Sunday, January 15, 2017

चुनावी पारदर्शिता के सवाल

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों के लिए सत्ता की लड़ाई है।  वोटर के लिए उसका मतलब क्या है? चुनाव-प्रक्रिया में सुधार जीवन में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण रास्ता है। बावजूद इसके चुनाव सुधारों का मसला चुनावों का विषय नहीं बनता। तमाम नकारात्मक बातों के बीच यह सच है कि पिछले दो दशक में हमारी चुनाव-प्रणाली में काफी सुधार हुए हैं। एक जमाने में बूथ कैप्चरिंग और रिगिंग का बोलबाला था। अब प्रत्याशियों की जवाबदेही बढ़ी है। क्यों न इन चुनावों में हम पारदर्शिता के सवाल उठाएं

इसबार के चुनावों की घोषणा के दो रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैर-कानूनी है। इसलिए यह देखना होगा कि चुनाव आयोग इन प्रवृत्तियों पर किस तरह से रोक लगाएगा। इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की है। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं।
यह चुनाव विमुद्रीकरण के फौरन बाद हो रहा है। नोटबंदी के फौरन बाद राजनीतिक दलों ने अपने खातों में काफी बड़ी रकम जमा की है। वोटर को इतना जानने का अधिकार है कि किस पार्टी ने कितने नोट अपने खाते में जमा कराए। चुनाव आयोग की सलाह है कि पार्टियों के 2000 रुपये तक के चंदे को रिकॉर्ड में लाना चाहिए। यह फैसला सरकार को करना है, जिसके लिए आयकर कानूनों में संशोधन करना होगा। हमारे यहाँ राजनीतिक दलों को आयकर नहीं देना होता है। उन्हें केवल 20,000 रुपए से ज्यादा चंदा देने वालों का विवरण देना होता है। व्यावहारिक सच यह है कि पार्टियों को 80 फीसदी से ज्यादा धन छोटी मद में दिखाया जाता है। जिसे बड़ा चंदा भी देना है तो वह छोटी-छोटी राशि में कई बार और बेनामी देता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में अपने भाषणों में कहा है कि वे चंदे को पारदर्शी बनाने के पक्ष में हैं। पर उन्होंने इसे ज्यादा स्पष्ट नहीं किया। विडंबना है कि चुनाव सुधार हमारे देश में चुनाव का मुद्दा नहीं बनते। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को मसला बनाया था। इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कही गईं थीं। शायद वह बात घोषणापत्र में दर्ज करने के लिए ही थी, क्योंकि तृणमूल ने दुबारा इन सवालों को नहीं उठाया।
पिछले 65 साल में चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग की पहल पर हुआ या अदालतों के दबाव के कारण। मतदाता पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे दाखिल कराने की व्यवस्था इसका उदाहरण है। हलफनामा देने की व्यवस्था लागू तभी हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की पहल को समर्थन दिया। सन 2002 में जब चुनाव आयोग ने हलफनामों की व्यवस्था की तो सरकार ने उसे अध्यादेश जारी करके रोक दिया। इसके बाद 13 मार्च 2003 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई।
कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियों बचती हैं। चुनावी चंदे की पारदर्शिता, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक और गलत हलफनामे पर कार्रवाई। चुनाव प्रणाली में काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। यह काला धन राजनीतिक दलों को कहाँ से मिलता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन 2013 में छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की कोशिश को पार्टियों ने पसंद नहीं किया। वह कोशिश अब तक सफल नहीं हो पाई है।
लोकसभा के एक चुनाव में 8000 से अधिक उम्मीदवार होते हैं। करीब बीस से चालीस हजार करोड़ रुपए की धनराशि प्रचार पर खर्च होती है। शायद इससे भी ज्यादा। इसमें काफी बड़ा हिस्सा काले धन के रूप में होता है। साल भर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। चुनाव आयोग के सामने दिए गए खर्च के ब्योरों से तो यही लगता है कि किसी ने खर्च की तय सीमा पार नहीं की।
चुनाव खर्च छिपाया जाता है। जिस काम की शुरूआत ही छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा होगा? जीतकर आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े कानून शामिल हैं। अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे पीछे रखते हैं। पर व्यवस्था जनता के लिए है, जन-प्रतिनिधियों के लिए नहीं। जनता को धोखा देकर लोकतंत्र नहीं चलेगा।
1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को और 2015 में विधि आयोग की 255 वीं रिपोर्ट को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि पूरी व्यवस्था को रफू करने की जरूरत है।
चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को अपनी सिफारिश में कहा है कि एक प्रत्याशी को दो सीटों से चुनाव लड़ने की छूट नहीं होनी चाहिए। दोनों सीटें जीतने पर एक सीट छोड़ने की व्यवस्था है। सन 1996 से पहले उम्मीदवार कितनी भी सीटों से लड़ सकता था। आयोग ने कहा कि यदि सरकार इस प्रावधान को बनाए ही रखना चाहती है तो उपचुनाव का खर्च उठाने की जिम्मेदारी सीट छोड़ने वाले उम्मीदवार पर डाली जाए। आयोग ने यह भी कहा है कि सार्वजनिक देनदारी वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाए। सन 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि सरकारी बंगले, बिजली, टेलीफोन, पानी, होटल, एयरलाइंस आदि का भुगतान न करने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाए।
विधि आयोग का सुझाव है कि जिन अपराधों में कम से कम पांच साल की सजा का प्रावधान है, चार्जशीट वाले नेता को चुनाव लड़ने की अनुमति न हो।  दूसरे, राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें गठित करें, जो एक साल के भीतर फैसला सुनाएं। पेड न्यूज, स्टेट फंडिंग, झूठे हलफनामों पर सज़ा, खर्च का ब्योरा कम बताने और अपराधों में आरोपी उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने जैसे मुद्दों पर सहमति बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

2 comments:

  1. जाति धर्म से कहाँ उठ पाए हैं राजनेता और वोटर ..सबसे बड़ी विडम्बना है देश की यह ...
    सार्थक सामयिक चिंतन प्रस्तुति

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  2. बहुत ही अच्छा आर्टिकल है। Very nice .... Thanks for this!! :) :)

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