पिछली 29 फरवरी को दोहा में अमेरिका, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच
हुए क़तर दोहा में
हुए समझौते में इतनी सावधानी बरती गई है कि उसे कहीं भी 'शांति समझौता' नहीं लिखा गया है। इसके बावजूद इसे दुनियाभर में शांति समझौता कहा जा रहा है।
दूसरी तरफ पर्यवेक्षकों का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान अब एक नए अनिश्चित दौर में
प्रवेश करने जा रहा है। अमेरिका की दिलचस्पी अपने भार को कम करने की जरूर है, पर
उसे इस इलाके के भविष्य की चिंता है या नहीं कहना मुश्किल है।
फिलहाल इस समझौते का एकमात्र उद्देश्य अफ़ग़ानिस्तान में
तैनात 12,000 अमेरिकी सैनिकों की वापसी तक सीमित नज़र आता है। यह सच है कि इस
समझौते के लागू होने के बाद अमेरिका की सबसे लंबी लड़ाई का अंत हो जाएगा, पर क्या
गारंटी है कि एक नई लड़ाई शुरू नहीं होगी? मध्ययुगीन
मनोवृत्तियों को फिर से सिर उठाने का मौका नहीं मिलेगा? दोहा में धूमधाम से हुए समझौते ने तालिबान को
वैधानिकता प्रदान की है। वे मान रहे हैं कि उनके मक़सद को पूरा करने का यह सबसे
अच्छा मौक़ा है। वे इसे अपनी ‘विजय’ मान रहे हैं।
अमेरिकी मकसद?
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सन 2016 के अपने चुनाव प्रचार
के दौरान कहा था कि मैं अमेरिका के इस ‘अनिश्चित युद्ध’
को समाप्त करूँगा। अफगानिस्तान के पहले उन्होंने सीरिया से अपनी फौजें हटाईं जहाँ
इन दिनों फिर से युद्ध की ज्वालाएं भड़क रही हैं। अफगानिस्तान में अब क्या होगा,
इसे लेकर कयास हैं। बेशक इसे अनंत काल तक नहीं चलाया जा सकता और तालिबान के साथ
बात करने में भी कोई खराबी नहीं है, पर इस इलाके से अंतरराष्ट्रीय सेनाओं की वापसी
भी कोई विकल्प नहीं है।
तालिबान के साथ जो समझौता हुआ है, वह पूरी तरह दुनिया की
जानकारी में नहीं है। शायद कभी होगा भी नहीं, क्योंकि इसके ज्यादातर
उपबंध गोपनीय हैं। जो सामने है उसके अनुसार अमेरिकी सेनाएं अगले 14 महीनों में
अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर चली जाएंगी। अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत
शुरू होगी। ‘अल्लाहू अकबर’ के नारों के
बीच हुए दस्तखत के इस मौके पर अमेरिकी विदेशमंत्री माइक पॉम्पियो भी इस मौके पर मौजूद थे। दोहा
में जब यह समझौता हो रहा था रक्षामंत्री मार्क एस्पर काबुल में अफ़ग़ान राष्ट्रपति
अशरफ़ ग़नी के साथ बातचीत कर रहे थे।
समझौते के अनुसार अगले 135 दिनों में सैनिकों की वर्तमान
संख्या वर्तमान 13,000 से कम करके 8,600 कर दी जाएगी। अमेरिका के सहयोगी देशों यानी
नेटो के सैनिक भी अफ़ग़ानिस्तान में हैं। अनुमान है कि इनकी संख्या 16,000 है।
पहले चरण में उनकी संख्या में भी आनुपातिक कमी करके उनकी संख्या 12,000 कर दी
जाएगी। समझौते के अनुरूप तालिबान का व्यवहार रहा, तो 14 महीने में सभी सैनिक हट
जाएंगे। नेटो के महासचिव जेम्स स्टोल्टेनबर्ग भी 29 को काबुल में थे। भारत के
विदेश सचिव भी काबुल गए थे।
भारतीय दृष्टि
समझौते का पहला निष्कर्ष है कि तालिबान को वैश्विक
वैधानिकता मिल गई। तालिबान ने अलकायदा
रिश्तों को खत्म करने और इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई जारी रखने का वायदा किया
है। देखना होगा कि अमेरिका की वापसी के बाद क्या अफ़ग़ान सेनाएं देश को अपने कब्जे
में कामयाब हो भी पाएंगी या नहीं। भारतीय दृष्टि से अब कम से कम तीन बातों पर हमें
गौर करना होगा। 1.अगले 14 महीनों में तालिबान का रुख क्या रहेगा, 2.केवल तालिबान
का ही नहीं पाकिस्तान का रवैया क्या रहेगा और 3.भारत और अमेरिका के बीच तालमेल किस
प्रकार का होगा। इन तीन बातों से जुड़ा एक सवाल और है। क्या भारत की अफ़ग़ानिस्तान
में सैनिक भूमिका संभव है? पहली नजर में
इस बात का जवाब है कि भारतीय सेनाओं की अफ़ग़ानिस्तान में तैनाती की कल्पना नहीं
करनी चाहिए।
भारतीय सेनाएं अंतरराष्ट्रीय शांति अभियानों में जाती हैं,
पर तभी जब संयुक्त राष्ट्र कहता है। यह बात सही है, पर श्रीलंका और मालदीव जैसे
देशों में जरूरत पड़ने पर हमारी सेना की तैनाती हो चुकी है। अफ़ग़ान सेना को हमने
हथियार, अटैक हेलिकॉप्टर और दूसरे उपकरण दिए हैं। उनके सैनिक अफसरों को भारत में
ट्रेनिंग दी जाती है। भारतीय इंजीनियर वहाँ सड़कों, बाँधों और रेल लाइनों के
निर्माण में लगे हैं। उनकी सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी भी भारतीय सुरक्षा बलों
की है। काबुल स्थित भारतीय दूतावास और चार वाणिज्य दूतावासों की सुरक्षा के लिए
भारतीय कमांडो तैनात हैं। दिल्ली में अफ़ग़ान दूतावास की सुरक्षा की जिम्मेदारी
भारतीय कमांडो देखते हैं।
पाकिस्तानी दिलचस्पी
ज्यादा महत्वपूर्ण है पाकिस्तानी भूमिका। पाकिस्तान के
विदेशमंत्री महमूद शाह कुरैशी दोहा में समझौते के वक्त उपस्थित थे। पाकिस्तान के
इशारे पर अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय प्रतिष्ठानों पर हमले होते रहे हैं। दोहा में
हुए इस समझौते से सबसे ज्यादा उत्साह पाकिस्तान में है। उन्हें लगता है कि अमेरिका
की हार हो गई और तालिबान की जीत हो गई, जो अपना ही चेला है। वे मानते हैं कि यह
भारत की हार है। अफगानिस्तान को पाकिस्तान अपनी डीप डिफेंस योजना का हिस्सा मानता है। अस्सी के दशक में अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन को कश्मीर में हिंसा
फैलाने के लिए भेजा गया। क्या पाकिस्तान फिर से उसी रास्ते पर जाएगा?
अफ़ग़ानिस्तान पर पाकिस्तानी नज़रिया हमेशा भारत के संदर्भ
में होता है। इसका रोचक नमूना पिछले हफ्ते देखने को मिला। पाकिस्तानी अख़बार नवा-ए-वक़्त के
अनुसार पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान
शांति समझौते में रुकावट डालने की पूरी कोशिश की लेकिन उसमें वह बुरी तरह नाकाम
रहा। क़ुरैशी के अनुसार अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते के लिए पूरी दुनिया
पाकिस्तान के किरदार का लोहा मान रही है। उधर अख़बार दुनिया ने लिखा, अमेरिका और
तालिबान के बीच समझौते से भारत चारों ख़ाने चित हो गया है।
तालिबानी दर्शन
इस समझौते के बाद
कुछ बुनियादी बातें उठेगी। सिराजुद्दीन हक्कानी ने
न्यूयॉर्क टाइम्स में 21 फरवरी को प्रकाशित अपने ऑप एड में कहा, ‘…हमें उम्मीद है कि विदेशी प्रभुत्व और हस्तक्षेप से मुक्त होकर हम सभी
अफगानों की एक ऐसी ‘इस्लामिक व्यवस्था
कायम करने में कामयाब होंगे, जहाँ सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे, स्त्रियों को
इस्लाम ने जो अधिकार दिए हैं-शिक्षा और काम करने का-उनकी रक्षा होगी और सबको अपनी
गुणवत्ता के आधार पर समान अवसर मिलेंगे।’
स्त्रियों और आधुनिक शिक्षा के बारे में तालिबानी दृष्टिकोण से सभी परिचित
हैं। शरिया कानूनों के लागू करने के बारे में उनके नजरिए से सभी परिचित हैं। क्या
तालिबानी दृष्टि में अब बदलाव आएगा? ऐसा कोई संकेत तो
अभी तक नहीं है। कहा जा रहा है कि समझौते के अंतर्गत अफ़ग़ानिस्तान सरकार 5000
तालिबानियों को जेलों से रिहा करेगी। ऐसा हुआ, तो उसका सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव
होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। अफ़ग़ान राष्ट्रपति ने इस माँग को नामंजूर किया है। दूसरी तरफ
तालिबान ने कहा है कि कैदी रिहा नहीं हुए, तो हम सरकार से बात नहीं करेंगे। उन्होंने अफ़ग़ान
सेना पर फिर से हमले शुरू कर दिए हैं। तालिबान का
असर मुख्यतः पश्तून इलाकों में है। देश के हाजरा, उज्बेक और ताजिक इलाके के लोगों
पर वे हावी रहने का प्रयास करते हैं।
सवाल यह भी है कि
क्या अब हम भी तालिबान के साथ अपने रिश्ते बनाएंगे। अफगानिस्तान युद्ध के दौरान
भारत के रिश्ते नॉर्दर्न अलायंस यानी ताजिक मूल के नेतृत्व के साथ थे। पर अब उन तालिबानी समूहों के साथ भी रिश्ते बनाने होंगे, जिनका प्रभाव ईरान
से लगी अफगान सीमा पर है। देश के नवनिर्माण में पैसा लगाने वाली सबसे
बड़ी क्षेत्रीय शक्ति भारत है।
वहाँ का संसद भवन भारत ने बनाकर दिया है। साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझ रहे
अफ़ग़ानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था। हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना। यह बांध 30 करोड़ डॉलर (क़रीब 2040 करोड़
रुपये) की लागत से बनाया गया। कंधार में अफ़ग़ान नेशनल एग्रीकल्चर साइंस ऐंड
टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी की स्थापना और काबुल में यातायात के सुधार के लिए भारत 1000
बसें दे रहा है।
अफ़ग़ानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की
सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भी भारत भूमिका निभा
रहा है। पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को
अफगानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी।
इसके विकल्प में भारत चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन तैयार कर रहा है। भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में
जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो
निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है। बहरहाल आगे-आगे देखिए होता है क्या।
No comments:
Post a Comment