हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?
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Wednesday, October 31, 2018
जनता के मसले कहाँ हैं इस चुनाव में?
हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?
Wednesday, October 17, 2018
उत्तर भारत पर प्रदूषण का एक और साया
पिछले कुछ वर्षों का
अनुभव है कि जैसे ही हवा में ठंडक पैदा हुई उत्तर भारत में प्रदूषण का खतरा पैदा
होने लगता है. पंजाब और हरियाणा के किसान फसल काटने के बाद बची हुई पुआल यानी पौधों
के सूखे डंठलों-ठूंठों को खेत में ही जलाते हैं. इससे दिल्ली समेत पूरा उत्तर भारत
गैस चैंबर जैसा बन जाता है. मौसम में ठंडक आने से हवा भारी हो जाती है और वह ऊपर
नहीं उठती. उधर इसी मौसम में दशहरे और दीपावली के त्योहार भी होते हैं. इस वजह से
माहौल धुएं से भर जाता है. इस साल भी वह खतरा सामने है.
दिल्ली में हवा
धीरे-धीरे बिगड़ने लगी है. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, केंद्र सरकारों और प्रदूषण
नियंत्रण से जुड़ी एजेंसियों के बार-बार हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं.
किसानों पर जुर्माने लगाने और सज़ा देने की व्यवस्थाएं की गई हैं. वे जुर्माना
देकर भी खेतों में आग लगाते हैं. कहीं पर व्यावहारिक दिक्कतें जरूर हैं. बहरहाल मौसम
विभाग ने आने वाले दिनों के लिए अलर्ट जारी कर दिया है. अब इंतजार इस बात का है कि
हवा कितनी खराब होगी और सरकारें क्या करेंगी.
Monday, October 1, 2018
तीखे अंतर्विरोध और अदालती फैसले
आधुनिकता की ओर बढ़ता हमारा देश कई प्रकार के
अंतर्विरोधों से भी जूझ रहा है. पिछले हफ्ते हमारे सुप्रीम कोर्ट ने कम के कम छह
ऐसे फैसले किए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ
हैं. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा का कार्यकाल इस हफ्ते खत्म हो रहा है. वे देश के
पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना
दी गई. उसकी दस्तक सुप्रीम कोर्ट में भी हुई. उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए,
जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं. इनमें जज लोया और अयोध्या के
मामले शामिल हैं.
इस हफ्ते के ज्यादातर फैसलों के भी प्रत्यक्ष
और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ हैं. पर दो मामले ऐसे हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों
और परम्परागत समाज के अंतर्विरोधों से जुड़े हैं. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने
समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया था. लगभग उसी
प्रकार का एक फैसला इस हफ्ते व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से जुड़ा है. हमारे देश
में व्यभिचार आईपीसी की धारा 497 के तहत अपराध है, पर यह धारा केवल पुरुषों पर
लागू होती है. इसे रद्द करने की माँग पुरुषों को राहत देने के अनुरोध से की गई थी.
अलबत्ता अदालत ने इसे स्त्रियों के वैयक्तिक अधिकार से भी जोड़ा है.
Tuesday, September 18, 2018
मोदी के ‘स्वच्छाग्रह’ के राजनीतिक मायने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 सितंबर से ‘स्वच्छता ही सेवा अभियान’ शुरू किया है, जो 2 अक्टूबर तक चलेगा. इस 2
अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वाँ जयंती वर्ष भी शुरू हो रहा है. व्यापक अर्थ
में यह गांधी के अंगीकार का अभियान है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी
हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गांधी, पटेल और लाल
बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. उनके कार्यक्रमों पर चलने की
घोषणा भी की है. यह एक प्रकार की 'सॉफ्ट राजनीति' है. इसका प्रभाव वैसा ही है, जैसा योग दिवस का है. मोदी ने गांधी को अंगीकार किया है, जिसका विरोध कांग्रेस नहीं कर सकती.
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31
अक्टूबर को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण
भी करेंगे, जो दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा है. पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी
सरकार ने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीना है. उनके
‘स्वच्छ भारत अभियान’ का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी
के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने ‘स्वच्छाग्रह’ शब्द का इस्तेमाल किया.
Tuesday, September 11, 2018
सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका
धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के
बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी
अखबार ने शीर्षक दिया है ‘इंडिपेंडेंस
डे-2’ यानी कि
यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में
ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों
की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने ‘पापाचार’
को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि
समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
Wednesday, August 29, 2018
आक्रामक राहुल गांधी
राहुल गांधी ने हाल में जर्मनी और ब्रिटेन में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिन्हें लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयानों को देश-विरोधी बताया है, वहीं किसी ने राहुल के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया है. मुजफ्फरपुर में इस केस को दायर करने वाले का आरोप है कि राहुल ने देश का अपमान किया है. राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. इसके जवाब में बीजेपी की ओर से कहा गया कि उन्हें भारत की अभिकल्पना के साथ धोखा बंद करना चाहिए. राहुल गांधी ने जर्मनी के हैम्बर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी और लोगों के अंदर पनपे ग़ुस्से के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं होने लगी हैं. उनका यह भी कहना था कि विश्व में कहीं भी लोगों को विकास की प्रक्रिया से दूर रखा जाता है तो आईएस जैसे गुटों को बढ़ावा मिलता है.
पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
Saturday, August 18, 2018
अटल ने बीजेपी की स्थायी 'विरोधी' छवि को तोड़कर उसे सत्तारूढ़ बनाया
बीजेपी सत्ता में नहीं होती तो शायद अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर इतना जबर्दस्त शोक-प्रदर्शन न हुआ होता. इस शोक प्रदर्शन में कई तरह के लोग हैं, पर मोटे तौर पर दो तरह के लोगों को पहचाना जा सकता है. पहले हैं भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक और दूसरे हैं भारतीय जनता पार्टी के विरोधी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसकों में बड़ी संख्या उनके विरोधियों की भी रही है, पर आज काफी लोग वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में भी अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं. वे रेखांकित कर रहे हैं कि अटल क्यों गुणात्मक रूप से मोदी-व्यवस्था से भिन्न थे. यह फर्क अटल की समन्वयवादी रीति-नीति और देश की सामाजिक बहुलता के प्रति दृष्टि के कारण है. अटल बिहारी वाजपेयी ने यह साबित किया कि बीजेपी भी देश पर राज कर सकती है. उसे स्थायी विपक्ष के स्थान पर सत्ता-पक्ष बनाने का श्रेय उन्हें जाता है. उन्होंने वह सूत्र पकड़ा, जिसके कारण कांग्रेस देश की एकछत्र पार्टी थी. इस बात का विश्लेषण अभी लम्बे समय तक होगा कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है या बीजेपी, पर यह भी सच है कि आजादी के ठीक पहले तक कांग्रेस को हिन्दू पार्टी माना जाता था. तब बीजेपी थी भी नहीं. उनका निधन ऐसे मौके पर हुआ है, जब बीजेपी के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हैं. बेशक अटल के नाम पर बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा. देखना यह भी होगा कि पार्टी अटल की उदारता और सहिष्णुता की विरासत को आगे बढ़ाने के बारे में सोचेगी या नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद रात के टेलीविजन शो में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी, जो अटल बिहारी वाजपेयी के कटु आलोचक हुआ करते थे, तारीफ करते नजर आए. उनकी राय थी कि अटलजी उदार और व्यावहारिक नेता थे. हालांकि इनमें से काफी लोग उन्हें तब भी फासिस्ट बताते थे. आज वे उन्हें उदार मान रहे हैं, तो इसके दो कारण हैं. हमारी संस्कृति में निधन के बाद व्यक्ति की आलोचना नहीं करते, पर यह राजनीति का गुण नहीं है. पिछले डेढ़ दशक की राजनीति के ठोस सत्य से रूबरू होने के बाद यह वास्तव में दिल की आवाज है.
अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.
अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.
Saturday, August 11, 2018
तमिल-राजनीति में एक और ब्रेक
करीब पाँच दशक तक
तमिलनाडु की राजनीति के शिखर पर रहने वाले एम करुणानिधि के निधन के बाद करीब बीस
महीने के भीतर राज्य की राजनीति में बड़ा ब्रेक आया है. इसके पहले दिसम्बर 2016
में जे जयललिता का निधन पहली बड़ी परिघटना थी. गौर से देखें दोनों परिघटनाओं के
इर्द-गिर्द एक नई तमिल राजनीति जन्म ले रही है. कालांतर में तमिल राजनीति दो
ध्रुवों में बँट गई थी, पर इन दोनों ध्रुवों के नायकों के चले जाने के बाद सवाल
पैदा हो रहे हैं, जिनके जवाब अब मिलेंगे. सन 2019 के चुनाव के लिए होने वाले
गठबंधनों में उनकी तस्वीर नजर आएगी.
इन दो दलों के
नजरिए से देखें तो द्रमुक की स्थिति बेहतर लगती है, क्योंकि करुणानिधि ने विरासत का फैसला जीते
जी कर दिया था, जबकि अद्रमुक में विरासत की लड़ाई जारी है. करुणानिधि ने पार्टी की
कमान एमके स्टैलिन को सौंप जरूर दी है, पर वे उनकी कुव्वत का फैसला वक्त करेगा. वे
अपने पिता की तरह कद्दावर नेता साबित होंगे या नहीं? इससे भी बड़ा
सवाल है कि क्या तमिलनाडु की स्थितियाँ पचास के दशक जैसी हैं, जब द्रविड़ आंदोलन
ने अपने पैर जमाए थे? तमिल-राजनीति को ज्यादा
बड़े फलक पर देखने की जरूरत है. पर उसकी पृष्ठभूमि को समझना भी उपयोगी होगा.
Thursday, August 2, 2018
असम के सवाल पर संयम की जरूरत
असम में राष्ट्रीय नागरिकता
रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हैं. इनमें दो प्रतिक्रियाएं
राजनीतिक हैं. तीसरी इस समस्या के
समाधान को लेकर चिंतित नागरिकों की है. हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह और असम के
मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने स्पष्ट किया है कि जिन 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में
नहीं हैं, उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, पर राजनीतिक स्तर पर हो रही बयानबाजी के कारण बेवजह का तनाव फैल रहा है. यह सब 2019 के चुनाव की पृष्ठपीठिका है. इससे ज़ाहिर यह हो रहा है कि राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर भी राजनीति कितने निचले स्तर पर जा सकती है. अब तक की आधिकारिक स्थिति यह है कि सूची में नाम नहीं होने के कारण किसी
को विदेशी नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा. सम्भव है कि आने वाले समय में कुछ नाम अलग हो जाएं, तब हम क्या करेंगे, इसपर विचार करना चाहिए. दिक्कत इस मसले के राजनीतिकरण के कारण खड़ी हो रही है. आग में में घी डालने का काम अमित शाह और ममता बनर्जी दोनों ने किया है.
अभी तक किसी भी स्तर पर यह तय नहीं हुआ है कि असम में कितने अवैध नागरिक हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह
है कि यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में चल रही है. मंगलवार को अदालत ने
एनआरसी से बाहर रह गए 40 लाख से ज्यादा लोगों से कहा है कि उन्हें चिंता करने की
जरूरत नहीं है. अदालत ने केंद्र को निर्देश दिया है इन लोगों के खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. बाहर रह गए लोगों की आपत्तियां निष्पक्ष रूप से दर्ज करें
और इसके लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन किया जाना चाहिए. अदालत के
सामने 16 अगस्त तक एसओपी की रूपरेखा पेश कर दी जाएगी. सांविधानिक दायरे में और
मानवीय प्रश्नों को सामने रखकर ही अंततः कोई फैसला होगा.
Tuesday, July 24, 2018
2019 की बहस का आग़ाज़
मोदी सरकार के
खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का गिरना खबर नहीं है, क्योंकि इसे पेश करने वाले भी
जानते थे कि पास होने वाला नहीं. से लेकर तीन किस्म की जिज्ञासाएं थीं. एक, एनडीए
के पक्ष में कितने वोट पड़ेंगे, दूसरे विरोधी दलों की एकता कितनी मजबूती से खड़ी
दिखाई पड़ेगी और तीसरे, क्या लोकसभा चुनाव के लिए कोई मूमेंटम इससे बनेगा? शुक्रवार को इस बहस के
लिए सात घंटे का समय रखा गया था, पर चर्चा 12 घंटे चली.
पूरी बहस का उल्लेखनीय
पहलू है, दोनों तरफ की जबर्दस्त नाटकीयता और शोर. लगता है कि 2019 के चुनाव का
अभियान शुरू हो गया है. यह अविश्वास प्रस्ताव तेलगु देशम की ओर से आंध्र को लेकर
था, पर ज्यादातर वक्ताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया. सारा ध्यान बीजेपी और कांग्रेस
पर रहा. राहुल गांधी का निशाना मोदी पर था और मोदी का राहुल पर.
Thursday, July 19, 2018
संसदीय कर्म की दिशाहीन राजनीति
लोकसभा चुनाव समय से हुए तो संसद के तीन सत्र
उसके पहले हो जाएंगे. इन तीनों सत्रों में सत्तापक्ष और विपक्ष की जोर-आजमाइश अपने
पूरे उभार पर देखने को मिलेगी. इसका पहला संकेत बुधवार से शुरु हुए मॉनसून सत्र
में देखने को मिल रहा है और अभी मिलेगा. इसकी शुरुआत मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास
प्रस्ताव के नोटिस से हुई है. राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद और लोकसभा
में कांग्रेस के सदन के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी के फैसले का ऐलान करते
हुए कहा था कि 15 पार्टियां हमारे
साथ हैं. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे विचार के लिए स्वीकार कर लिया है. प्रस्ताव पर चर्चा शुक्रवार 20 जुलाई को होगी. लगता
है कि यह सत्र ही नहीं अगले चुनाव तक देश की राजनीति इस प्रस्ताव के इर्द-गर्द
रहेगी.
इस पहल की केंद्रीय राजनीति जरूर विचारणीय है. यह
नोटिस तेदेपा की ओर से दिया गया है और इसके पीछे आंध्र को विशेष राज्य के दर्जे से
वंचित किए जाने को महत्वपूर्ण कारण बताया गया है. अविश्वास प्रस्ताव एक
लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और इसके बहाने देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर
चर्चा भी होती है. यह नोटिस क्षेत्रीय राजनीति की ओर से दिया गया है. बेहतर होता
कि यह राष्ट्रीय सवालों को लेकर आता और कांग्रेस इसे लाती. बेशक सवाल राष्ट्रीय
उठेंगे, पर इसकी प्रेरणा क्षेत्रीय राजनीति से आई है. आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने से ज्यादा बड़े सवाल हैं अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन में बढ़ती कटुता और मॉब लिंचिंग जैसी अराजकता. बहरहाल इसके पीछे की जो भी राजनीति हो, हमें अच्छी संसदीय बहस का इंतजार करना चाहिए.
Wednesday, July 4, 2018
सोशल मीडिया की दुधारी तलवार
इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वॉटसएप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को आगाह किया है कि वे अफवाहबाज़ी को रोकने में आगे आएं. उनका यह कदम ठीक है, पर व्यावहारिक सच यह है कि वॉटस्एप सिर्फ औजार है. असली जिम्मेदार वे लोग हैं, जो इसका इस्तेमाल नकारात्मक कार्यों के लिए कर रहे हैं. वे अपराधी हैं और इन अफवाहों से प्रेरित-प्रभावित होकर हिंसा पर उतारू उन्मादी भीड़ भी अपराधी है. इस पागलपन को रोकने के लिए सरकार को कड़ा संदेश देना चाहिए. आने वाले समय में तकनीक सामाजिक व्यवस्था को और भी खोलने जा रही है. वह अब सामान्य व्यक्ति को आसानी से और कम खर्च पर भी उपलब्ध होगी. लोकतांत्रिक-व्यवस्था के संचालन और सामाजिक जीवन को पारदर्शी बनाने के लिए इसकी जरूरत भी है, पर व्यक्ति के निजी जीवन और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा भी होनी चाहिए. इसके लिए राज्य और सामाजिक व्यवस्था को सोचना चाहिए.
चाकू
डॉक्टर के हाथ में हो, तो वह जान बचा सकता है. गलत हाथ में हो, तो जान ले लेता है.
सोशल मीडिया पर भी यह बात लागू होती है. ग्रामीण इलाकों में चेतना फैलाने और
सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सोशल मीडिया का सहारा ले
रहे हैं. हाल में खबरें थीं कि कश्मीर के डॉक्टरों का एक समूह वॉट्सएप के जरिए हृदय
रोगों की चिकित्सा के लिए आपसी विमर्श का सहारा लेता है. वहीं कश्मीर के आतंकी
गिरोह अपनी गतिविधियों को चलाने और किशोरों को भड़काने के लिए सोशल मीडिया का
सहारा ले रहे हैं.
हाल
में असम, ओडिशा, गुजरात, त्रिपुरा, बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और
महाराष्ट्र से खौफनाक आईं हैं. ज्यादातर मामले झूठी खबरों से जुड़े हैं, जिनके फैलने
से उत्तेजित भीड़ ने हत्याएं कर दीं. ऐसे मामलों की संख्या भी काफी बड़ी है, जिनमें
मौत नहीं हुईं, पर लोगों को पीटा गया. बहुत सी खबरें पुलिस की जानकारी में आईं भी
नहीं. जिस तरह सन 2012 में रेप के खिलाफ जनांदोलन खड़ा हुआ था, लिंचिंग के खिलाफ
वैसा आंदोलन भी खड़ा नहीं होने वाला. ज्यादातर मरने वाले गरीब लोग
हैं.
Wednesday, June 20, 2018
कश्मीर में एक अध्याय का खत्म होना
इसे
संकट भी कह सकते हैं और सम्भावना भी. राज्य में जो हालात थे,
उन्हें देखते हुए इस सरकार को घसीटने का कोई मतलब नहीं था. बेशक राष्ट्रपति शासन
के मुकाबले लोकतांत्रिक सरकार की उपादेयता ज्यादा है, पर सरकार डेढ़ टाँग से नहीं
चलेगी. जम्मू कश्मीर में तीन साल पुराना पीडीपी-भाजपा गठबंधन टूट गया है. पिछले
तीन साल में कई मौके आए, जब गठबंधन टूट सकता था. इतना साफ है कि रमजान के महीने के
युद्धविराम की विफलता के कारण वहाँ सरकार को हटना पड़ा. युद्धविराम से उम्मीदें
पूरी नहीं हुईं. सवाल है कि सरकार अब क्या करेगी? क्या कठोर कार्रवाई के रास्ते पर जाएगी या बातचीत की राह
पकड़ेगी? उम्मीद करें
कि जो भी होगा, बेहतर होगा.
सरकार
से इस्तीफा देने के बाद महबूबा मुफ्ती ने कहा कि हमारे गठबंधन का बड़ा मकसद था.
हमने सब कुछ किया. हमारी कोशिश से प्रधानमंत्री लाहौर तक गए. हमने राज्य की विशेष
स्थिति को बनाए रखा. हमने कोशिश की कि सूबे में हालात बेहतर बनें. पर यहाँ
जोर-जबर्दस्ती की नीति नहीं चलेगी. महबूबा के शब्दों में बीजेपी के प्रति किसी
प्रकार की कटुता नहीं थी. उन्होंने अपने समर्थकों को समझाने की कोशिश की है कि इससे
ज्यादा हम कुछ कर नहीं सकते थे.
Sunday, June 17, 2018
प्रशासन में नए जोश का संचार कैसे?
अस्सी
के दशक में जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, उन्हें एक रोज एक अपरिचित
व्यक्ति का पत्र मिला. वह व्यक्ति अमेरिका की किसी संस्था में वैज्ञानिक था और
उसके पास भारत के आधुनिकीकरण की एक योजना थी. राजीव गांधी ने उसे अपने पास बात के
लिए बुलाया और अपना महत्वपूर्ण सलाहकार बना लिया. सत्यनारायण गंगा राम पांचाल उर्फ
सैम पित्रोदा किस प्रकार एक सामान्य परिवार से वास्ता रखते थे और फिर किस तरह वे
देश की तकनीकी क्रांति के सूत्रधार बने, यह अलग कहानी है, पर उसका एक सबक यह है कि
उत्साही और नवोन्मेषी व्यक्तियों के लिए रास्ते बनाए जाने चाहिए.
हाल
में भारत सरकार ने अखबारों में इश्तहार दिया है कि उसे दस ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तियों
की तलाश है, जिन्हें राजस्व, वित्तीय सेवाओं, आर्थिक विषयों, कृषि, सहकारिता एवं कृषक कल्याण, सड़क परिवहन और राजमार्ग, नौवहन, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन, नवीन एवं अक्षय ऊर्जा, नागरिक विमानन और वाणिज्य के क्षेत्रों
में महारत हो, भले
वे निजी क्षेत्र से क्यों न हों. इन्हें सरकार के संयुक्त सचिव के समतुल्य पद पर
नियुक्त किया जाएगा. यह एक प्रयोग है, जिसे लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने
आईं हैं.
Wednesday, June 6, 2018
संघ से क्या कहेंगे प्रणब मुखर्जी?
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में
होने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम के संदर्भ में यह कहकर पहेली को
जन्म दे दिया है, कि जो कुछ भी मुझे कहना है,
मैं नागपुर में कहूंगा. अब कयास इस बात
के हैं कि प्रणब दादा क्या कहेंगे? वे जो भी कहेंगे दो कारणों से महत्वपूर्ण होगा. एक, संघ के बारे में उनकी
धारणा स्पष्ट होगी. दूसरे, राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद वे दलगत राजनीति से
बाहर हैं. क्या उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता के लिए देश में ऐसा कोई स्पेस है, जहाँ
से वे अपनी स्वतंत्र राय दे सकें?
Saturday, May 26, 2018
चार साल में ‘ब्रांड’ बन गए मोदी
केन्द्र सरकार की पिछले चार साल की उपलब्धि है
नरेन्द्र मोदी को ब्रांड के रूप में स्थापित करना. पिछले चार साल की सरकार यानी ‘मोदी सरकार.’ स्वतंत्रता के बाद की यह सबसे ज्यादा व्यक्ति-केन्द्रित सरकार है. विरोधी-एकता
के प्रवर्तक चुनाव-पूर्व औपचारिक गठबंधन करने से इसलिए कतरा रहे हैं, क्योंकि उनके
सामने एक नेता खड़ा करने की समस्या है. जो नेता हैं, वे आपस में लड़ेंगे, जिससे एकता
में खलल पड़ेगा, दूसरे उनके पास नरेन्द्र मोदी के मुकाबले का नेता नहीं है.
पिछले चार वर्षों को राजनीति, प्रशासन,
अर्थ-व्यवस्था, विदेश-नीति और संस्कृति-समाज के धरातल पर परखा जाना चाहिए. सरकार
की ज्यादातर उपलब्धियाँ सामाजिक कार्यक्रमों, प्रशासनिक फैसलों और विदेश-नीति से
और अधिकतर विफलताएं सांविधानिक-प्रशासनिक संस्थाओं को कमजोर करने और सामाजिक
ताने-बाने से जुड़ी हैं. गोहत्या के नाम पर निर्दोष नागरिकों की हत्याएं हुईं. दलितों
को पीटा गया वगैरह. सरकार पर असहिष्णुता बढ़ाने के आरोप लगे.
Tuesday, May 22, 2018
कर्नाटक से बना विपक्षी एकता का माहौल
कर्नाटक के चुनाव ने 2019 के लोकसभा चुनाव के
नगाड़े बजा दिए हैं. बुधवार को बेंगलुरु के कांतिवीरा स्टेडियम में होने वाला
समारोह एक प्रकार से बीजेपी-विरोधी मोर्चे का उद्घाटन समारोह होगा. एचडी कुमारस्वामी
ने समारोह में राहुल गांधी, सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, एमके स्टालिन, अजित सिंह जैसे तमाम
राजनेताओं को बुलावा भेजा है. इसमें शायद शिवसेना भी शामिल होगी, जो औपचारिक रूप
से एनडीए के साथ है. समारोह में शिरकत मात्र से गठबंधन नहीं बनेगा, पर ‘मूमेंटम’ जरूर बनेगा.
Wednesday, May 16, 2018
हाथी निकला, पूँछ रह गई
टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव
परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी
पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़
गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस ‘किंगमेकर’ बनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में
कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर
येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है,
पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.
Wednesday, May 9, 2018
संशय में कर्नाटक का मुस्लिम वोट
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिगा
वोट के अलावा जिस बड़े वोट आधार पर विश्लेषकों की निगाहें हैं, वह है मुसलमान। मुसलमान
किसके साथ जाएगा? अलीगढ़ में जब
मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर घमासान मचा है, उसी वक्त कर्नाटक में
कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में है कि वह मुसलमानों की सच्चे हितैषी है। पर
कांग्रेस इस वोट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसे डर है कि मुसलमानों का वोट
कहीं बँट न जाए। इस वोट को लेकर उसका मुकाबला एचडी देवेगौडा की जेडीएस से है।
कर्नाटक की सभाओं में राहुल गांधी मुसलमानों से कह रहे हैं कि जेडीएस बीजेपी की ‘बी’ टीम है, उससे बचकर रहना।
कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोट कुल मिलाकर 30 फीसदी के
आसपास है। इसमें 13-14 फीसदी वोट मुसलमानों का है। जेडीएस ने मायावती की बहुजन
समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन
(एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन किया है। सवाल है कि क्या जेडीएस इस वोट बैंक का लाभ
उठा पाएगी?
Thursday, May 3, 2018
सामाजिक-टकराव के दौर में पत्रकारिता
मई
की महीना वैश्विक और हिन्दी-पत्रकारिता की दो तारीखों के लिए याद किया जाता है. हर
साल 3 मई को दुनिया ‘प्रेस-फ्रीडम
डे’ मनाती है. और 30 मई को हम ‘हिन्दी पत्रकारिता दिवस’ मनाते हैं. मौका है कि
हम अपने बारे में बात करें. वैश्विक-पत्रकारिता विसंगतियों से गुज़र रही है. संचार-तकनीक
में क्रांतिकारी बदलाव आया है. सोशल मीडिया ने सबको अपनी बात कहने का मौका दिया
है. वहीं ‘फेक-न्यूज़’ ने मीडिया के नकारात्मक पहलू को उजागर किया
है. हाल में टाइम्स ऑफ इंडिया एमडी विनीत जैन ने ‘फेक-न्यूज़’ को लेकर कई ट्वीट किए.
‘फेक-न्यूज़’ पर चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने टाइम्स
ऑफ इंडिया की एक खबर की हैडलाइन को नकारात्मक अर्थों में बदल कर सोशल मीडिया पर
चला दिया. विनीत जैन ने इस छेड़छाड़ के मास्टर-माइंड को खोज निकालने की घोषणा की
है. शायद वे सफल हो जाएं, पर इससे ‘फेक-न्यूज़’ का खतरा खत्म नहीं होगा. पिछले चार सौ साल
में पत्रकारिता और लोकतंत्र का साथ-साथ विकास हुआ है. दोनों एक-दूसरे पूरक हैं.
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