Wednesday, February 24, 2016

सरकारी पेशबंदी बनाम विपक्षी घेराबंदी

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण के साथ ही मंगलवार को संसद के बजट सत्र शुरू हो गया। पिछले सत्रों की तरह ही इस बार भी बड़े विपक्षी दल जेएनयू और दूसरे मुद्दों पर सरकार को घेरने की योजना बना रहे हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकारी पेशबंदी भी दिखाई पड़ती है। राष्ट्रपति ने प्रतीकों के सहारे मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को संसद के सामने रखा है। उन्होंने कहा कि हमारी संसद जनता की आकांक्षा को व्यक्त करती है। लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए।


राष्ट्रपति का अभिभाषण मूलतः सरकारी वक्तव्य होता है। सरकार विपक्ष को ललकार रही है कि वह सदन को स्थगित कराने के बजाय मुद्दों को लेकर चर्चा में आए। लोकसभा में सरकार अपने संख्याबल से विपक्ष को काबू में करने में सफल है, पर राज्यसभा में स्थिति सरकार के पक्ष में नहीं है। यह बात सरकार के महत्वपूर्ण कारिंदे किसी न किसी रूप में व्यक्त करते रहते हैं। पिछले साल के बजट सत्र के मुकाबले इस साल के बजट सत्र तक हालात बदल चुके हैं। संसद के मॉनसून और शीत सत्र में कांग्रेस ने छापामार रणनीति का सहारा लिया है। उसने मोदी सरकार के उन महत्वपूर्ण फैसलों पर पलीता लगा दिया है, जिनसे वह श्रेय लेने की कोशिश करती।

राष्ट्रपति ने ऋग्वेद के सूक्त आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः के उद्धरण के साथ कहा, अच्छे विचारों को सभी दिशाओं से आने दो। इतनी महान संस्था का सदस्य होना सम्मान का विषय है। इस सम्मान के साथ सदस्यों के कुछ दायित्व भी बनते हैं। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उधृत करते हुए कहा कि हमारा राष्ट्रवाद मानवता के उच्चतम मूल्यों सत्यम, शिवम, सुन्दरम से अनुप्राणित है। हम अपने मूल्यों पर चलना चाहिए। हमारी सरकार वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श वाक्य को स्वीकार करती है।

इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन के सुचारु रूप से चलने की उम्मीद जताते हुए विपक्ष से सहयोग माँगा था। यह सत्र सरकार की अग्नि परीक्षा का सत्र होगा। साथ ही कांग्रेस के अस्तित्व के लिए भी यह सत्र महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। बजट सत्र के बाद जब इस साल का मॉनसून सत्र होगा तब राज्यसभा में कांग्रेस की ताकत घट चुकी होगी। कितनी कम होगी, यह अभी कहना मुश्किल है, पर इतना साफ है कि कम होगी। इस साल जून जुलाई तक राज्यसभा की 76 सीटें खाली होंगी और नए सदस्य आएंगे।

सत्र के दौरान सरकार कुछ जरूरी विधेयकों को पास कराने की कोशिश करेगी। और विपक्ष जेएनयू, जाट आरक्षण, कानून-व्यवस्था, आर्थिक मोर्चे पर असफलता और महंगाई जैसे मसलों पर सरकार को घेरने की कोशिश करेगी। भाजपा सरकार को इसमें दिक्कत नहीं है, बशर्ते उसके महत्वपूर्ण विधेयक पास हो जाएं। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सोमवार को इस उद्देश्य से सर्वदलीय बैठक की। संसदीय कार्य मंत्री वैंकैया नायडू ने भी सभी दलों से बातचीत की। इसके पहले शुक्रवार को राज्यसभा के सभापति उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी सर्वदलीय बैठक की। सरकार ने कहा कि हम हर विषय पर बहस के लिए तैयार हैं। शर्त है कि संसद को चलने दिया जाए।

संसदीय पद्धति में संसद को चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। सदन में गतिरोध भी संसदीय कर्म माना जाता है। जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में होती थी, तब उसने भी कांग्रेस को काफी नाच-नचाया था। अब उसका स्वाद उसे खुद लेना पड़ रहा है। व्यवहारिक सच यह है कि सदन को ठीक से चलाने के लिए तमाम बातें बैकरूम राजनीति का हिस्सा होती हैं। विपक्ष को भी सरकार से बनाकर रखना पड़ता है।

पिछले मॉनसून सत्र से सरकार साँसत में है। व्यापम मामले और ललित मोदी प्रकरण में पूरा सत्र बेकार हो गया। शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं रहा। शीत सत्र की शुरुआत  संविधान दिवस की चर्चा से हुई। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने भारतीय संविधान के प्रारूप को पास किया था। मोदी सरकार ने 26 नवम्बर को संविधान दिवस मनाने का फैसला किया। इसके लिए दोनों सदनों में पहले दो दिन विशेष चर्चा हुई जिसमें अच्छी-अच्छी बातें सुनने को मिलीं। प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों बड़े विनम्र भाव से विपक्ष का सहयोग माँगा। उसके बाद सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ मोदी जी की चाय पर चर्चा भी हुई, पर वही ढाक के तीन पात।

अब जेनयू से जादवपुर तक छात्र नाराज हैं। रोहित वेमुला के मामले ने अब भी जोर पकड़ रखा है। जाटों के आरक्षण आंदोलन ने सरकार की नींद उड़ा दी है। चार राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। हालांकि राष्ट्रवाद और देश-द्रोह की बहस में मोदी सरकार को काफी सम्भावनाएं नजर आ रहीं हैं, पर पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों ने मीडियाकर्मियों पर हमला करके सरकार की मुसीबत बढ़ा दी है। मोदी सरकार राजनीतिक सवालों में घिरती जा रही है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने बदनाम करने की किसी साजिश की ओर इशारा किया है।

मोदी सरकार जिस युवा उम्मीदों की जिस लहर पर सवार थी, वह वापस लौटने लगी है। शेयर बाजार रूठा है, रुपए की गिरावट जारी है। मेक इन इंडिया के जश्न के बीच वोडाफोन को पुराने टैक्स की भरपाई के नोटिस से विदेशी निवेशकों का माथा ठनका है। कांग्रेस इसका फायदा क्यों नहीं उठाना चाहेगी। पर कैसे? संसदीय गतिरोध तो इसका जवाब नहीं है। सच यह है कि लोकसभा में कांग्रेस के पास अच्छे वक्ता नहीं हैं। राहुल गांधी कुछ मौकों पर आते हैं, पर उनका प्रभाव खास नहीं हैं।

इस हफ्ते तीन महत्वपूर्ण दस्तावेज सरकार की छवि को बनाएंगे या बिगाड़ेंगे। अर्थ-शास्त्रियों का कहना है कि सरकार ने आर्थिक सुधारों का काम रोक रखा है। सुधारों का मतलब है कड़वे फैसले। पर सरकार लोक-लुभावन फैसलों से कैसे बचेगी? राष्ट्रीय बैंकों का काफी पैसा पूंजीपतियों के पास दबा पड़ा है। उसे निकालने और बैंकों का स्वास्थ्य सुधारने की जरूरत है। आर्थिक और प्रशासनिक मोर्चे पर सरकार के सामने चुनौतियाँ हैं वहीं सांस्कृतिक मोर्चे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भगवाकरण की जल्दी। संघ परिवार, पार्टी-संगठन और सरकार सबकी दिशा एक नहीं है। संघ और सरकार के एजेंडा में एकरूपता नहीं है।

अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति ने कहा कि भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम में कड़े संशोधन किए जा रहे हैं ताकि भ्रष्टाचार विरोधी कानून में बचाव की कोई गुंजाइश ही न हो। मेरी सरकार ने जहां एक ओर भ्रष्टाचार की गुंजाइश को समाप्त करने के उपाय किए हैं, वहीं भ्रष्ट व्यक्तियों को दंड देने में भी कोई नरमी नहीं बरती है।’ संस्थाओं को बेहतर बनाने, प्रक्रियाओं को सरल बनाने तथा पुराने कानूनों को हटाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। लगभग 1800 पुराने कानूनों को समाप्त करने की प्रक्रिया जारी है। नरेन्द्र मोदी ने दावा किया है कि सरकार निर्णय प्रक्रिया में भ्रष्टाचार की संभावनाओं को पूरी तरह समाप्त करेगी। पर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक विकास दर को तेज करने और रोजगार के अवसर बढ़ाने की भी है।

सरकार बनने के फौरन बाद सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव की प्रक्रिया शुरू की। उसे समझ में आया कि यूपीए सरकार ने जो कानून पास किया है उसके कारण विकास कार्यों के लिए भूमि अधिग्रहण लगभग असम्भव हो गया है। पर पार्टी ने अपनी ताकत को गलत आँक लिया और इसके लिए विपक्ष से बात नहीं की। उसने इसके लिए अध्यादेश का सहारा लिया, पर वह अब तक अपने विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाई है। सबसे बड़ा अड़ंगा राज्यसभा में है।

यही स्थिति जीएसटी विधेयक की है। इन दोनों के अलावा ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण, औद्योगिक (विकास और नियमन) तथा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के वेतन से जुड़े विधेयक भी राज्यसभा में पड़े हैं। भ्रष्टाचार रोकथाम, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआई एक्ट जैसे विधेयकों का अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार काम-काज के लिहाज से पिछले साल का बजट सत्र पिछले 15 साल में सबसे अच्छा था। पर उसके बाद के दोनों सत्र नाकामयाब रहे। शीत सत्र में राज्यसभा ने केवल 50 फीसदी समय का ही इस्तेमाल किया। वह भी तब जब सभापति हामिद अंसारी ने सत्र खत्म होने के तीन दिन पहले सभी सदस्यों की बैठक बुलाकर उन्हें संसदीय कर्म को पूरा करने की प्रेरणा दी।


अब बजट सत्र ठीक से चले इसके लिए कोशिशें हो रहीं हैं। इतना तय है कि इस सत्र के 16 मार्च को खत्म होने वाले पहले भाग में जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों पर विचार नहीं होगा। दोनों बजटों और आर्थिक समीक्षा के अलावा बाकी समय राजनीतिक सवालों पर चर्चा होगी। जेएनयू के अलावा कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति, पत्रकारों पर हमले, रोहित वेमुला, अरुणाचल का घटनाक्रम और किसानों की दशा पर भी बहस होगी। लोकतंत्र के लिए इन बहसों की जरूरत है, पर साथ-साथ स्वस्थ संसदीय कर्म भी चाहिए। इसीलिए राष्ट्रपति ने कहा है कि सदन हंगामे के लिए नहीं बने हैं।  

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