जयपुर लिटरेचर
फेस्टिवल में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आरक्षण के बारे
में जो कहा है, वह संघ के परंपरागत विचार के विपरीत नहीं है. संघ लंबे अरसे से कहता
रहा है कि आरक्षण अनंतकाल तक नहीं चलेगा. संविधान-निर्माताओं की जो मंशा थी हम उसे
ही दोहरा रहे हैं.
इस वक्त सवाल
केवल यह है कि मनमोहन वैद्य ने इन बातों को कहने के पहले उत्तर प्रदेश के चुनावों
के बारे में सोचा था या नहीं. अमूमन संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी बगैर सोचे-समझे बातें
नहीं करते और जो बात कहते हैं वह नपे-तुले शब्दों में होती है. ऐसे बयान देकर वे
अपनी उपस्थिति को रेखांकित करने का मौका खोते नहीं हैं.
पहली नजर में
लगता है कि यह बयान विस्फोटक साबित होगा, जिसका ताप भाजपा को सहना होगा. पार्टी इस
बयान के साथ खड़ी नहीं होगी और इसे वैद्य की व्यक्तिगत राय बताएगी. पर ऐसे बयान इस
बात को स्थापित करेंगे कि आरक्षण को विचार के दायरे से बाहर करने की लक्ष्मण रेखा
नहीं खींची जा सकती.
सितंबर 2015 में बिहार
विधानसभा चुनाव के पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का भी एक वक्तव्य इस आशय का आया था.
तब पार्टी ने उससे पल्ला झाड़ लिया था. क्या यह सिर्फ संयोग है कि दूसरी बार ऐसा बयान
ऐसे चुनाव के ठीक पहले आया है, जिसमें जातीय आरक्षण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनता है?
मोहन भागवत ने संघ
के मुखपत्र 'पांचजन्य' और 'ऑर्गनाइज़र' को दिए इंटरव्यू में कहा था कि आरक्षण की ज़रूरत और उसकी
समय सीमा पर एक समिति बनाई जानी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा था कि आरक्षण पर
राजनीति हो रही है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है.
भाजपा-विरोधी
दलों ने भागवत के इस बयान को आधार बनाकर अपने चुनाव अभियान को चलाया था. तब लालू यादव
ने संघ से कहा था,‘तुम आरक्षण खत्म
करने की कहते हो, हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे। माई का
दूध पिया है तो आरक्षण खत्म करके दिखाओ.’
बीजेपी ने बिहार
चुनाव की नजाकत को देखते हुए संघ के नेताओं के साथ भागवत के बयान पर विचार किया
था. फिर केंद्रीय मंत्री रविशंकर ने बयान दिया, 'दलितों और
पिछड़ों को मिल रहे आरक्षण पर पुनर्विचार के पक्ष में भाजपा नहीं है. आरक्षण लागू
रहेगा.' फिर संघ के
सह-कार्यवाह सुरेश जोशी ने स्पष्ट किया, ‘आरक्षण की जब तक समाज में आवश्यकता है, तब तक चलता रहे.’ यह बयान जब आया तब तक बिहार में मतदान के चार दौर पूरे हो
चुके थे.
कहना मुश्किल है कि आखिरी दौर के पहले बयान का उद्देश्य वोट हासिल करने के
वास्ते था या अपनी वैचारिक स्थिति को स्पष्ट करने के इरादे से. लगता नहीं कि उस
बयान से वोट में कोई बड़ा फर्क पड़ा होगा. अलबत्ता इतना स्पष्ट है कि संघ आरक्षण
पर विचार की जरूरत को रेखांकित करता रहेगा.
ऐसे बयानों को
कांग्रेस और दूसरे दलों के कुछ नेताओं का समर्थन भी मिलता है. सन 2014 के चुनावों
के ठीक पहले कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने ऐसा ही बयान दिया
था, जिसकी सफाई में सोनिया गांधी को बयान जारी करना पड़ा.
सोनिया ने उस बयान में यह भी कहा था कि अजा/जजा और ओबीसी आरक्षण कांग्रेस पार्टी ने ही दिया था. उस बयान में उनकी ओबीसी वाली बात सही नहीं थी. मंडल आयोग का गठन मोरारजी देसाई की सरकार ने किया था. उसकी रपट जब मिली तबतक इंदिरा गांधी की वापसी हो चुकी थी, जिन्होंने उसे लागू नहीं किया. उनके बाद राजीव गांधी ने भी उसे किनारे ही रखा.
आरक्षण का सीधा
विरोध करने का जोखिम कोई पार्टी नहीं उठाएगी. अलबत्ता इस विषय पर बहस की माँग करके
वोटरों के एक वर्ग की भावनाओं को छेड़ा जरूर जा सकता है. मोहन भागवत ने जैसी समिति
बनाने का सुझाव सन 2015 में दिया था, वैसी समिति का बनाने का सुझाव संघ की अखिल
भारतीय प्रतिनिधि सभा ने सन 1981 में दिया था.
प्रतिनिधि सभा ने ‘निस्पृह विचारकों की एक समिति का निर्माण’ करने का सुझाव दिया था. इस प्रस्ताव में आगे कहा गया
था कि आरक्षण की व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकती.
संघ के पास अपनी बात कहने का जो स्पेस है, उसमें वह पार्टी से अलग राय रखने के
अवसर छोड़ता नहीं है. इस प्रकार वह दस्तावेजी राय दर्ज कराता है और साथ ही राजनीतिक-सांस्कृतिक
अंतर्विरोधों को सुलझाता है. वह पार्टी से अलग राय पेश करने को महत्व देता है और
जोखिम मोल लेना चाहता है.
संघ की धारणा है
कि आरक्षण से अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है. इसके कारण हिन्दू समाज के भीतर टूटन आई
है, जिसे खत्म करने की जिम्मेदारी हमारी है. समाज को एक साथ लाने के लिए आरक्षण को
खत्म करना होगा. आरक्षण के बजाय अवसर को बढ़ावा देना चाहिए.
आरक्षण अनंत काल
तक नहीं चलेगा, इस बात को कहने के लिए वैद्य और भागवत दोनों ने आंबेडकर के इस
वक्तव्य का सहारा लिया है कि ऐसे आरक्षण का प्रावधान हमेशा नहीं रह सकता.
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