पिछले कुछ समय से
तमिलनाडु के जल्लीकट्टू आयोजन पर लगी अदालती रोक के विरोध में आंदोलन चल रहा था. विरोध इतना
तेज था कि वहाँ की पूरी सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था इसके समर्थन में आ गई. अंततः केंद्र
सरकार ने राज्य के अध्यादेश को स्वीकृति दी और जल्लीकट्टू मनाए जाने का रास्ता साफ
हो गया. जनमत के आगे व्यवस्था को झुकना पड़ा. गणतंत्र दिवस के कुछ दिन पहले संयोग से
कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनका रिश्ता हमारे लोकतंत्र की बुनियादी धारणाओं से
है. हमें उनपर विचार करना चाहिए.
इस आंदोलन का
दूसरा पहलू यह है कि तमिलनाडु सरकार अब पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने के लिए काम
करने वाली संस्था ‘पेटा’ पर बैन लगाने के लिए कानूनी रास्ते तलाशने लगी
है. प्रदर्शनकारियों की मांग है कि इस खेल पर पाबंदी हटाकर ‘पेटा’ पर लगाई जाए. सांस्कृतिक
परंपराओं और आधुनिकता के बीच टकराव का यह एक रोचक उदाहरण है.
सांस्कृतिक
परंपराओं के इससे मिलते-जुलते दूसरे मामले भी हैं. सती-प्रथा से लेकर बाल-विवाह तक,
जो हमें ऊँचे धरातल पर जाकर सोचने की सलाह देते हैं. दुनिया के अनेक देशों में
सांड़ों को दौड़ाकर, उनसे भिड़कर उन्हें मारने के खेल और उत्सव आज भी चलते हैं. कई
जगह उन्हें रोका गया है. आधुनिकता और परंपरा के जो अंतर्विरोध हम तमिलनाडु में देख
रहे हैं वही स्पेन की बुलफाइट के साथ भी जुड़े हैं. वहाँ बुलफाइट रोकी गई है.
भारत में सर्कस
और फिल्मों में पशुओं के इस्तेमाल पर रोक लगी है. इसके साथ जुड़े मानवीय पहलू भी
हैं. तमाम सपेरों, भालू नचाने वालों की जीविका खतरे में पड़ गई है. सवाल
सांविधानिक व्यवस्था के साथ हमारे रिश्तों का है. सन 1985 में शाहबानो मामले के
बाद जनमत के दबाव में सरकार ने उस फैसले के असर को दूर करने के राजनीतिक फैसले किए.
दूसरी तरफ दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराया गया, जबकि अदालत को उसकी रक्षा
का आश्वासन दिया गया था. सवाल आधुनिकता का है.
बहरहाल इस आलेख
का विषय पशु-अधिकार नहीं है. भारतीय गणतंत्र है, जिसके स्तंभ हम और आप हैं. भारत
के नागरिक, जिनकी जागरूकता हमें आगे ले जा सकती है और पीछे भी. इसबार के गणतंत्र
दिवस के आसपास राष्ट्रीय महत्व की कुछ परिघटनाएं और हैं. एक है विमुद्रीकरण की
प्रक्रिया, जो दुनिया में पहली बार अपने किस्म की सबसे बड़ी गतिविधि है. इस अनुभव
से हम अभी गुजर ही रहे हैं. इसके निहितार्थ क्या हैं, इसमें हमने क्या खोया या
क्या पाया, यह भी इस लेख का विषय नहीं है.
हम जो कुछ भी
करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है, क्योंकि हम दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र हैं. इतिहास के एक खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और
खुद को गणतंत्र घोषित किया. विमुद्रीकरण के अलावा एक और परिघटना है पाँच राज्यों
में चुनाव की तैयारी. चुनावों के मार्फत हम अपने गुण और दोषों दोनों से रूबरू होते
हैं. चुनाव वह समय होता है, जब हम अपनी तमाम
समस्याओं पर विचार करते हैं. इस विमर्श से कुछ समस्याओं के समाधान मिलते हैं. कुछ
समाधान फौरन होते हैं और कुछ में समय लगता है.
ब्रिटिश
प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को भारत की आजादी को लेकर संदेह था. उन्होंने कहा था,
‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों
में सत्ता चली जाएगी. सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति
होंगे. वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे. सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़
मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा.’
चर्चिल का यह भी
कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है. वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य
रेखा कोई देश नहीं है. चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि
इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है. टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो
जाएगा. ऐसा नहीं हुआ, पर वैसा भी नहीं हुआ जैसा गांधी-नेहरू ने कहा था.
हम दावा नहीं कर
सकते कि सफल हैं. और यह भी नहीं मानते हम पराजित हो गए हैं. अलबत्ता हमारी सफलता
या विफलता का श्रेय हमारी राजनीति को जाता है. चुनाव हमें घेरकर रखते हैं और हम
चुनावों में घिरे रहते हैं. सन 2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के
इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने उठाया था. उसका सवाल था
कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल था. जब इतनी सफलता के साथ
वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम
इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है? इन सवालों के जवाब हमें और आपको ही देने हैं.
देश का कोई शहर
या कस्बा नहीं है,
जिसमें
सड़कों-चौराहों पर स्कूटर, मोटर साइकिल, ट्रक रोककर पुलिस वाले वसूली करते नज़र न आते
हों. जिस रोज़ यह दृश्य बंद हो जाएगा देश के दूसरे तबके भी कार्य-कुशल हो जाएंगे.
पूरा देश ट्रकों से पाँच-दस के नोट लेकर बाहर निकले हाथ देखता है. इससे अपनी
व्यवस्था पर हमारा अविश्वास पुष्ट होता है. क्या हम इस अविश्वास को दूर कर पाएंगे? हम सोचते हैं कि इन समस्याओं का समाधान देने
कोई देवदूत आएगा. ऐसा होगा नहीं.
चुनाव हमारी
जिम्मेदारी का पहला पड़ाव है. जिस काम पर जनता की निगाहें हैं वहाँ सरकारी
कर्मचारी भी जिम्मेदारी से काम करते हैं. ‘पब्लिक स्क्रूटनी’ वह मंत्र है, जो लोकतंत्र को उसका मतलब देता है. हम सब जब मिलकर सोचने
लगते हैं तब काम को पूरा होते देर नहीं लगती. जब उदासीन हो जाते हैं तो सब बिखर
जाता है. इसमें पत्रकारिता और साहित्य-संस्कृति की भूमिका भी है. पर क्या हम वह सब
कर पा रहे हैं,
जो किया जा सकता
है?
कभी-कभी लगता है
कि लोकतंत्र हमें उपहार में मिला है, हमने इसे अर्जित नहीं किया. हम इसकी कीमत
नहीं जानते. जादू की छड़ी की तरह कोई चमत्कार नहीं होगा. पर आप सक्रिय होंगे तो
हालात बदलेंगे. चेन्नई के मरीना बीच पर पिछले कुछ दिनों से वैसा ही जनांदोलन चला
जैसा दिसम्बर 2012 में दिल्ली में निर्भया मामले को लेकर चला था. दोनों में विरोध
के स्वर थे. पर केवल विरोध ही लोकतंत्र नहीं है. वह लोकतंत्र का बुनियादी हिस्सा
है, पर तभी जब हम अपने लक्ष्य को लेकर एकमत हों. यहाँ नेतृत्व की बात भी करनी चाहिए, जिसे लोकप्रियता के साथ-साथ लोकहित की समझ भी हो.
प्रभात खबर में प्रकाशित
बहुत ही बढ़िया article लिखा है आपने। ........Share करने के लिए धन्यवाद। :) :)
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