ज्योतिरादित्य
सिंधिया के पलायन पर शुरुआती चुप्पी रखने के बाद गुरुवार को राहुल गांधी ने कहा, ज्योतिरादित्य
भले ने अलग विचारधारा का दामन थाम लिया है, पर वास्तविकता यह है कि वहां उनको न
सम्मान मिलेगा न संतोष मिलेगा। वे जल्द ही इसे समझ भी जाएंगे। राहुल ने एक और बात
कही कि यह विचारधारा की लड़ाई है। सिंधिया को अपने राजनीतिक भविष्य का डर लग गया।
इसीलिए उन्होंने अपनी विचारधारा को जेब में रख लिया और आरएसएस के साथ चले गए।
राहुल गांधी की
इस बात से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला यह कि सिंधिया को कांग्रेस में
कुछ मिलने वाला था नहीं। आने वाले खराब समय को देखते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी।
दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी विचारधारा की लड़ाई लड़ रही है। तीसरी बात उन्होंने
यह कही कि बीजेपी में (भी) उन्हें सम्मान और संतोष नहीं मिलेगा। राहुल के इस बयान
के अगले रोज ही भोपाल में ज्योतिरादित्य ने कहा, मैंने अतिथि विद्वानों की बात उठाई, मंदसौर में किसानों के ऊपर केस वापस लेने की
बात उठाई। मैंने कहा कि अगर इनके मुद्दे पूरे नहीं हुए तो मुझे सड़क पर उतरना होगा,
तो मुझसे कहा गया उतर जाओ। जब सिंधिया परिवार को ललकारा जाता है तो वह चुप नहीं
रहता।
सच यह है कि
ज्योतिरादित्य पार्टी में अपमानित महसूस कर रहे थे। उन्होंने ‘विचारधारा’ के आधार पर ही कांग्रेस सरकार को आड़े हाथ लिया। सन 2018
के विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने बार-बार कहा था कि हमारी सरकार बनी, तो
किसानों के कर्जे दस दिन में माफ कर दिए जाएंगे। ज्योतिरादित्य ने अपनी ही पार्टी
की सरकार को किसी न किसी मुद्दे पर निशाना बनाना शुरू कर दिया। शुरुआत उन्होंने
अवैध खनन माफिया के ख़िलाफ़ सख्त कार्रवाई करने की मांग उठा कर की। दूसरे उन्हें
अपना राजनीतिक भविष्य यदि आज बीजेपी में नजर आता है, तो दोष किसका है?
ज्योतिरादित्य ने
कांग्रेस की बखिया ज्यादा नहीं उधेड़ी, पर उनके पलायन ने पार्टी के सामने नेतृत्व, संगठन और रणनीति तीनों से जुड़े बड़े सवाल जरूर खड़े कर दिए
हैं। क्या कारण है कि वोटर उसकी ‘विचारधारा’ के साथ खुद को जोड़ नहीं पा रहा है? उसके बरक्स बीजेपी कामयाब क्यों हो रही है? शाहबानो प्रकरण से लेकर
मंडल-कमंडल तक कांग्रेस पार्टी के भीतर विचारधारा को लेकर कोई विमर्श नहीं हुआ। उसके
भीतर का सारा विमर्श व्यक्तियों और ‘परिवार’ तक सीमित रहा। कोई वजह है कि पार्टी
‘परिवार’ के बाहर अपना नेता भी नहीं खोज पा रही है।
ज्योतिरादित्य
पार्टी को छोड़कर जाना सामान्य परिघटना नहीं है। इसके पहले भी बड़े नेता पार्टी छोड़ते
रहे हैं। पर समय-समय का फेर होता है। यह वक्त कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं है। उसका
भविष्य धूमिल है, संगठन तार-तार हुआ जा रहा है। एक अरसे से सुलग रही भीतरी आग हवा
के इस झोंके से और भड़क सकती है। भीतर के झगड़े अब खुलकर सामने आ सकते हैं। सवाल
केवल मध्य प्रदेश की सरकार का नहीं है, बल्कि कांग्रेस की समूची
सियासत और उसके नेतृत्व का है।
यह कहना जल्दबाजी
होगी कि सत्ता के लोभ में सिंधिया पार्टी छोड़कर भागे हैं। माना जा सकता है कि
उन्हें बीजेपी में अपना भविष्य बेहतर लगा होगा, पर असली वजह यह नहीं है। वास्तव
में वे पार्टी में खुद को अपमानित महसूस कर रहे थे। यह प्रकरण इस बात को रेखांकित
कर रहा है कि कुछ और युवा नेता भी ऐसा ही महसूस कर रहे हैं। इससे साबित यह भी होता
है कि राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व क्षीण होता जा रहा है। इस स्तर के नेता को इस कदर
हाशिए पर डालकर नहीं चला जा सकता था।
यह पलायन बता रहा
है कि पार्टी के भीतर बैठे असंतोष को दूर नहीं किया गया, तो ऐसा ही कुछ और भी हो सकता है। अपनी इस दुर्दशा पर पार्टी
अब चिंतन नहीं करेगी, तो कब करेगी? पार्टी नेतृत्व के सवाल
को ही तय नहीं कर पाई है। वह एक अंतरिम व्यवस्था करके बैठी है। अब कांग्रेस के
सामने दो बड़े सवाल हैं। एक, पहले से ही जर्जर नेतृत्व
की साख को फिर से स्थापित कैसे क्या जाए? दूसरे पार्टी के युवा नेताओं को किस प्रकार प्रोत्साहित किया जाएगा? हताशा बढ़ रही है। इस
परिघटना का डोमिनो प्रभाव होगा। यानी कुछ और पलायन होंगे। उधर बैकफुट पर नजर आ रही
बीजेपी को मध्य भारत में फिर से पैर जमाने का मौका मिल गया है।
मध्य प्रदेश में
सरकार बनाने के अलावा भाजपा राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट झटकने में भी कामयाब हो
सकती है। राजनीतिक दृष्टि से केंद्र में युवा और प्रभावशाली मंत्री के रूप में
ज्योतिरादित्य के प्रवेश का रास्ता खुल गया है। प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी
सिंधिया अच्छे वक्ता हैं और समझदार राजनेता। पन्द्रह महीने पहले मध्य प्रदेश और
राजस्थान ने कांग्रेस के पुनरोदय की उम्मीदें जगाई थीं, पर अब दोनों राज्य नकारात्मक संदेश भेज रहे हैं।
इस घटनाक्रम का
पहला असर 26 मार्च के राज्यसभा चुनाव पर पड़ेगा और देर-सबेर
राजस्थान सरकार पर भी। विफल पार्टी के रूप में कांग्रेस की ख्याति उसके सहयोगी
दलों को भी दूर करेगी। बिहार, असम और पश्चिम बंगाल विधानसभाओं के चुनावों में
पार्टी को सफलता नहीं मिली, तो यह नकारात्मकता और बढ़ेगी। विडंबना है कि कमलनाथ मध्य
प्रदेश में कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए वैसे ही प्रयास कर रहे हैं, जैसे
कर्नाटक में हुए थे। इन प्रयासों से जो संदेश जाएगा, उसपर भी पार्टी को विचार करना
चाहिए।
पार्टी के भीतर
प्रत्यक्ष में जो चल रहा है, उसकी तुलना में परोक्ष बातें भी सामने आ रही हैं। एक
ट्वीट से जानकारी मिली कि वरिष्ठ नेता राजीव शुक्ला ने गुजरात से राज्यसभा का टिकट
लेने से इनकार करके मिसाल कायम की है। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि यह गुजरात के
स्थानीय नेताओं के गुस्से को देखते हुए उन्हें टिकट नहीं दिया गया। सवाल है कि इस
मामले को ट्विस्ट क्यों दिया गया? बहुत से मामलों में पार्टी के भीतर अहमद पटेल और राहुल गांधी के अलग-अलग नजरिए
हैं। राज्य स्तर पर भी नेताओं की आपसी स्पर्धा है और अपने-अपने समर्थकों को टिकट
दिलाने की होड़। सिंधिया के पलायन
के फौरन बाद कर्नाटक कांग्रेस का अध्यक्ष पद डीके शिवकुमार को दे दिया गया। यह
फैसला अरसे से रुका हुआ था। पार्टी के भीतर ऐसी तमाम पहेलियाँ हैं। हरिभूमि
में प्रकाशित
विचारधारा एक ढोँग हो गयी है। कल को घर वापसी हो जायेगी और किसी को शर्म नहीं आयेगी। मतदाता के लिये कुछ बचा नहीं है।
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