Wednesday, February 26, 2025

हिंदी का विस्तार और उसकी विसंगतियाँ


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हिंदी के विस्तार, यानी अखिल-भारतीय स्वरूप के साथ, उसकी स्वीकृति और विरोध की दोतरफा प्रवृत्तियाँ एक साथ जन्म ले रही हैं। ये प्रवृत्तियाँ भी भारत में हिंदी के हृदय-क्षेत्र, परिधि-क्षेत्र और परिधि के पार वाले क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की हैं। खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से हिंदी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिंदी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। सच यह भी है कि हिंदी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिंदी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिंदी को समझने वाले काफी पहले से हैं। 

हिंदी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है, पर वह बोलने, संपर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा तक सीमित है। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिंदी का बाजार छोटा है। हिंदी-राष्ट्रवाद का भौगोलिक-आधार अब वही नहीं है, जो सौ साल पहले था. तब हिंदी का हृदय-क्षेत्र बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, आगरा और बरेली जैसे शहर थे।

आज हिंदी मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद में बोली जा रही है और हैरत नहीं होगी कि अगले कुछ वर्षों में चेन्नई में भी सड़कों पर उसे बोलने-समझने वाले मिलें। इसकी वजह है वे प्रवासी कामगार, जो अपना घर छोड़कर इन दूरदराज इलाकों में काम करने जाते हैं। हिंदी-क्षेत्र के लोगों की भी कुछ जिम्मेदारियाँ बनती हैं। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अंग्रेजी का पल्लू पकड़ लिया है। अधकचरी अंग्रेजी का।

हिंदी की विसंगतियाँ 

हिंदी के इलाके में भाषा से जुड़े मसले हैं। स्वतंत्रता से पहले इस इलाके में हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी से जुड़े सवाल थे। स्वतंत्रता के बाद राजभाषा के रूप में बनती नई हिंदी के सवाल इसमें जुड़े। तकनीकी शब्दावली की संस्कृतनिष्ठा को चुनौती दी गई, वहीं रोमन लिपि में लिखी जा रही हिंग्लिश ने चुनौती या संभावना के नए दरवाज़े खोले। उच्च शिक्षा, खासतौर से इंजीनियरी और मेडिकल शिक्षा की भाषा को लेकर सवाल खड़े हुए, वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने जब हिंदी में मेडिकल पुस्तकें तैयार कीं, तो उन्हें लेकर सवाल सामने आए।

गैर-हिंदी इलाकों में राजभाषा-हिंदी ‘थोपने’ से जुड़े सवाल ज्यादा हैं। ये सवाल तमिलनाडु में शिद्दत से उठते हैं, जिसने तीन भाषा के विचार को स्वीकार नहीं किया है। हाल के वर्षों में कर्नाटक में भी हिंदी-विरोध बढ़ा है। हर साल 14 सितंबर को जब केंद्र सरकार हिंदी-दिवस मनाती है, सोशल मीडिया पर उसी रोज कुछ ट्विटर हैंडल हिंदी के विरोध में अपनी आवाज उठाते हैं। उसे ‘स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन’ या ऐसे ही हैशटैग से जोड़ा जाता है। नई जनगणना में देरी हो रही है, पर जैसे ही जनगणना में भाषा से जुड़े आँकड़े प्रकाशित होंगे, एक नई समस्या सामने आएगी। देश में संसदीय चुनाव-क्षेत्रों का नया परिसीमन इसी आधार पर होगा, जिससे हिंदी-क्षेत्र से सीटें काफी बढ़ जाएँगी।

दूसरी तरफ दक्षिण में तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम भाषी इलाकों ने तमिलनाडु की तुलना में हिंदी को किंचित ज्यादा स्वीकार किया है। हिंदी-उर्दू की दक्खिनी-शैली के कारण तेलुगूभाषी इसे बोल लेते हैं, वहीं केरल और कर्नाटक के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई के कारण ऐसा संभव हुआ है। 

रोज़गार की भाषा 

हिंदी बेशक ऊँची कमाई वाले रोज़गार मुहैया नहीं कर रही है, पर अंतर्देशीय और अंतरराष्ट्रीय-प्रवासन में मददगार हो रही है। हिंदी का छोटा सा अंतरराष्ट्रीय स्वरूप भी है, जिसका भविष्य में प्रवासी भारतवंशियों के साथ विस्तार होगा। इसमें हिंग्लिश की भूमिका है, जो शुद्धतावादियों को भले ही नापसंद हो, पर चलन में बढ़ रही है। यहाँ भारतवंशियों से आशय केवल उत्तर भारत के हिंदी वालों से ही नहीं है। हिंदी का इस्तेमाल अपने राज्यों से बाहर जाने वाले पंजाबी, बंगाली, गुजराती, मराठी और पूर्वोत्तर के लोग भी करने लगे हैं। 

इसके अलावा धीरे-इसमें भाषा के स्वाभाविक और सामयिक-विकास, संस्कृति, संचार और राजनीति की भूमिकाएँ हैं। इन बातों पर भाषा शास्त्रियों, समाज शास्त्रियों और राजनीति शास्त्रियों को विचार करना चाहिए। यह भाषा से ज्यादा राजनीति और सांस्कृतिक-पहचान का मामला बन गया है। इसे हम तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के चुनावों में देख सकते हैं। अब 2026 में संसदीय परिसीमन होने वाला है, जिसका सीधा संबंध भले ही भाषा से नहीं है, पर भाषा का संबंध जनसंख्या से होने के कारण यह राजनीति का मुद्दा बनने जा रहा है।

मेरा अनुभव पाठक के रूप में, और पत्रकार होने के कारण इस भाषा के प्रयोक्ता का है। मेरा अनुभव बताता है कि आज की हिंदी वही नहीं है, जो सत्तर के दशक में थी, जब मैं पत्रकारिता में प्रवेश कर रहा था। जब बीस और तीस के दशक की हिंदी पत्रिकाओं को पढ़ते हैं, तब पता लगता है कि जितना बदलाव पिछले पाँच दशक में आया है, उससे ज्यादा बदलाव उससे पहले के पाँच दशकों में आया था। 


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