यह राजनीतिक प्रश्न है और इसका उत्तर भी राजनीतिक ही है। हिंदी को राजभाषा बनाने के पीछे संविधान सभा में जो समझौता हुआ था, उसकी प्रकृति पूरी तरह राजनीतिक थी। पिछले कुछ वर्षों से हिंदी के विस्तार को ‘हिंदी-इंपीरियलिज़्म’ या हिंदी-साम्राज्यवाद का नाम भी दिया गया है। यह बात उस कांग्रेस पार्टी के नेता कह रहे हैं, जिसके नेतृत्व में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था।
संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का विकास सहज रूप में हुआ था। उसमें किसी सरकार की भूमिका नहीं थी। अलग-अलग वक्त में उसकी अलग-अलग जरूरतें पैदा होती गईं और जगह बनती गई। चेन्नई में भले ही आपको हिंदी बोलने वाले नहीं मिलें, कन्याकुमारी, मदुरै या रामेश्वरम में मिलेंगे। मानक भाषा के रूप में विकसित होने के पहले से हिंदी साधु-संतों और तीर्थयात्रियों के मार्फत अंतर्देशीय-संपर्क की भाषा के रूप में प्रचलित थी। अब रोजगारों की खोज में चल रहे जबर्दस्त प्रवास के कारण संपर्क भाषा बन रही है।
2020-21 के महामारी के दौर में पता लगा कि देश में करीब 12 करोड़ प्रवासी मजदूर काम करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों के निवासियों की है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में, जहाँ आर्थिक गतिविधियाँ हैं, ये लोग काम के लिए भागते हैं। बेंगलुरु, हैदराबाद या चेन्नई की सॉफ्टवेयर कंपनियों में उत्तर भारत के लोग भी काम कर रहे हैं। यही स्थिति एचएएल, डीआरडीओ और इसरो जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों या टाटा डिफेंस, टयोटा, ह्यूंडे जैसी कंपनियों में भी है। घरों में काम करने वाली मेड, सब्जी वाले, ऑटो वाले, ऊबर के ड्राइवर और दुकानदारों को बहुभाषी बनना पड़ रहा है। यह जरूरत दोनों तरफ से है। हिंदी-बच्चे स्कूलों में स्थानीय भाषाएं पढ़ रहे हैं।
एक स्तर पर अंग्रेजी से काम चल जाता है, पर हर जगह नहीं चलता। दुनिया बदल रही है। अब लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर भी पंजाबी में घोषणाएं होती हैं। सरकारी आदेशों और घोषणाओं से ही सारा काम नहीं होता। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी वालों ने दक्षिण की भाषाओं को नहीं सीखा, इसलिए दक्षिण में हिंदी के प्रति उदासीनता है। ऐसा है क्या? तमिलनाडु में बाकायदा एक मुहिम है कि हिंदी की पढ़ाई रोकने के प्रयास बंद किए जाएं।1 उनके बच्चे भी नौकरी के लिए बाहर जाना चाहते हैं और बाहर जाने के लिए केवल अंग्रेजी से काम नहीं चलता। तमिलनाडु के मंत्री को बयान देना पड़ता है कि जरूरत हुई, तो तमिलनाडु सरकार तीसरी भाषा की पढ़ाई पर भी विचार कर सकती है।
राष्ट्रीय-आंदोलन
सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय-आर्य भाषा और हिंदी’ में एक जगह लिखा है, हिंदी या हिंदुस्थानी भाषा तो हमारे यहाँ हमेशा से ही थी, परन्तु हमारे राजनीतिक कार्यकरों की दृष्टि में भारतीय जीवन में उसका महत्व पिछले कुछ दशकों में ही आकर खड़ा हुआ। ध्यान दें उन्होंने भाषा का नाम ‘हिंदुस्थानी’ लिखा है, ‘हिंदुस्तानी’ नहीं। यह किताब 1954 में उन्होंने लिखी थी। यानी कि वे स्वतंत्रता से पहले की बात कह रहे थे।
उन्होंने आगे लिखा, करीब 45 वर्ष पहले जब हम लोग पाठशाला में पढ़ते बालक थे, मुझे याद है, डेरा इस्माइल खाँ या किसी अन्य पश्चिमोत्तर प्रदेशीय शहर के रहने वाले एक पंजाबी राष्ट्रीय प्रचारक कलकत्ता आए थे। उस समय को देखते हुए अत्यन्त उत्तेजनापूर्ण, अंग्रेजों के विरुद्ध, दिए जाते उनके व्याख्यानों से विद्यार्थियों में देशभक्ति की एक लहर सी आ गई थी। मजा यह कि सारे व्याख्यान अंग्रेजी में दिए जाते थे। हम लोग ताहिलराम गंगाराम के पीछे-पीछे कलकत्ता की सड़कों पर एक साथ उनका अंग्रेजी में बनाया हुआ ‘राष्ट्रीय गीत’ गाते हुए घूमा करते थे।
उस गीत की आरम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार थीं,“God save our Ancient Hind, Ancient Hind, once Glorious Hind, From Kashmir to Cape Comorin.” इत्यादि। यह बंग-भंग के कुछ पहले की बात है, जबकि स्वदेशी आंदोलन का तूफान-सा आया और भारत में एक नए राजनीतिक युग का सूत्रपात हो गया। स्वदेशी आंदोलन का आरम्भ होते ही उपेक्षित मातृभाषा का प्रश्न चर्चित होने लगा, विशेषतः बंगाल में, जहाँ पर कि भाषा, विभक्त बंगदेश के ऐक्य की अमर प्रतीक थी। परन्तु अब भी हिंदुस्थानी को उसका उपयुक्त स्थान न मिल सका था।
बंगाल के राजनीतिक नेताओं में से एक पत्रकार कालीप्रसन्न काव्य विशारद ने हिंदुस्थानी के महत्व का सबसे पहले उस समय भी अनुभव किया, और एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय गीत की रचना भी हिंदी में की। इसे सन 1905-12 के स्वदेशी आंदोलन के दिनों में बंगाली नवयुवक कलकत्ता की सड़कों पर तथा अन्यत्र भी गाते फिरा करते थे। गीत की आरम्भिक पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं:- “भाया देश का ई क्या हाल। खाक मिट्टी जौहर होती सब, जौहर है जंजाल।”
गांधी की भूमिका
इसके कुछ साल बाद महात्मा गांधी ने हिंदी या हिंदुस्तानी के राष्ट्रीय महत्व को समझा। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से जो पत्रिका निकाली उसमें अंग्रेजी, गुजराती और तमिल के साथ हिंदी भी थी। अंगरेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और मशीनी स्वरूप को लेकर गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। खासतौर से भाषा के संदर्भ में। ‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने यूरोप की मशीनी सभ्यता की आलोचना की, वहीं अंगरेजों की थोपी शिक्षा पद्धति का विरोध भी किया। उन्होंने कहा, ‘करोड़ों लोगों को अंगरेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है।
ऐसा नहीं कि गांधी, अंगरेजी के शैक्षिक महत्व को जानते समझते नहीं थे, पर इस विषय पर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी असहमति सर्वज्ञात है। हम राष्ट्रीय आंदोलन के जिस दौर में हिंदी की भूमिका की बात कर रहे हैं, कुछ लेखक उसी दौर में हिंदी (या हिंदू राष्ट्रवाद) के उभार की बात करते हैं। वस्तुतः वे मानते हैं कि यह राष्ट्रवाद उन्नीसवीं सदी में ही जन्म ले चुका था।
हिंदू-राजनीति
अगस्त 2020 में अयोध्या में राम मंदिर की आधार शिला रखे जाने के बाद राजनीति शास्त्री ज़ोया हसन का एक लेख वैबसाइट ‘वायर’ में प्रकाशित हुआ था। इसमें कहा गया था कि धर्मनिरपेक्षता के पराभव की कहानी कहीं ज्यादा जटिल है और सच यह है कि हमारे समाज में धर्म के राजनीतिकरण या इंस्ट्रूमेंटलाइजेशन के लिए केवल भारतीय जनता पार्टी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। इसके पीछे काफी भूमिका कांग्रेस पार्टी की भी रही है, जो फौरी राजनीतिक फ़ायदे के लिए सेक्युलर सिद्धांतों और संस्थाओं के साथ छेड़छाड़ करने के लालच को छोड़ नहीं पाई।
ज़ोया हसन आगे कहती हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद की अपनी गतिशीलता है, जो धर्मनिरपेक्षता की विफलता से जुड़ी नहीं है। इस गतिशीलता के पीछे दो परियोजनाएं हैं। एक सांस्कृतिक और दूसरी राजनीतिक। सांस्कृतिक परियोजना के मूल की तलाश हमें हिंदी-राजनीति तक ले जाती है, जिसने उत्तर भारत और खासतौर से उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में हिंदी-हिंदू सांस्कृतिक निर्मिति को रचा।
इसने बीसवीं सदी के आखिरी दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके लिए उन्होंने कृष्ण कुमार द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘हिंदी आराधना (हिंदी वर्शिप)’ को मौज़ूँ बताते हुए लिखा कि स्वतंत्रता के बाद से ‘हिंदू राइट (दक्षिणपंथी हिंदुत्व)’ के उभार के पीछे यह तत्व उत्तरदायी है। उन्होंने लिखा है कि सत्तर का दशक आते-आते ज्यादातर विश्वविद्यालय ‘वर्नाक्युलराइज’ हो गए, जिससे हिंदी को संचार और संस्कृति की भाषा के रूप में स्पेस मिल गई।
वर्नाक्युलर इलीट
उन्होंने अपने आलेख में इन हिंदी समर्थकों के लिए ‘वर्नाक्युलर इलीट’ शब्द का इस्तेमाल करते हुए लिखा है कि बाद के दशकों में सब-आल्टर्न राजनीति के अगुवा के रूप में इन ‘वर्नाक्युलर इलीट’ (या देसी नेताओं) के उभार से लोक-क्षेत्र (पब्लिक-एरेना) में हिंदी के स्पेस का विस्तार हुआ, पर इससे उत्तर प्रदेश का सांप्रदायीकरण नहीं रुका, बल्कि लगता है कि इसके सहारे वह बढ़ा। पुराने हमलों और अभियानों की याद ताजा करते हुए ऐतिहासिक-प्रतिशोध की राजनीति के सहारे हिंदी ने इस विचार को मजबूत किया कि राष्ट्र-राज्य बुनियादी तौर पर हिंदू-समुदाय का मसला है।
2000 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘हिंदी नेशनलिज्म’ में आलोक राय ने लिखा है कि इस परियोजना में हिंदी से जुड़ी अनेक बोलियों (खड़ी बोली की मानक हिंदी के मुकाबले अवधी, भोजपुरी या ब्रज वगैरह) के लिए स्थान नहीं था, जिससे इन्हें बोलने वालों के मन में असंतोष का भाव है। शुरू से ही हिंदी-प्रोत्साहन के पीछे एक स्पष्ट राजनीतिक एजेंडा रहा है, ‘सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट, सामाजिक रूप से विभाजनकारी और अंततः सवर्ण जातीय तथा लोकतंत्र-विरोधी राजनीति।’
‘हिंदी-हिंदू राष्ट्रवाद’
बीसवीं सदी के छोर पर आकर भारतीय जनता पार्टी के उदय, उसके हिंदुत्व और सांप्रदायिकता के उभार को इसी ‘हिंदी-हिंदू राष्ट्रवाद’ की देन मानने वाले विशेषज्ञों की संख्या काफी बड़ी है। दूसरी तरफ सवाल यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद क्या है? भारतीय जनता पार्टी का हिंदुत्व किसका प्रतिनिधित्व करता है? हिंदू राष्ट्रवाद का जन्म कैसे, कब और किन परिस्थितियों में हुआ? उसके प्रणेताओं की समझ क्या कहती है? इसके लिए उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन को पढ़ना होगा।
यहाँ पर आकर हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र की भूमिका पर विचार करना होगा। उन्हें हम क्या मानें? राष्ट्रवादी, उपनिवेश-विरोधी या हिंदू-संप्रदायवादी? उसके पहले हमें हिंदी-उर्दू के उद्भव और विकास का अध्ययन भी करना होगा। क्या वजह थी कि अवधी और ब्रज भाषा में कविता लिखने वाले समाज के बीच खड़ी बोली ने हिंदी इलाके की सामान्य भाषा के रूप में जगह बना ली। इतना ही नहीं हिंदी की कुछ लिपियाँ लुप्त हो गईं और देवनागरी ने उनकी जगह ले ली। लिपि के कारण हिंदी और उर्दू का फर्क पैदा हो गया।
हिंदी-उर्दू विवाद
इस फर्क ने बीसवीं सदी में विभाजन की भूमिका तैयार की। इतना होने के बाद हिंदी-उर्दू विवाद खड़ा होता है। हिंदी से उर्दू निकली या उर्दू से हिंदी? भाषा के किस रूप को महत्व दें को महत्व दें? संस्कृतनिष्ठ या अरबी-फारसी शब्दावली से लदी भाषा को? आम-फहम भाषा को क्यों न बढ़ावा दें, जिसे गांधी जी ने हिंदुस्तानी कहा था वगैरह? इसके साथ हिंदी को राजभाषा बनाने और उसकी तकनीकी शब्दावली से जुड़े सवाल भी खड़े होंगे।
हिंदुस्तानी आंदोलन भी, देश की सामासिक-संस्कृति और इतिहासकारों के दृष्टिकोण इस बहस के केंद्र में आएगा। चर्चा भाषा से उठकर भारतीय समाज के विकास और हिंदू-मुस्लिम रिश्तों पर आएगी। सवाल होगा कि हिंदी और उर्दू के विकास के पीछे क्या हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक पृष्ठभूमि भी है? इसी प्रक्रिया में हिंदू समाज के अंतर्विरोध, जातीय भेदभाव, उत्तर और दक्षिण के अंतर्विरोध जैसे सवाल खड़े होंगे। कुछ लोग मानते हैं कि यह सब अंग्रेजों की देन है। उनकी भूमिका हो सकती है, पर क्या सामाजिक-जीवन में उसके बीज नहीं थे?
हिंदी-साम्राज्यवाद
हर साल 14 सितंबर को सरकारी संस्थानों में हिंदी दिवस मनाया जाता है। उसी रोज कुछ ट्विटर हैंडल हिंदी के विरोध में अपनी आवाज उठाते हैं। उसे ‘स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन’ या ऐसे ही हैशटैग से जोड़ा जाता है। दक्षिण में ही नहीं, उत्तर भारत में भी हिंदी और खासतौर से संस्कृतनिष्ठ राजभाषा को ‘दुर्दशा’ का जिम्मेदार ठहराया जाता है।
राजभाषा बनाए जाने के पहले से हिंदी का विरोध होता रहा है। यह विरोध एक तरफ उप-राष्ट्रीय भावनाओं के कारण गैर-हिंदी क्षेत्रों से तो उभरता ही है, हिंदी क्षेत्र के भीतर भी विभिन्न बोलियों का नाम लेकर भी मुखर होता है। इस विचार के प्रवर्तक कहते हैं कि बिहार में 65 प्रतिशत लोग खड़ी बोली हिंदी नहीं बोलते हैं। यह मानक हिंदी हृदय-क्षेत्र एक प्रकार का भ्रम है। खड़ी बोली हिंदी अपेक्षाकृत नई भाषा है। इसने अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, मैथिली आदि समृद्ध भाषाओं के अस्तित्व को समाप्त करने का काम किया है।
इस हिंदी को देश की दूसरी भाषाओं पर थोपने का आरोप है। दूसरी तरफ हिंदी पर आरोप यह भी है कि वह उच्च तकनीकी-शिक्षा और रोज़गार की भाषा नहीं है। इस सिलसिले में हाल में इंजीनियरी और मेडिकल शिक्षा में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल को लेकर खबरें सुनाई पड़ी हैं।
ज़ोया हसन और आलोक राय के अलावा बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक हिंदी को भारतीय जनता पार्टी के उभार के रूप में देखते हैं। इस दृष्टि से उन्नीसवीं सदी से जिस खड़ी बोली मानक हिंदी का विकास हुआ है, वह सवर्ण जातियों का प्रतिनिधित्व करती है, जिसकी बुनियाद पर हिंदू-राष्ट्रवाद की अवधारणा विकसित हो रही है। यह बात भी एकतरफा नहीं है। ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि पाकिस्तान की अवधारणा का काफी श्रेय उर्दू को जाता है। भाषा ने ही पाकिस्तान का विभाजन किया और उससे टूटकर नए बने बांग्लादेश में इन दिनों ‘राष्ट्रवाद’ फिर से चर्चा का विषय है।
संख्याबल की राजनीति
हिंदी को राजनीति, संस्कृति, समाज, खेल और मनोरंजन वगैरह में स्वीकार कर लिया जाता है, पर उच्च तकनीकी-शिक्षा, प्रशासन और न्याय-प्रणाली में उसके प्रवेश में दिक्कतें हैं। संपर्क-भाषा के रूप में उसने किसी से बिनती नहीं की थी कि मुझे अपनाओ, पर राजभाषा बनना आसान नहीं है। जबतक गैर-हिंदी राज्यों की अनुमति नहीं होगी, हिंदी राजभाषा नहीं बन सकेगी। हिंदी और शेष भारतीय भाषाओं की समस्याएं एक जैसी हैं। एक बड़ा अंतर हिंदी को मिलने वाले विशेष महत्व के कारण है, जो संख्याबल के कारण है।
संख्याबल के राजनीतिक निहितार्थ हैं। इसबार होने वाली जनगणना और उसके बाद संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन के बाद ये सवाल और शिद्दत के साथ उठने वाले हैं। भाषा के साथ क्षेत्रीय पहचान, उप-राष्ट्रीय भावनाएं, आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक कारण किस प्रकार जुड़े हैं, यह देखने को मिलेगा। राजनीतिक-दृष्टि से हिंदी-भाषी इलाकों को बीजेपी अपने पक्ष में क्यों कर पाई और कांग्रेस तथा वामपंथी दल ऐसा क्यों नहीं कर पाए, इसपर भी हमें विचार करना होगा। क्या इसमें भाषा की कोई भूमिका है? क्या यह सांप्रदायिकता है? क्या हिंदी की कोई उप-राष्ट्रीय भावना है या वह समूचे देश का प्रतिनिधित्व करती है? हिंदी ने देश को जोड़ा या तोड़ा? ऐसे बहुत सारे सवाल एक के बाद एक करके सामने आ रहे हैं और आते जाएँगे।
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