शुक्रवार को
सुप्रीम के एक पीठ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में वकीलों की हड़ताल से जुड़े एक मामले
में टिप्पणी की कि संविधान विरोध और असंतोष व्यक्त करने का अधिकार सबको देता है, पर यह अधिकार दूसरे नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं
कतर सकता। हालांकि इस टिप्पणी का दिल्ली की हिंसा से सीधा रिश्ता नहीं है, पर प्रकारांतर से है। पिछले ढाई महीने से एक सड़क रोककर
शाहीनबाग का आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की भावना को लेकर अलग बहस है, पर इसे चलाने वालों के अधिकार को लेकर किसी को आपत्ति नहीं
है। आखिरकार यह हमारे उस लोकतंत्र की ताकत है,
जिसकी बुनियाद
में आंदोलनों का लंबा इतिहास है।
महात्मा गांधी ने
इन आंदोलनों का संचालन किया और चौरीचौरा की तरह जब भी मर्यादा का उल्लंघन हुआ, उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया। सवाल है कि क्या आधुनिक
राजनीति उन नैतिक मूल्यों के साथ खड़ी है? इन दंगों ने दिल्ली को
दहला कर रख दिया है। एक से एक अमानवीय क्रूर-कृत्यों की कहानियाँ सामने आ रही हैं।
लंबे समय से सामाजिक जीवन में घुलता जा रहा जहर बाहर निकलने को आतुर था, और वह निकला। स्थानीय कारणों ने उसे भड़कने में मदद की।
मस्जिद पर हमले हुए और स्कूल भी जलाए गए। कई तरह की पुरानी रंजिशों को भुनाया गया।
निशाना लगाकर दुकानें फूँकी गईं, गाड़ियाँ जलाई गईं। यह सब अनायास नहीं हुआ।
क्रूरता की कहानियाँ इतनी भयानक हैं कि उन्हें सुनकर किसी का भी दिल दहल जाएगा।
दिल्ली शहर
शर्मिंदा है। इस शर्मिंदगी का इजहार मोमबत्ती जुलूसों और दर्द भरे ट्वीट से नहीं
हो सकता। उन गरीबों के बारे में सोचिए, जिनके सारे सपने इस दंगे
ने हमेशा के लिए उजाड़ कर रख दिए। जो कहानियाँ सामने आ रहीं हैं, उन्हें सुनकर नहीं लगता कि यह दंगा अनायास था। इसके पीछे
लंबी तैयारी साफ नजर आती है। और यह भी नजर आता है कि यह देश और समाज को भीतर से
तोड़ने की कोशिश है। ऐसे में दो-चार अपराधियों की पकड़-धकड़ के कोई मायने नहीं
हैं। असल सवाल है कि कौन सी ताकत इस फसाद के पीछे थी? इस बात की जाँच होनी ही चाहिए।
माना जा रहा है
कि यह दंगा इसलिए बढ़ा, क्योंकि पुलिस ने
कार्रवाई करने में देरी की। पहली नजर में यह बात सच लगती है, पर ऐसा क्यों हुआ? इसी पुलिस ने पिछले ढाई महीने से हालात को काबू में करके रखा था। शाहीनबाग के
आंदोलनकारियों की रक्षा यही पुलिस कर रही थी। क्या पुलिस धोखे में रही? पुलिस को जिम्मेदार ठहराना सबसे आसान है, पर यह दंगा पुलिस की देन नहीं है। बेशक वह इसके वेग को रोक
नहीं पाई, पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि फसाद शुरू क्यों हुआ? एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पहले तीन दिन में कम से कम 82 लोगों को गोलियाँ लगीं। दिल्ली पुलिस के हैड कांस्टेबल रतन
लाल की मौत गोली लगने से हुई।
किसने चलाई
गोलियाँ? पुलिस ने तो नहीं चलाई। फिर कहाँ से आई
पिस्तौलें? इस दंगे की तैयारी से आँखें फेरना भी अनुचित
होगा। हाँ यह दिल्ली पुलिस की गलती है कि वह इसका अनुमान नहीं लगा पाई, पर दिसम्बर में जब जामिया में आंदोलन चल रहा था, तब दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने दक्षिण पूर्व जिले की
पुलिस को पत्र भेजकर सूचित किया था कि इस बात का अंदेशा है कि आंदोलन में बड़े
स्तर पर हिंसा होगी। और इस बात की कोशिश की जाएगी कि यह किसी तरह से काबू के बाहर
हो जाए। कोशिश हुई भी पर पुलिस ने हालात को काबू में रखा। इसबार हिंसा ऐसे इलाके
में हुई है, जिसे लेकर पहले से माना जाता है कि वहाँ असलहों
की भरमार है। दिसम्बर में भी इस इलाके में छुट-पुट वारदातें हुईं थीं, पर लगता है
कि इसबार कोई बड़ी योजना थी।
घूम फिरकर बात
अपराधियों पर आती है, पर अपराधी कहाँ से आते
हैं? वे राजनीति की देन हैं। दिल्ली के फसाद का पहला
संदेश है कि राजनीतिक दलों के सरोकार बहुत संकीर्ण हैं और वे फौरी लाभ उठाने से
आगे सोच नहीं पाते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे अपराधियों का सहारा लेते हैं। वे
जनता से कट रहे हैं और ट्विटर के सहारे जग जीतना चाहते हैं। यह इलाका पश्चिमी
उत्तर प्रदेश से सटा हुआ है। इस इलाके में पिछले कई वर्षों से साम्प्रदायिक
कड़वाहट बढ़ रही है। उसके पीछे भी वोट की राजनीति है। दिसम्बर के महीने में
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ हुए आंदोलन की चिंगारियाँ भी
कहीं न कहीं सुलगी हुई थीं। फसाद को लेकर कई तरह की थ्योरियाँ सामने आ रही हैं।
इसमें पूरी तरह से नहीं, तो आंशिक रूप से पश्चिमी
उत्तर प्रदेश की सामाजिक उथल-पुथल का भी हाथ है।
सवाल यह भी है कि
ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान फसाद भड़कने के पीछे क्या कोई राजनीतिक साजिश थी? ऐसी साजिशें इसके पहले भी अमेरिकी राष्ट्रपतियों की यात्रा
के दौरान होती रही हैं। यों भी भारतीय व्यवस्था को बदनाम करने की कोशिशें होती ही
रही हैं। ऐसे कुछ सवाल अभी और सामने आएंगे। भारत की राजनीति को अपनी राजधानी से
उठे इन सवालों के जवाब देने चाहिए। यों भी राजनीति का अंतिम ध्येय चुनाव जीतना और
सत्ता हासिल करना रह गया है। उसे सामाजिक जीवन के स्वास्थ्य की फिक्र है ही नहीं।
वास्तविकता यह है
कि नागरिकता कानून, जनगणना से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर
(एनपीआर) और असम की एनआरसी की प्रक्रिया ने सामान्य मुसलमान के मन में डर पैदा कर
दिया है। राजनीतिक दलों की दिलचस्पी इस डर को बढ़ाने तक सीमित है। वे सांविधानिक
संस्थाओं का उल्लेख जरूर करते हैं, पर घूम फिरकर उसकी
कमजोरियों और सीमाओं की आड़ में छिप जाते हैं। वे समाज को यह समझाने में नाकामयाब
हैं कि हम सांविधानिक संस्थाओं की मदद से लड़ाई लड़ेंगे और किसी नागरिक का अहित
नहीं होने देंगे।
पुलिस प्रशासन ने
कार्रवाई करने में देरी की, पर देरी तो कई और जगह हुई
है। शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों के साथ कोर्ट के मध्यस्थों की वार्ता का कोई
परिणाम नहीं निकला। कब निकलेगा? चुनाव के दौरान हेट स्पीच
के आरोपों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। कब होगी?
जामिया आंदोलन के दौरान पत्थरबाजी क्यों हुई, इसकी जाँच
नहीं हो पाई। ऐसी देरियाँ हालात को और बिगाड़ती हैं।
आपका लेख लोगों के अनुभव के हिसाब से सही नहीं है, पुलिस की भूमिका के लिए लोगों के अनुभव और सीसीटीवी फुटेज के एतबार से भी रिपोर्टिंग होनी चाहिए, 3 दिन तक दंगाग्रस्त इलाकों में पुलिस की निष्क्रियता की जांच भी होनी चाहिए।
ReplyDeleteबहुत सटीक और सामयिक सर
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