पिछले कुछ समय से फेसबुक पर मेरी पोस्ट में जब कोई अरबी-फारसी मूल का शब्द आ जाता था, तो एक सज्जन झिड़की भरे अंदाज़ में लिखते थे कि उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए। एक और सज्जन ने करीब दो-तीन सौ शब्दों की सूची जारी कर दी, जिनके बारे में उनका कहना था कि संस्कृत-मूल के शब्द लिखे जाएँ। मैं ऐसे मित्रों से अनुरोध करूँगा कि पहले तो वे लिपि और भाषा के अंतर को समझें और दूसरे हिंदी के विकास का अध्ययन करें। बहरहाल तंग आकर मैंने उन साहब को अपनी मित्र सूची से हटा दिया। फेसबुक में जिसे मित्र-सूची कहते हैं, वह मित्र-सूची होती भी नहीं है। मित्र होते तो कम से कम कुछ बुनियादी बातें, तो मेरे बारे में समझते होते, ख़ैर।
उर्दू से कुछ लोगों का आशय होता है, जिस भाषा में अरबी-फारसी के शब्द बहुतायत से हों और जो नस्तालिक लिपि में लिखी जाती हो। उर्दू साहित्य के शीर्ष विद्वानों में से एक शम्सुर्रहमान फारुकी ने लिखा है कि भाषा के नाम की हैसियत से 'उर्दू' शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1780 के आसपास हुआ था। उसके पहले इसके हिंदवी, हिंदी और रेख़्ता नाम प्रचलित थे। आज के दौर में उर्दू और हिंदी, मोटे तौर पर एक ही भाषा के दो नाम हैं। उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों को शामिल करने की वज़ह से और नस्तालिक-लिपि के कारण तलफ़्फ़ुज़ का अंतर है, पर बुनियादी वाक्य-विन्यास एक है।
आधुनिक हिंदी और उर्दू का विकास वस्तुतः हिंदी और उर्दू का विकास है। इन दोनों भाषाओं का विभाजन आज से करीब दो-ढाई सौ साल पहले होना शुरू हुआ था, जो हमारे सामाजिक-विभाजन का भी दौर है। इस विभाजन ने 1947 में राजनीतिक-विभाजन की शक्ल ले ली, तो यह और पक्का हो गया। भाषा की सतह पर भी दोनों के बुनियादी अंतरों को समझे बिना इस विकास को समझना मुश्किल है।
भारत में आए मुसलमानों का पहला परिचय जिस भाषा से हुआ, वह पंजाब और दिल्ली में बोली जाती थी। मुसलमानों के आने के पहले और उनके आने के बाद के विकास को निरंतरता में देखने का प्रयास करना चाहिए। पाकिस्तान में कराची विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ तारिक रहमान की पुस्तक ‘फ्रॉम हिंदी टु उर्दू’ और अमृत राय की किताब ‘अ हाउस डिवाइडेड’ समेत ज्यादातर विद्वानों की राय है कि इस भाषा की एक ही धारा है। बहरहाल अब हमें देखना यह चाहिए कि यह दो अलग-अलग धाराओं में विभाजित क्यों और कब हुई।
ध्यान दें दोनों भाषाओं की संख्याएँ एक हैं। शरीर के अंग आँख, नाक, कान, मुँह, गला, हाथ, पैर, पेट, दाँत वगैरह एक जैसे ही हैं। ज्यादातर रिश्ते माँ, बाप, भाई, बहन, बेटा, बेटी, नाना, नानी, दादा, दादी, चाचा, ताऊ वगैरह। क्रियाएँ आ, जा, खा, पी, कर, मर, भर, खेल, भाग, चल, उछल, फिसल वगैरह। सर्वनाम मैं, तू, हम, तुम, वे, आप वगैरह।
हिंदी-उर्दू की एकता को समझने के लिए उदाहरण के लिए अब्दुर्रहीम खानखाना या रहीम के दोहों पर ध्यान दें। रहीम ने अवधी और ब्रजभाषा में लिखा है, पर यह लेखन नस्तालिक लिपि में है। उसे क्या कहेंगे, उर्दू या हिंदी? उदाहरण देखें: धरती की-सी रीत है, सीत घाम औ मेह। जैसी परे सो सहि रहे, त्यों रहीम यह देह।।
वे एक साथ कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे। जन्म से मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो तथ्य अंकित किए थे, वे उनके विशाल हृदय का परिचय तो देते ही हैं, साथ ही यह भी बताते हैं कि जहाँ भी उन्होंने हिंदू मान्यताओं और परंपराओं का उल्लेख किया है, पूरी जानकारी और अधिकार के साथ किया है। उनकी दृष्टि में हिंदू जीवन और भारतीय जीवन में अंतर नहीं था। आज भी मैंने अनेक मुसलमानों के दृष्टिकोण में यह बात देखी है। रहीम ने रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और उनके माध्यम से व्यावहारिक जीवन को समझाया है। उदाहरण के लिए: छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात। का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
रसखान, जायसी और कबीर जैसे विचारकों और लेखकों की रचनाओं को उर्दू-हिंदी के खाँचे में रखना आसान नहीं होगा। इस सिलसिले में लखनऊ के एक शायर आरज़ू लखनवी की ज़िक्र करना चाहूँगा, जिन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने उर्दू में बेवज़ह अरबी-फारसी के शब्दों को डालने के बजाय आम बोलचाल के शब्दों का अपनी शायरी में इस्तेमाल किया। अपनी इसी लोकप्रियता के कारण उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिला।
संगीतकार नौशाद ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘‘फ़िल्मों में गीत लिखने वाला सिर्फ़ एक ही बेजोड़ शायर हुआ है, आरज़ू लखनवी.’’ साहिर लुधियानवी भी उनके प्रशंसक थे। फ़िल्म ‘देवदास’ के गाने ‘बालम आय बसो मोरे मन में’, ‘दुःख के दिन बीतत नाहीं’ वगैरह, और केएल सहगल की आवाज़ में कई गीत आरज़ू लखनवी की क़लम से निकले थे. ‘करूँ क्या आस निरास भई’, ‘पिया मिलन को जाना’, ‘जग में चले पवन की चाल’, ‘लूट लियो मन धीर’ जैसे गीतों के वे रचयिता थे। इस बात को साबित करने के लिए कि उर्दू का अनिवार्य रिश्ता अरबी-फारसी से जबर्दस्ती जोड़ने की ज़रूरत नहीं है, उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका शीर्षक है ‘सुरीली बाँसुरी।’ उनका दावा है कि इसमें अरबी-फारसी का क भी शब्द नहीं है। बेशक अरबी-फारसी के शब्द उर्दू या हिंदी दोनों में बड़ी खूबसूरती के साथ आत्मसात हो चुके हैं। भाषाओं में शब्दों का आवागमन चलता रहता है।
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