पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में
होने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम के संदर्भ में यह कहकर पहेली को
जन्म दे दिया है, कि जो कुछ भी मुझे कहना है,
मैं नागपुर में कहूंगा. अब कयास इस बात
के हैं कि प्रणब दादा क्या कहेंगे? वे जो भी कहेंगे दो कारणों से महत्वपूर्ण होगा. एक, संघ के बारे में उनकी
धारणा स्पष्ट होगी. दूसरे, राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद वे दलगत राजनीति से
बाहर हैं. क्या उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता के लिए देश में ऐसा कोई स्पेस है, जहाँ
से वे अपनी स्वतंत्र राय दे सकें?
प्रणब मुखर्जी ने कहा है, इस कार्यक्रम के
संदर्भ में मेरे पास कई पत्र आए और कई लोगों ने फोन किया. मैंने किसी का जवाब नहीं
दिया. इन पत्रों की ध्वनि यह है कि उनकी इस कार्यक्रम में भागीदारी से देश के
धर्मनिरपेक्ष माहौल पर गलत असर पड़ेगा. हाल
के वर्षों में कांग्रेस ने संघ-विरोध को अपनी राजनीति का केन्द्र-बिन्दु बनाया है.
आज वह राजनीति अपने चरम पर है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता
पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं को अंगीकार किया है. ये तीन हैं
गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री. मोदी-विरोधी
मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है. पर एक जगह पर
जाकर यह कांग्रेस के भीतरी विमर्श की प्रतिच्छाया है. वह विमर्श आजादी के फौरन बाद
चला था.
बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह
लेना. दो साल पहले अरुण शौरी ने कहीं कहा था, बीजेपी
माने कांग्रेस+गाय. महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी देश की ‘सामाजिक
बहुलता’ के पुजारी और नरेंद्र मोदी के ‘राजनीतिक हिन्दुत्व’ के मुखर विरोधी हैं. पिछले
वर्ष उन्होंने अपने एक लेख में लिखा, जाने-अनजाने
कांग्रेस की पटेल से किनाराकशी गलती थी, और
हिन्दुत्व का सोच-समझकर पटेल को अंगीकार करना अभिशाप है.
कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से कभी नहीं कहा कि
वह पटेल से किनाराकशी कर रही है, पर कहीं न कहीं यह बात है. कांग्रेस पार्टी में
शुरू से ही कई तरह की ताकतें सक्रिय थीं. उसमें वामपंथी थे, तो दक्षिणपंथी भी थे. पटेल का निधन 1950 में हो गया. वे ज्यादा समय
तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर
आता है कि कांग्रेस के भीतर वैचारिक मतभेद थे. प्रकारांतर से ये मतभेद बाद के
वर्षों में दूसरे रूप में सामने आए.
भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई. उसके एक
साल पहले पटेल का निधन हो चुका था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों की धारणा
है कि पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो
जनसंघ बनती ही नहीं. सरदार पटेल ने संघ को कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए
आमंत्रित किया था. उन्होंने कहा था, संघ
के लोग चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं. वे अपने देश को
प्यार करते हैं. आप डंडे से संघ को खत्म नहीं कर पाएंगे.
पटेल की पहल पर 10 नवम्बर 1949 को कांग्रेस
कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे
संघ के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था. यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ
जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे. नेहरू के वापस आने के बाद अगले ही हफ्ते 17 नवम्बर
को वह प्रस्ताव खारिज हो गया.
पटेल का अंगीकार केवल मोदी के दिमाग की उपज
नहीं है. कांग्रेस पार्टी अपने आप में महागठबंधन है और उसके भीतर विमर्श चलता रहता
है. नेहरू और उनके समकालीन नेताओं के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने
की कोशिश नहीं की गई. नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे. दोनों नेताओं की
आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी. फिर भी दोनों ने इन
मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं.
पटेल और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से
यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति
से हटने की बात सोचने लगा था. विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय था. जब तक
गांधी जीवित थे,
ये अंतर्विरोध सुलझते रहे. नेहरू-पटेल
और गांधी के बीच एक बैठक प्रस्तावित थी, जो
कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद पटेल ज्यादा समय जीवित रहे
नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई.
प्रणब मुखर्जी के इस कार्यक्रम में जाने से
कांग्रेस की उस आंतरिक बहस का कोई सीधा सम्बंध नहीं है, पर पार्टी का एक तबका इसे
संघ को वैधानिकता प्रदान करने का प्रयास जरूर मानेगा. दूसरी तरफ पी चिदंबरम मानते
हैं कि इस बात का इंतजार करना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी कहते क्या हैं. क्या वे कोई
कड़वी बात कहेंगे? या
वे ऐसी बात जो संघ को मुख्यधारा से जोड़े?
नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री
बने उस वक्त प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे. कांग्रेस और मोदी के बीच तकरार अपने चरम
पर रही है, पर प्रणब मुखर्जी और मोदी के रिश्ते अच्छे रहे. एकतरफा नहीं, दोनों तरफ
से थे. पिछले साल जब प्रणब मुखर्जी विदा हो रहे थे, मोदी ने उन्हें पिता-तुल्य
बताया. पहली नजर में यह सामान्य औपचारिकता लगती है, पर दूसरी नजर में दोनों नेताओं
का एक दूसरे की तारीफ करना कुछ बातों की याद दिला देता है.
एक समारोह में मोदी ने
कहा था, ‘जब मैं दिल्ली आया, तो मुझे गाइड करने के
लिए मेरे पास प्रणब दा मौजूद थे. मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे
प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में खुद को स्थापित करने का मौका
मिला.’ इन बातों का संघ के कार्यक्रम से कोई रिश्ता नहीं है, पर यकीनन प्रणब दादा
इस वक्त देश के वरिष्ठतम नेताओं में से एक हैं और समूची राजनीति को एक ऊँचे धरातल
से देख रहे हैं. इस लिहाज से उनके शब्दों को गौर से सुनना और समझना होगा.
inext में प्रकाशित
संघ का एक ही लक्ष्य है भारत्त को विश्व में सम्मान दिलाना और उसे मजबूत बनाना, किसी भी समझदार व्यक्ति को फिर संघ से परहेज क्यों होना चाहिए
ReplyDelete