यह साल सन 2019 के पहले चुनाव के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण साल है. चुनाव आयोग ने जिन पांच राज्यों में चुनाव की तारीखें घोषित की हैं उनके अलावा गुजरात और हिमाचल प्रदेश दो राज्य और बचे हैं, जहाँ साल के अंत में चुनाव होंगे. इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होने वाले हैं. इस लिहाज से चुनाव की जो बयार अब बहनी शुरू हुई है वह साल भर बहेगी. केवल बहेगी ही नहीं तमाम नेताओं का राजनीतिक भविष्य लिख कर जाएगी.
स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे. साल का सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? यानी कि लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी लोकप्रियता में गिरावट रुकेगी या बढ़ेगी? देश की नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी इस साल परीक्षा है. क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी?
इन चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक समीकरणों की आहट भी सुनाई पड़ेगी.अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद यादव और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेता एक नए गठबंधन की तैयारी भी कर रहे हैं. यह गठबंधन कांग्रेस के साथ होगा या नहीं, यह सवाल अभी अपनी जगह है. फिलहाल पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस पार्टी आक्रामक तेवरों के साथ सामने आई है. इसका फायदा उसे मिलेगा या नहीं यह उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में देखने को मिलेगा.
राष्ट्रीय मुद्दों के लिहाज से देखें तो अलावा सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे सवालों पर जनता की राय का पता भी लगेगा. चुनाव की घोषणा के दो रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैर-कानूनी है. इसलिए यह देखना भी रोचक होगा कि चुनाव आयोग इस प्रवृत्ति पर किस तरह से रोक लगाएगा. इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है. सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की है. इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं.
संयोग से जिस दिन इस फैसले की खबर चैनलों पर प्रसारित हो रही थी उस दिन मायावती की उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के नाम अपील भी आ रही थी कि वे अपना वोट बँटने न दें. उनका इशारा समाजवादी पार्टी के भीतर चल रही लड़ाई के मद्देनजर था. हमारे देश की राजनीति में धर्म ने अपनी गहरी जड़ें जमाईं हैं. एक तबका तो यह मानता है कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता. धर्म से किसका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं है. जब हम उसकी परिभाषा करते हैं तब काफी उदार होते हैं, पर जब वोट माँगते हैं, तब संकीर्ण हो जाते हैं. जब नफरत की आँधी बहती है तो चपेट में धर्म का उदार स्वरूप सबसे पहले आता है.
भारत की समूची राजनीतिक प्रक्रिया काले धन के सहारे चलती है. यह चुनाव विमुद्रीकरण के फौरन बाद हो रहा है. क्या नोटबंदी का असर इसपर पड़ेगा, यह भी देखना होगा. बाकी क्षेत्रों में काले धन का इस्तेमाल तभी कम हो सकता है, जब राजनीति की कोठरी से कालिख हटे. चुनाव आयोग की सलाह है कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए. उसके अनुसार 2000 रुपये तक के चंदे को भी रिकॉर्ड में लाना चाहिए. पर यह फैसला सरकार को करना है, जिसके लिए आयकर कानूनों में संशोधन करना होगा. नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में इस बात से सहमति व्यक्त की है कि चंदे को पारदर्शी बनाया जाए, पर इस सिलसिले में ठोस काम किए बगैर किसी बात का कोई मतलब नहीं.
चुनाव आयोग को चुनाव प्रचार पर खासतौर से ध्यान रखना होगा. सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहरीली भाषा के इस्तेमाल की शिकायतें आईं थीं. केवल राजनीतिक नेताओं ही नहीं मीडिया पर भी नजरें रखने की जरूरत है, क्योंकि एक अरसे से भारतीय मीडिया पर पक्षपात बरतने के आरोप लगने लगे हैं. आयोग ने इस बार उन चैनलों पर नजर रखने की तैयारी की है जिनमें राजनेताओं का मालिकाना हक है. आयोग ने पेड न्यूज पर भी नजर रखने का दावा किया है. पर इसकी प्रभावशाली व्यवस्था को बनाने में हम अभी पूरी तरह सफल नहीं हैं.
जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं राजनीतिक असर के लिहाज से उनमें उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण है. सबसे लंबी चुनाव प्रक्रिया उत्तर प्रदेश में ही होगी, जहाँ सात चरणों में मतदान होने वाला है. क्या भारतीय जनता पार्टी इस राज्य पर भी कब्जा करेगी? सवाल है कि उत्तर प्रदेश में कितने कोनों का चुनाव होगा? समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह का निपटारा होने में देर हुई तो उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा. दूसरी ओर यदि अखिलेश यादव और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो गया तो एक नई ताकत का उत्तर प्रदेश में उदय होगा. ऐसा हुआ तो उससे बड़ा नुकसान बसपा का होगा.
उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत या हार नरेंद्र मोदी के राजनीतिक भविष्य को तय करेगी. सन 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश ने 80 में से 73 सीटे बीजेपी को दी थीं. ये चुनाव इस बात का संकेत करेंगे कि सन 2019 के आसार क्या हैं. एक तरह से यह 2019 की तैयारी की घोषणा है. चुनाव-पूर्व और चुनाव-बाद के गठबंधनों से इस बात का पता लगेगा कि एनडीए के मुकाबले कोई एक राष्ट्रीय ताकत जन्म ले भी पाएगी या नहीं. inext में प्रकाशित
स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे. साल का सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? यानी कि लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी लोकप्रियता में गिरावट रुकेगी या बढ़ेगी? देश की नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी इस साल परीक्षा है. क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी?
इन चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक समीकरणों की आहट भी सुनाई पड़ेगी.अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद यादव और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेता एक नए गठबंधन की तैयारी भी कर रहे हैं. यह गठबंधन कांग्रेस के साथ होगा या नहीं, यह सवाल अभी अपनी जगह है. फिलहाल पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस पार्टी आक्रामक तेवरों के साथ सामने आई है. इसका फायदा उसे मिलेगा या नहीं यह उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में देखने को मिलेगा.
राष्ट्रीय मुद्दों के लिहाज से देखें तो अलावा सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे सवालों पर जनता की राय का पता भी लगेगा. चुनाव की घोषणा के दो रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैर-कानूनी है. इसलिए यह देखना भी रोचक होगा कि चुनाव आयोग इस प्रवृत्ति पर किस तरह से रोक लगाएगा. इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है. सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की है. इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं.
संयोग से जिस दिन इस फैसले की खबर चैनलों पर प्रसारित हो रही थी उस दिन मायावती की उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के नाम अपील भी आ रही थी कि वे अपना वोट बँटने न दें. उनका इशारा समाजवादी पार्टी के भीतर चल रही लड़ाई के मद्देनजर था. हमारे देश की राजनीति में धर्म ने अपनी गहरी जड़ें जमाईं हैं. एक तबका तो यह मानता है कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता. धर्म से किसका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं है. जब हम उसकी परिभाषा करते हैं तब काफी उदार होते हैं, पर जब वोट माँगते हैं, तब संकीर्ण हो जाते हैं. जब नफरत की आँधी बहती है तो चपेट में धर्म का उदार स्वरूप सबसे पहले आता है.
भारत की समूची राजनीतिक प्रक्रिया काले धन के सहारे चलती है. यह चुनाव विमुद्रीकरण के फौरन बाद हो रहा है. क्या नोटबंदी का असर इसपर पड़ेगा, यह भी देखना होगा. बाकी क्षेत्रों में काले धन का इस्तेमाल तभी कम हो सकता है, जब राजनीति की कोठरी से कालिख हटे. चुनाव आयोग की सलाह है कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए. उसके अनुसार 2000 रुपये तक के चंदे को भी रिकॉर्ड में लाना चाहिए. पर यह फैसला सरकार को करना है, जिसके लिए आयकर कानूनों में संशोधन करना होगा. नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में इस बात से सहमति व्यक्त की है कि चंदे को पारदर्शी बनाया जाए, पर इस सिलसिले में ठोस काम किए बगैर किसी बात का कोई मतलब नहीं.
चुनाव आयोग को चुनाव प्रचार पर खासतौर से ध्यान रखना होगा. सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहरीली भाषा के इस्तेमाल की शिकायतें आईं थीं. केवल राजनीतिक नेताओं ही नहीं मीडिया पर भी नजरें रखने की जरूरत है, क्योंकि एक अरसे से भारतीय मीडिया पर पक्षपात बरतने के आरोप लगने लगे हैं. आयोग ने इस बार उन चैनलों पर नजर रखने की तैयारी की है जिनमें राजनेताओं का मालिकाना हक है. आयोग ने पेड न्यूज पर भी नजर रखने का दावा किया है. पर इसकी प्रभावशाली व्यवस्था को बनाने में हम अभी पूरी तरह सफल नहीं हैं.
जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं राजनीतिक असर के लिहाज से उनमें उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण है. सबसे लंबी चुनाव प्रक्रिया उत्तर प्रदेश में ही होगी, जहाँ सात चरणों में मतदान होने वाला है. क्या भारतीय जनता पार्टी इस राज्य पर भी कब्जा करेगी? सवाल है कि उत्तर प्रदेश में कितने कोनों का चुनाव होगा? समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह का निपटारा होने में देर हुई तो उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा. दूसरी ओर यदि अखिलेश यादव और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो गया तो एक नई ताकत का उत्तर प्रदेश में उदय होगा. ऐसा हुआ तो उससे बड़ा नुकसान बसपा का होगा.
उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत या हार नरेंद्र मोदी के राजनीतिक भविष्य को तय करेगी. सन 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश ने 80 में से 73 सीटे बीजेपी को दी थीं. ये चुनाव इस बात का संकेत करेंगे कि सन 2019 के आसार क्या हैं. एक तरह से यह 2019 की तैयारी की घोषणा है. चुनाव-पूर्व और चुनाव-बाद के गठबंधनों से इस बात का पता लगेगा कि एनडीए के मुकाबले कोई एक राष्ट्रीय ताकत जन्म ले भी पाएगी या नहीं. inext में प्रकाशित
सटीक आंकलन ।
ReplyDelete