इसे
संकट भी कह सकते हैं और सम्भावना भी. राज्य में जो हालात थे,
उन्हें देखते हुए इस सरकार को घसीटने का कोई मतलब नहीं था. बेशक राष्ट्रपति शासन
के मुकाबले लोकतांत्रिक सरकार की उपादेयता ज्यादा है, पर सरकार डेढ़ टाँग से नहीं
चलेगी. जम्मू कश्मीर में तीन साल पुराना पीडीपी-भाजपा गठबंधन टूट गया है. पिछले
तीन साल में कई मौके आए, जब गठबंधन टूट सकता था. इतना साफ है कि रमजान के महीने के
युद्धविराम की विफलता के कारण वहाँ सरकार को हटना पड़ा. युद्धविराम से उम्मीदें
पूरी नहीं हुईं. सवाल है कि सरकार अब क्या करेगी? क्या कठोर कार्रवाई के रास्ते पर जाएगी या बातचीत की राह
पकड़ेगी? उम्मीद करें
कि जो भी होगा, बेहतर होगा.
सरकार
से इस्तीफा देने के बाद महबूबा मुफ्ती ने कहा कि हमारे गठबंधन का बड़ा मकसद था.
हमने सब कुछ किया. हमारी कोशिश से प्रधानमंत्री लाहौर तक गए. हमने राज्य की विशेष
स्थिति को बनाए रखा. हमने कोशिश की कि सूबे में हालात बेहतर बनें. पर यहाँ
जोर-जबर्दस्ती की नीति नहीं चलेगी. महबूबा के शब्दों में बीजेपी के प्रति किसी
प्रकार की कटुता नहीं थी. उन्होंने अपने समर्थकों को समझाने की कोशिश की है कि इससे
ज्यादा हम कुछ कर नहीं सकते थे.
राजनीतिक
दृष्टि से राज्य में या तो बीजेपी-पीडीपी की सरकार रह सकती है या राज्यपाल शासन.
और कोई विकल्प नहीं है. यह भी समझना होगा कि बीजेपी ने समर्थन वापस क्यों लिया और
उसकी भविष्य की योजना क्या है. केंद्र की पहली जिम्मेदारी कानून-व्यवस्था की
स्थिति को सामान्य बनाने की है. बीजेपी यदि पीडीपी के साथ सरकार में बनी रहती, तो उसके
समर्थकों की नाराजगी बढ़ती. बीजेपी कश्मीर का बोझ अपने ऊपर लेकर अगला लोकसभा चुनाव
नहीं लड़ सकती. उसकी छवि का सवाल भी खड़ा होता. फिलहाल अब इतना बदलाव होगा कि प्रशासन
के दो स्वर नहीं होंगे.
राज्य
में बीजेपी के प्रभारी राम माधव के अनुसार पिछले दिनों जो घटनाएं हुई हैं, उन पर तमाम इनपुट लेने के बाद
प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का निष्कर्ष है कि गठबंधन का चलना संभव
नहीं. नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि हालात को आहिस्ता-
आहिस्ता दुरुस्त करना होगा. इसके लिए हम राज्यपाल का पूरा समर्थन करेंगे. लेकिन राष्ट्रपति
शासन लम्बा नहीं चलना चाहिए. हम चाहेंगे कि राज्य में नए सिरे से जल्द से जल्द
चुनाव हो.
कश्मीर
के बारे में उधर पाकिस्तान के साथ भी बातों की सम्भावना बन रही है, पर ऐसी कोई भी
बात वहाँ 27 जुलाई के बाद चुनी जाने वाली नई सरकार से ही हो सकेगी. इधर भारत में
भी चुनाव की बेला करीब आ रही है. इस लिहाज से कश्मीर में कम से कम एक डेढ़ साल का
संधिकाल निर्धारित हो गया है, जो राष्ट्रपति शासन के जिम्मे रहेगा. वर्तमान
विधानसभा का कार्यकाल दिसम्बर 2020 तक है. ऐसे में वहाँ अगले ढाई साल तक
राज्यपाल-शासन को चलाना भी उचित नहीं होगा, पर चुनाव कराने के पहले
यह भी देखना होगा कि वहाँ चुनाव कराने के हालात हैं भी या नहीं.
पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या और नियंत्रण रेखा पर
लगातार बिगड़ते हालात को देखते हुए अब सख्त कदम उठाने की जरूरत है. इस महीने
अमरनाथ यात्रा भी शुरू होने वाली है. सबसे पहले उसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी करनी
होगी. इसलिए सबसे बड़ी भूमिका एकबार फिर सेना की होगी. राम माधव ने कहा, रमजान के महीने में हमने युद्ध
विराम किया, पर उसका कोई फायदा नहीं हुआ. न तो इसका असर आतंकवादियों पर पड़ा और न
हुर्रियत पर.
कश्मीर
की यह सरकार अपने आप में अजूबा थी, क्योंकि दो विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों
ने करीब साढ़े तीन साल तक सरकार को चलाया. सच यह है कि वहाँ भविष्य में भी ऐसी
सरकारें ही बनेंगी. कम से कम तब तक बनेंगी जब तक कोई अकेली ऐसी पार्टी सामने न आए
जो जम्मू और घाटी दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय हो. हो सकता है ऐसा भी कभी हो, पर वर्तमान स्थितियों में जो हुआ है वह कुछ
लोगों को अजूबा भले लगे, पर अपरिहार्य था.
भारत
का सबसे बड़ा राजनीतिक अंतर्विरोध जम्मू-कश्मीर में है. सरकार बनाने के पहले दोनों
पक्षों ने जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर दस्तखत किए थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज
है. कश्मीर एक जटिल समस्या है. राज्य की जनता अलग-अलग तरह से सोचती है, पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव एकमात्र विकल्प
है. हमें स्वीकार करना चाहिए कि भविष्य में भी राज्य का जनादेश खंडित होगा. राज्य
की राजनीति खंडित है. इस टूट के बीच में से रास्ता निकालने के लिए जनवरी 2015 में तकरीबन
एक महीने तक भाजपा के महासचिव राम माधव और पीडीपी के नेता हसीन अहमद द्राबू के बीच
चंडीगढ़, जम्मू और दिल्ली में गठबंधन की
बारीकियों पर चर्चा हुई थी. दोनों पक्ष अपने राजनीतिक जनाधार को समझते थे और अपने
कार्यकर्ता के मन को भी.
कश्मीर
में समझौता केवल सत्ता की साझेदारी का समझौता नहीं था. इसमें जम्मू-कश्मीर के भीतर
नियंत्रण रेखा के आर-पार सद्भाव और विश्वास पैदा करने की बात कही गई थी. बताया
जाता है कि हसीन अहमद द्राबू ने इस बात पर जोर दिया था कि अटल बिहारी वाजपेयी के
कार्यकाल में कश्मीर के राजनीतिक समूहों के साथ शुरू की गई बातचीत का जिक्र भी
किया जाए, जिसमें हुर्रियत भी शामिल थी. इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की भावना से इस संवाद
को फिर से शुरू करने की बात कही गई थी.
अब
यह गठबंधन इतिहास बन गया है, पर जरूरत कश्मीर के भविष्य के बारे में विचार करने की
है. हाल के वर्षों में वहाँ पत्थर मार आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, जिसे सीमा पार से शह
मिल रही है. पर उसे रोकने के लिए कश्मीर के भीतर से भी समर्थन चाहिए. क्या वह
समर्थन मिलेगा, इसे देखने की जरूरत है. फिलहाल वहाँ एक राजनीतिक अध्याय खत्म हुआ
है और दूसरा अध्याय शुरू होने जा रहा है.
inext में प्रकाशित
sateek charcha. kam hi log nispaksha likhte hai.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व शरणार्थी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteशानदार और बेहद संतुलित। बधाई सर।
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