ज्योतिरादित्य
सिंधिया का कांग्रेस पार्टी को छोड़कर जाना पहली नजर में एक सामान्य राजनीतिक
परिघटना लगती है. इसके पहले भी नेता पार्टियाँ छोड़ते रहे हैं. पर इसका कांग्रेस
और बीजेपी दोनों के लिए विशेष महत्व है. वे कांग्रेस के महत्वपूर्ण चेहरों में शामिल
रहे और अब बीजेपी की अगली कतार में होंगे. वे देश के महत्वपूर्ण भावी नेताओं में
से एक हैं. यह एक नेता का पलायन भर नहीं है. पार्टी के भीतर एक अरसे से सुलग रही आग इस
बहाने से भड़क सकती है. उसके भीतर के झगड़े अब खुलकर सामने आ सकते हैं.
दूसरी तरफ बीजेपी के अंतर्विरोध भी खुलेंगे. ग्वालियर क्षेत्र में उसकी राजनीति केंद्र-बिंदु राजमहल का विरोध था. अब उसे सिंधिया परिवार के महत्व को स्थापित करना होगा. इतना ही नहीं मध्य प्रदेश के स्थानीय क्षत्रप एक नए शक्तिशाली नेता के साथ कैसे सामंजस्य बैठाएंगे, यह भी देखना होगा. एक अंतर है. बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व, कांग्रेस के नेतृत्व की तुलना में ज्यादा ताकतवर है. सवाल है, कितना और कब तक?
दूसरी तरफ बीजेपी के अंतर्विरोध भी खुलेंगे. ग्वालियर क्षेत्र में उसकी राजनीति केंद्र-बिंदु राजमहल का विरोध था. अब उसे सिंधिया परिवार के महत्व को स्थापित करना होगा. इतना ही नहीं मध्य प्रदेश के स्थानीय क्षत्रप एक नए शक्तिशाली नेता के साथ कैसे सामंजस्य बैठाएंगे, यह भी देखना होगा. एक अंतर है. बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व, कांग्रेस के नेतृत्व की तुलना में ज्यादा ताकतवर है. सवाल है, कितना और कब तक?
अब सवाल केवल
मध्य प्रदेश की सरकार का नहीं है, बल्कि कांग्रेस की समूची
सियासत और उसके नेतृत्व का है. यह कहना जल्दबाजी होगी कि सत्ता के लोभ में सिंधिया
पार्टी छोड़कर भागे हैं. वास्तव में वे पार्टी में खुद को अपमानित महसूस कर रहे
थे. यह प्रकरण इस बात को भी रेखांकित कर रहा है कि कुछ और युवा नेता भी ऐसा ही महसूस
कर रहे हैं. इस स्तर के नेता को इस कदर हाशिए पर डालकर नहीं चला जा सकता था.
लोकसभा के लगातार
दूसरे चुनाव में भारी पराजय से पीड़ित कांग्रेस जब इतिहास के सबसे बड़े संकट का
सामना कर रही थी, इतने बड़े नेता का साथ छोड़ना बड़ा हादसा है. यह
पलायन बता रहा है कि पार्टी के भीतर बैठे असंतोष को दूर नहीं किया गया, तो ऐसा ही कुछ और भी हो सकता है. अपनी इस दुर्दशा पर पार्टी
अब चिंतन नहीं करेगी, तो कब करेगी? वह नेतृत्व के सवाल
को ही तय नहीं कर पाई है और एक अंतरिम व्यवस्था करके बैठी है.
कांग्रेस के
सामने आज नेतृत्व, संगठन और रणनीति का सवाल है. इसके साथ ही
विचारधारा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उसके सामने हैं. क्या कारण है कि वोटर
उसकी ‘विचारधारा’ के साथ खुद को जोड़ नहीं पा रहा है? उसे यह विचार भी करना चाहिए
कि उसके बरक्स
बीजेपी अपनी ‘विचारधारा’ को जनता से जोड़ पाने में कामयाब क्यों हो रही है? या फिर वह अपनी विचारधारा को प्रभावशाली तरीके से जनता के सामने क्यों नहीं रख
पा रही है? ज्योतिरादित्य ने पार्टी अध्यक्ष को जो पत्र लिखा है, उसमें ‘विचारधारा’ पर कोई बात नहीं है.
हालांकि बातें
विचारधारा की होती हैं, पर शाहबानो प्रकरण से लेकर मंडल-कमंडल तक कांग्रेस पार्टी
के भीतर विचारधारा को लेकर कोई विमर्श नहीं हुआ. ‘विचारधारा’ के मुकाबले कांग्रेस
पार्टी के सामने नेतृत्व का प्रश्न ज्यादा बड़ा रहता है. उसके भीतर का सारा विमर्श
व्यक्तियों और ‘परिवार’ तक सीमित रहा. कोई वजह है कि पार्टी ‘परिवार’ के बाहर अपना
नेता भी नहीं खोज पा रही है.
अब कांग्रेस के सामने दो बड़े सवाल हैं. एक, पहले से ही जर्जर नेतृत्व की साख को फिर से स्थापित कैसे क्या
जाएगा? दूसरे पार्टी के युवा
नेताओं को किस प्रकार प्रोत्साहित किया जाएगा? हताशा बढ़ रही है. पार्टी
को यह जबर्दस्त धक्का और चेतावनी है. इतना ही नहीं इस परिघटना का डोमिनो प्रभाव
होगा. उधर बैकफुट पर नजर आ रही बीजेपी को मध्य भारत में फिर से पैर जमाने का मौका
मिल गया है.
मध्य प्रदेश में
सरकार बनाने के अलावा भाजपा राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट झटकने में भी कामयाब हो
सकती है. राजनीतिक दृष्टि से केंद्र में युवा और प्रभावशाली मंत्री के रूप में
ज्योतिरादित्य के प्रवेश का रास्ता खुल गया है. प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी
सिंधिया अच्छे वक्ता हैं और समझदार राजनेता. पन्द्रह महीने पहले मध्य प्रदेश और
राजस्थान ने कांग्रेस के पुनरोदय की उम्मीदें जगाई थीं, पर अब दोनों राज्य नकारात्मक संदेश भेज रहे हैं.
मंगलवार को
ज्योतिरादित्य के इस्तीफे के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ट्वीट
किया, ‘सिंधिया ने न केवल जनता से, बल्कि विचारधारा से दगा की है. ऐसे लोग साबित कर रहे हैं कि
वे सत्ता-सुख के बगैर नहीं रह सकते. वे जितनी जल्दी चले जाएं उतना अच्छा.’ कौन हैं
‘ऐसे लोग?’ किसके लिए है यह इशारा?
आपसी टकराव
स्पष्ट है. कमान बेशक सोनिया गांधी के हाथ में है, पर भविष्य का
नेतृत्व स्पष्ट नहीं है. कार्यकर्ता का भरोसा कम होता जा रहा है. इस घटनाक्रम का
पहला असर 26 मार्च के राज्यसभा चुनाव पर पड़ेगा और देर-सबेर
राजस्थान सरकार पर भी. विडंबना है कि कमलनाथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को
बचाने के लिए वैसे ही प्रयास कर रहे हैं, जैसे कर्नाटक में हुए थे. यानी कि भी कुछ
और तमाशा देखने को मिलेगा.
यह घटनाक्रम एक
हफ्ते की कहानी नहीं है, बल्कि इसके पीछे सिंधिया
परिवार का दीर्घकालीन आक्रोश है. इस आक्रोश ने डेढ़ साल पहले दिसम्बर 2018 में निर्णायक मोड़ ले लिया था, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया को उपयुक्त पद से वंचित किया गया.
सिंधिया परिवार का आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ भी अब बीजेपी के साथ आ चुका
है. इस परिवार का आंशिक रूप से ही सही मध्य प्रदेश की राजनीति पर असर है.
पिछले कुछ महीनों
से सिंधिया बार-बार संकेत दे रहे थे कि उनके मन में कुछ चल रहा है. नवम्बर के
महीने में उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट से
अपना 'कांग्रेसी परिचय' हटाया. लोकसभा
चुनाव में गुना से हार के बाद उनकी पार्टी में उपेक्षा होने लगी थी. वे मानते थे
कि उनकी किनाराकशी के पीछे दिग्विजय सिंह और कमलनाथ का हाथ है. यानी सवाल
मूल्यों-मर्यादाओं से नहीं, शुद्ध व्यक्तिगत स्वार्थों से जुड़े हैं.
प्रदेश में अब राज्यसभा
के लिए खाली होने वाली तीन सीटों के निर्वाचन के लिए गतिविधियाँ बढ़ी हैं.
ज्योतिरादित्य के हटने के पहले तक बीजेपी और कांग्रेस की एक-एक सीट पक्की थी.
तीसरी सीट पर कांग्रेस की स्थिति बेहतर थी,
पर अब समीकरण बदल
गया है. सवाल केवल एक सीट का नहीं है. देखते रहिए, यह प्रकरण कांग्रेस की समूची
राजनीति को प्रभावित करेगा.
चोर और चोर के मौसेरे भाई चोर आम आदमी आम खास आदमी खास हमारा राषट्रीय चरित्र नहीं बदलेगा।
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