से ही नरेंद्र मोदी अपने विरोधियों के निशाने पर हैं. पर पहले उन्हें अपने राज्य और राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन मिलता था.
उनकी आज की रणनीति यही है कि ‘कोर वोटर’ उनकी ढाल बने. पर मामला पूरे देश का है, एक प्रदेश का नहीं.
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Image captionरोहित वेमुला के समर्थन में रैली
बहरहाल मोदी ने ‘विरोधियों की साजिश’ की ओर इशारा किया है.
कन्हैया के मुक़ाबले रोहित वेमुला की आत्महत्या से पार्टी ज्यादा घबराई हुई है. उसे उत्तर प्रदेश के दलित वोटरों की फ़िक्र है. दलित वैसे उसके पारंपरिक वोटर नहीं हैं, पर उनके एक हिस्से को वह अपनी ओर खींचना चाहती है.
उधर जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ बिगड़ती बात एक बार फिर ढर्रे पर आ रही है.
यह सत्र कांग्रेस को आख़िरी मौका देगा. उसके पास ज्यादा समय नहीं है.
बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंजImage copyrightGetty
इस साल जून के बाद राज्यसभा की 76 सीटों पर चुनाव होंगे. समझा जाता है कि कांग्रेस की स्थिति पहले के मुक़ाबले कमज़ोर होगी. यह आने वाले वर्षों में और क़मजोर हो सकती है.
भाजपा को फ़ायदा हुआ भी तो इस बजट सत्र में तो नहीं होगा.
मोदी सरकार युवा उम्मीदों की जिस लहर पर सवार थी, वह लहर अब उतार पर है.

Thursday, February 18, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य और 'आजादी' की रेखा

भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी. या भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह. क्या ये नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? या इन्हें लगाने वालों को गोली मार देनी चाहिए जैसा कि भाजपा के विधायक ओपी शर्मा ने कहा है? दोनों बातें अतिवादी हैं. इस दौरान देश-द्रोह का सवाल खड़ा हुआ है. क्या अपने विचार व्यक्त करना देश-द्रोह है? क्या जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया के खिलाफ देश-द्रोह की धाराएं लगाना न्यायसंगत है? या इस घटना मात्र से हम जेएनयू को देश-द्रोही घोषित कर दें? दूसरे सवाल भी हैं. कन्हैया ने नारे लगाए भी या नहीं? नहीं लगाए, पर क्या वे इस माहौल के जिम्मेदार नहीं हैं? नारे लगाने वालों के खिलाफ वे क्यों नहीं बोले? जिन वीडियो के आधार पर हम अपनी राय दे रहे हैं वे क्या सही हैं? इस तकनीकी दौर में वीडियो बनाए भी जा सकते हैं. इन वीडियो की फोरेंसिक जाँच होनी चाहिए. पर सच यह है कि किसी ने नारे लगाए, जिन्हें पूरे देश ने सुना. एक तरफ नारेबाजी हुई तो दूसरी तरफ पटियाला हाउस में वकीलों ने मीडियाकर्मियों पर हमले करके मामले को दूसरी तरफ मोड़ दिया. अब जेएनयू की नारेबाजी पीछे चली गई, जबकि वह एक महत्वपूर्ण सवाल था.

Sunday, February 14, 2016

मुख्यधारा की राजनीति का थिएटर बना जेएनयू

दिल्ली में दो जगह भारत विरोधी नारे लगे। इसके पहले कश्मीर से अकसर खबरें आती थीं कि वहाँ भारत विरोधी नारे लगे या भारतीय ध्वज का अपमान किया गया। कश्मीर के साथ पूरे देश का अलगाव अच्छी तरह स्पष्ट है। इस अलगाव का विकास हुआ है। जो स्थितियाँ 1947 में थी वैसी ही आज नहीं हैं। इसमें नब्बे के दशक में चले हिंसक आंदोलन की भूमिका भी है, जो अफगानिस्तान के तालिबानी उभार की पृष्ठभूमि में चला था। पाकिस्तानी राजनीति के केन्द्र में कश्मीर है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में भी कश्मीर को होना चाहिए था, क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सफलता तभी है जब हमारे बीच मुस्लिम बहुमत वाला कश्मीर राज्य हो। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि कश्मीर स्वतंत्र देश के रूप में खड़ा नहीं हो पाया। पर जेएनयू प्रकरण का कश्मीरी सवाल से वास्ता नहीं है। वहाँ कश्मीर समस्या को लेकर बहस नहीं है, बल्कि खुलकर मुख्य धारा की राजनीति हो रही है। ऐसा ही हैदराबाद में हुआ, जहाँ असली सवाल पीछे रह गया।