Thursday, September 24, 2020

पत्रकारिता और राजनीति का द्वंद्व

यह आलेख मैंने अगस्त 2018 में लिखा था, जो गंभीर समाचार के पत्रकारिता से जुड़े विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। मैं इसे अपने ब्लॉग में लगा नहीं पाया था। इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के संदर्भ में कुछ बातें उठीं, तो इस आलेख का एक अंश मैंने फेसबुक में लगाया। संभव है, कोई पाठक इसे पूरा पढ़ने चाहें, तो मैं इसे यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसके संदर्भ 2018 के ही रहेंगे। 

हाल में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे। संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए।

इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई हैं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया। एक और खबर ने हाल में ध्यान खींचा है। जेडीयू के उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह कांग्रेसी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को हराकर राज्यसभा के उप-सभापति चुन लिए गए।

हरिवंश मूलतः पत्रकार हैं और लम्बे समय तक उन्होंने रांची के अखबार प्रभात खबर का सम्पादन किया। वे जेडीयू प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर राज्यसभा आए थे। संसद के उच्च सदन की परिकल्पना लेखकों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों और ललित कलाओं से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने की भी है, पर उसके लिए मनोनयन की व्यवस्था है।

बढ़ता द्वंद्व

हरिवंश मनोनयन के रास्ते से सांसद नहीं बने। एक राजनीतिक दल ने एक पत्रकार को राज्यसभा में भेजा। एक पत्रकार के कदम राजनीति की ओर क्यों बढ़े? जवाब उनके एक पुराने सहयोगी ने दिया,'हरिवंश जी का मानना था कि व्यवस्था को राजनीति ही दुरुस्त कर सकती है।' राजनीति की अच्छी समझ रखने वाले हरिवंश का पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से करीबी नाता रहा। प्रधानमंत्री बनने पर चंद्रशेखर ने उन्हें अपना मीडिया एडवाइजर बनाया था।

इधर आम आदमी पार्टी से जुड़े आशुतोष ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया। आशुतोष ने यह फैसला क्यों किया, पता नहीं। कयास हैं कि पार्टी की ओर से राज्यसभा न भेजे जाने की वजह से वे नाराज थे। हो सकता है कि आशुतोष पत्रकारिता में वापस चले जाएं, पर क्या उनकी साख वैसी ही होगी, जैसी कि राजनीति में जाने के पहले थी?

साख का पता नहीं, पहचान तो बनेगी। राजनीति में आने से उनकी पहचान बनी है। वे सांसद बनते तो शायद पहचान और बेहतर बनती। शायद उनके मन में पत्रकारिता के करियर को फिर से अपनाने का विचार हो। बहरहाल वे जो भी फैसला करें लगता यह है कि राजनीति में पत्रकार का उतरना विचारणीय विषय है।

सन 2016 में एक पत्रिका ने एक आलेख प्रकाशित किया, जिसमें बताया गया कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने 28 कॉलेजों की गवर्निंग बॉडीज में 27 पत्रकारों की नियुक्तियाँ की हैं। पत्रकारों को अपने पक्ष में लाने की कोशिशें जारी हैं। टीवी चैनलों को तटस्थ या ऑब्जेक्टिव राय रखने वाले पत्रकारों की जरूरत नहीं है। कुछ पत्रकार खुलकर कहते हैं कि तटस्थता या निष्पक्षता सम्भव ही नहीं है। पर पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में छात्रों को वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और सत्य-निष्ठा का पाठ पढ़ाया जाता है। क्या यह पाखंड है?

पत्रकारिता खुद में एक प्रकार की राजनीति है। ऐसी राजनीति जिसका केंद्रीय विषय सार्वजनिक हित है, सत्ता पाना नहीं। सत्ता की राजनीति भी ऐसा ही दावा करती है, पर वह जिन आधारों पर चल रही है, वे संकीर्ण होते जा रहे हैं। पत्रकारिता की जिम्मेदारी है कि वह उन संकीर्ण आधारों पर चोट करे। इसके लिए उसे अपनी साख बनानी होगी।

पत्रकार की ताकत

सूचना-प्रसारण दुनिया का पहला औद्योगिक उत्पाद है। 1454 में मूवेबल टाइप के आविष्कार के फौरन बाद अखबारों, पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन शुरू हो गया था। उसी दौरान यूरोप में साक्षरता की दर बढ़ी जैसा आज भारत में हो रहा है। वह दौर लोकतंत्र के उदय का था। सन 1834 की बात है। इंग्लैंड के राजा विलियम चतुर्थ ने लॉर्ड मेलबर्न की ह्विग सरकार को बर्खास्त कर दिया। उस दौर में लंदन टाइम्स का सम्पादक टॉमस बार्नेस देश का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था, क्योंकि उसकी आवाज सुनी जाती थी।

चुनाव सिर पर थे। राजनेता समर्थन लेने सम्पादक के पास गए। बार्नेस ने कुछ शर्तों के साथ रॉबर्ट पील के लिए घोषणापत्र लिखा। हालांकि 1835 के चुनाव में पील की पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर सकी, पर एक सम्पादक के सम्मान का पता ज़रूर लगता है। यह सम्मान दुनिया के तमाम देशों में बना, बढ़ा और अब उसका क्षरण हो रहा है। इंग्लैंड में आज भी अखबार अपने राजनीतिक रुझान को घोषित करते हैं।  

इंग्लैंड के विपरीत हमारे शुरूआती पत्रकार सामाजिक नेता थे। स्वतंत्रता के बाद तीन दशक तक उनका सम्मान कायम रहा। 1975 में इमर्जेंसी के दौरान पहली बार भारतीय पत्रकारों का सत्ता के कठोर पक्ष से सामना हुआ। इसमें सबसे पहले झुके बड़े प्रकाशन समूह। हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार इमर्जेंसी के फौरन बाद हुआ। वह विस्तार जारी है, पर उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं।

ज्यादातर क्षेत्रीय अखबारों ने स्थानीय राजनेताओं की मदद से अपने कारोबार को जमाया। वे बड़े कारोबारी बन गए। पर उन्होंने जनता के सपनों की उपेक्षा की। हमें इस पत्रकारिता के ब्लैक एंड ह्वाइट दोनों पक्षों को समझने की ज़रूरत है। इस कर्म ने साक्षरता बढ़ाने में मदद की, सामंती अत्याचारों को रोका, लोगों को रोजगार भी दिया। पर पत्रकार के सम्मान, पत्रकारिता के मूल्यों और संज़ीदगी में गिरावट आई है।

पत्रकारीय ध्रुवीकरण

इधर पत्रकारिता से सीधे राजनीति में आने वालों की संख्या बढ़ी है। एक जमाने में श्रीकांत वर्मा, कपिल वर्मा और चंदूलाल चंद्राकर के नाम थे। फिर अरुण शौरी एमजे अकबर, राजीव शुक्ला और चंदन मित्रा जैसे नाम जुड़े। एचके दुआ, कुमार केतकर और हरिवंश राज्यसभा के सदस्य बने। यह सदस्यता दलीय आधार पर है। मनीष सिसौदिया और आशीष खेतान इसी व्यवसाय को छोड़कर आए हैं।

स सीधी भागीदारी के अलावा रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा, राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार एक तरफ और सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी और रजत शर्मा जैसे पत्रकार दूसरी तरफ हैं। राजनीति के संदर्भ में प्रायः एकतरफा राय देखने को मिलती है। शाम को टीवी डिबेटों में शिरकत करने वाले पत्रकारों की लम्बी सूची है, जो राजनीतिक रुझानों के कारण पहचाने जाते हैं। उन्हें बुलावा इसी आधार पर दिया जाता है कि वे फलां का पक्ष रखेंगे। पार्टियों की प्रवक्ताई अब फुलटाइम जॉब है। संतुलित और निष्पक्ष राय बनाने की जिम्मेदारी दर्शक पर है, जो पहले से ही भ्रमित है।

हाल के वर्षों में भारतीय पत्रकारिता में जो सवाल उठे हैं, वे दो तरह के हैं। एक, व्यावसायिकता के कारण ऐसी पत्रकारिता को बढ़ावा मिल रहा है, जो देश और समाज की वास्तविकताओं से दूर जा रही है। उसमें चाट मसाले की प्रवृत्तियाँ प्रवेश कर रहीं हैं। दूसरे पत्रकार तटस्थ पर्यवेक्षक के बजाय किसी न किसी राजनीतिक पक्ष के अंध-समर्थक या आलोचक बन रहे हैं।

रसूख की पत्रकारिता

कुछ साल पहले मुझे माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल जाने और नए पुराने छात्रों से संवाद करने का मौका मिला। मौका था नए सत्र का आरम्भ, जिसका समारोह था। मैंने सभा में बैठे छात्रों से पूछा- आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं?  ज्यादातर का जवाब था- सामाजिक जरूरत के लिए। पाठकों को सही जानकारी देने के लिए। एक छात्र ने खड़े होकर कहा, “ मैं पैसे, पहचान और ऊंची पहुंच और रसूख बनाने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं। पूरे हाउस में ठहाका लगा।

पता नहीं उस छात्र ने वह बात गंभीरता में कही या मजाक में, पर यह महत्वपूर्ण बात थी। सभी न सही कुछ पत्रकार सेलिब्रिटी बन रहे हैं। पैसे, पद औऱ पहचान के लिहाज से वे टॉप पर आने लगे हैं। इसकी कीमत कौन देता है? पत्रकार महात्मा गांधी थे, तिलक भी। महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर तक तमाम नाम हैं। उस छात्र का आशय जो भी रहा हो, पर उसने कहा, मैं ताकत चाहता हूँ जिससे लोग डरें।

ऐसे पत्रकार हुए हैं, जिन्हें सत्ताधारियों, सरमाएदारों, और माफिया तक ने सिर पर बिठाया। एक पत्रकार शासन, कारोबार और अंडरवर्ल्ड की अंधेरी गुफाओं से गुज़रता है। उसे ईमानदार और बेईमान बनने के मौके मिलते हैं। बेशक पत्रकारिता उत्तम कर्म है, नोबल प्रोफेशन। वह हमें धवल छवि के साथ सेलिब्रेटी बनने का मौका देती है और अनैतिकता के कीचड़ में उतरने का भी। फिक्सर, दलाल, बिचौलिए और ठेकेदार भी पत्रकार बनना चाहते हैं। और बनते हैं। यही कहानी राजनीति की भी है।

दोनों का याराना

राजनीति और पत्रकारिता दोनों साथ चलते हैं। नेता और पत्रकार मिल बैठकर बातें करते हैं, पर यह तेल-पानी का रिश्ता है। कुछ साल पहले खबरें थीं कि अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले में 20 पत्रकारों को घूस दी गई। एक दस्तावेज के अनुसार इतालवी कंपनी ने इस सौदे को मीडिया की नजरों से बचाने के लिए तकरीबन 50 करोड़ रुपए आवंटित किए थे। इस बात की सच्चाई उजागर नहीं हुई। दस्तावेज की प्रामाणिकता भी साबित नहीं हुई।

हाल के दिनों में पत्रकारिता और पत्रकारों को लेकर संदेह बढ़े हैं। उनकी साख कम हो रही है। पत्रकारिता के लिए प्रेस्टीट्यूडजैसे शब्द गढ़े जा रहे हैं। सम्भव है यह व्यक्तिगत कुंठा हो या राजनीति का हिस्सा हो। पर इससे समूची पत्रकारिता निशाने पर है और यह खतरनाक बात है। माना कि मूल्य-बद्ध पत्रकारिता में गिरावट आई है, पर युवा पत्रकार ईमानदारी के साथ इस काम से जुड़ता है। इसपर होने वाले हमलों से उसका विश्वास टूटता है।

नीरा राडिया प्रकरण सामने आया तब इस व्यवसाय पर उंगलियाँ उठीं। राजनीतिक दलों ने पत्रकार को पर्यवेक्षक के बजाय दोस्त या दुश्मन समझना शुरू कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उदय के साथ यह द्वंद्व बढ़ा है। वह सीढ़ी चढ़ने-उतरने का माध्यम बन गया है।

त्रकार भी नेताओं की तरह अमीर बनना चाहता है। हमने मान लिया है कि राजनीति तो अमीर बनने के लिए ही होती है। कुछ साल पहले पेट्रोलियम मंत्रालय के कुछ गोपनीय दस्तावेजों के मामले को लेकर एक पत्रकार की गिरफ्तारी हुई थी। गिरफ्तार पत्रकार ने पेशी पर ले जाए जाते वक्त कहा था कि पेट्रोलियम मंत्रालय में 10 हजार करोड़ रुपए का घोटाला है। क्या हुआ उस मामले का? जिम्मेदारी मीडिया और सरकार दोनों की थी कि जनता को सच्चाई से अवगत कराते।

अगस्त-सितम्बर 2012 में कोयला खानों का मामला खबरों में था। उन दिनों सरकारी सूत्रों से खबर आई थी कि कोल ब्लॉक आबंटन में कम से कम चार मीडिया हाउसों ने भी लाभ लिया। इनमें तीन प्रिंट मीडिया और एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल बताया गया था। उन्हीं दिनों एक व्यावसायिक विवाद में एक चैनल-सम्पादक की गिरफ्तारी हुई। पेड न्यूजकी प्रेत-बाधा ने पहले ही मीडिया को घेर रखा है। उसके पीछे पत्रकार नहीं, मालिक हैं।

पत्रकारिता के जोखिम

गौरी लंकेश की हत्या ने देश में हलचल मचा दी। इस हत्या की भर्त्सना ज्यादातर पत्रकारों, उनकी संस्थाओं, ज्यादातर राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने की। इस हत्या के बाद वैचारिक आधार पर खुलकर तलवारें चलने लगीं। विचार-अभिव्यक्ति के कारण किसी की हत्या होना खतरनाक है। पर यह पहले पत्रकार की हत्या नहीं थी। बिहार, असम, छत्तीसगढ़ और सुदूर इलाकों में हो रही हत्याओं पर ध्यान नहीं जाता।

हमारी पत्रकारिता पर दो किस्म के खतरे हैं। एक, जान का खतरा और दूसरा राजनीतिक धड़ेबाजी। इसे भी खतरा मानिए। पत्रकारों की एक्टिविस्ट के रूप में और एक्टिविस्ट की पत्रकारों के रूप में भूमिका की अदला-बदली भी हो रही है। विचार पर प्रचार हावी हो रहा है। मर्यादा-रेखाएं धुँधली हो रही हैं। सोशल मीडिया के प्रकट होने से भी यह फर्क आया है।

सोशल मीडिया ने बहुत सी बातों को दबने से बचाया है। मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशित नहीं होंगी तो सोशल मीडिया में आ जाएंगी। पर अब कहना मुश्किल होने लगा है कि सच क्या है और झूठ क्या है। फेक न्यूज बढ़ती जा रहीं हैं। तस्वीरें मॉर्फ होती हैं, वीडियो डॉक्टर्ड होते हैं। तथ्यों में काट-छाँट होती है। यही बातें पहले लोग नुक्कड़ों, पान की दुकानों और चाय के ठेलों पर करते थे और निकल जाते थे। पर अब उनका प्रसर तेज और ज्यादा प्रभावशाली है। जरूरत मॉडरेशन और सच्चाई की पहचान करने की है। इसके लिए विशेषज्ञ पत्रकारिता की जरूरत है।

पक्षधर पत्रकारिता

हमारी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन से निकली है, जो अपने आप में सबसे बड़ा एक्टिविज्म था। पत्रकार गांधी भी थे। यह पत्रकारिता ऑब्जेक्टिविटी और फेयरनेस पर केंद्रित नहीं थी। पर आजादी के बाद हमने उसे गढ़ने की कोशिश की। पर पहले तीन दशक तक राजनीतिक परिदृश्य में टकराव वैसा नहीं था, जैसा आज है। इमर्जेंसी के पहले की पत्रकारिता काफी हद तक एक्टिविज्म से मुक्त थी। इमर्जेंसी के बाद उसमे एक्टिविज्म का प्रवेश हुआ। उसी दौर में भारतीय भाषाओं के, खासतौर से हिंदी के अखबारों का प्रसार बढ़ा। उन्हीं दिनों भारतीय समाज के अंदरूनी टकराव बढ़े। उन टकरावों के इर्द-गिर्द राजनीतिक गतिविधियाँ भी बढ़ीं।

पत्रकार को एक्टिविस्ट होना चाहिए या नहीं, इसे लेकर अलग बहस है। अलबत्ता उसकी विभाजक रेखा खींचना काफी मुश्किल है। सारी बातें एकदम ब्लैक एंड ह्वाइट नहीं हैं। इसके दो छोर और दो उद्देश्य हैं। आप मूलतः पत्रकार हैं और व्यापक सामाजिक हित में एक्टिविस्ट के रूप में काम करते हैं। या बुनियादी तौर पर एक्टिविस्ट हैं और पत्रकारिता के सहारे अपना लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। बीच में तमाम ग्रे-शेड्स हैं।

एक्टिविस्ट के इरादे भी व्यापक सामाजिक हित में ही होते हैं। पत्रकार पर दो विपरीत बातों को भी अपने पाठकों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी है। उन बातों को भी, जिनसे वह असहमत है। यह जिम्मेदारी एक्टिविस्ट की नहीं है। बहरहाल रेखा खींचना सरल काम नहीं है। अब तो तटस्थता की इस धारणा का मजाक भी बनने लगा है।

कारोबार केवलम

अखबार सिर्फ खबर या सूचना नहीं देता। वह अपना प्रभाव बेचता है। उसकी साख उसका संबल है। वह कारोबार भी है, पर सिर्फ कारोबार नहीं। कागज के रूप में वह बिकता है, पर उसका सामाजिक प्रभाव बिकाऊ नहीं होता। कारोबारी असर ही बिकाऊ होता है। इसीलिए अखबार में विज्ञापन की जगह अलग होती है। बगैर पूंजी के वह निकल नहीं सकता। पूंजी लगाने वाला रिटर्न मांगता है, वह सामाजिक जिम्मेदारी नहीं जानता। इसीलिए अखबार के कारोबार के बारे में सोचने का वक्त है। बाजार की छुट्टा पूँजी उसे जीने नहीं देगी। उसे उसका पाठक ही बचा सकता है।

बेशक यह कारोबार है, पर साबुन और तेल-फुलेल बेचने जैसा धंधा भी नहीं है। आने वाले वक्त में दुनिया को मीडिया कारोबार में लगी पूँजी के बारे में फैसला करना होगा। मुनाफे और सामाजिक जिम्मेदारी के द्वंद्व को दूर करने की जरूरत है। उसके लिए संतुलित बिजनेस मॉडल चाहिए।

पत्रकारिता को गाली देने भर से काम नहीं चलेगा। आज भी तमाम रहस्योद्घाटन यही पत्रकारिता कर रही है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, तहलका, एमपीलैड, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसा जैसे मामले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उठाए। जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, तब भी ये मामले उठते थे।

हिन्दी के विकासशील समाज को श्रेष्ठ अखबारों की जरूरत है, जो आर्थिक रूप से सफल हों। अपने पाठक के लिए विश्वविद्यालय का काम करें। जो हिंदी के बौद्धिक जगत को स्वीकार हो और आम जनता को भी। जिनमें गहराई, गंभीरता और समझदारी हो। साक्षरता बढ़ रही है। नए पाठक बढ़ रहे हैं। हमें नए लेखकों की जरूरत है, जो विश्वकोश लिखें। अपने इलाके का अध्ययन करें। आर्थिक-सामाजिक वास्तविकताओं को समझें। सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के बरक्स पत्रकारिता पर भी नजर रखें, क्योंकि वह सामाजिक बदलाव की प्रमुख वाहक है।

सितंबर 2018 में गंभीर समाचार में प्रकाशित

इस लेख के साथ मैं अपने कुछ पुराने लेखों को भी नत्थी कर रहा हूँ। संभव हो तो इन लेखों को भी पढ़ें

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मीडिया और मनमोहन सरकार

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मीडिया संकट पर एक आउटलुक

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1 comment:

  1. "हिन्दी के विकासशील समाज को श्रेष्ठ अखबारों की जरूरत है, जो आर्थिक रूप से सफल हों। अपने पाठक के लिए विश्वविद्यालय का काम करें।"

    जैसे आज के विश्वविद्यालय काम कर रहे हैं।

    सुन्दर आलेख।

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