Sunday, September 1, 2013

संकट नहीं, हमारी अकुशलता है

मीडिया की कवरेज को देखने से लगता है कि देश सन 1991 के आर्थिक संकट से भी ज्यादा बड़े संकट से घिर गया है। वित्त मंत्री और उनके बाद प्रधानमंत्री ने भी माना है कि संकट के पीछे अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के अलावा राष्ट्रीय कारण भी छिपे हैं। राज्यसभा में शुक्रवार को प्रधानमंत्री तैश में भी आ गए और विपक्ष के नेता अरुण जेटली के साथ उनकी तकरार भी हो गई। पर उससे ज्यादा खराब खबर यह थी कि इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की संवृद्धि की दर 4.4 फीसदी रह गई है, जो पिछले चार साल के न्यूनतम स्तर पर है। रुपए का डॉलर के मुकाबले गिरना दरअसल संकट नहीं संकट का एक लक्षण मात्र है। यदि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी होती तो रुपए की कमजोरी हमारे फायदे का कारण बनती। पर हम दुर्भाग्य से आयातोन्मुखी हैं। पेट्रोलियम से लेकर सोने और हथियारों तक हम आयात के सहारे हैं।


क्या हमारे वर्तमान संकट का कारण केवल चालू खाते का घाटा है? भारतीय बाजार की धारणा लगातार नकारात्मक होने के पीछे क्या सरकार की प्रगतिशील नीतियाँ हैं जो साधनों को सामाजिक कल्याण पर लगाना चाहती हैं? क्या हमारे बाजार को गरीबों को मिलने वाली रोटी देखी नहीं जाती? पर क्या हम बाजार की उपेक्षा करके गरीबों को रोटी देने वाले साधनों की व्यवस्था कर सकते हैं? फिलहाल सवाल यह है कि इस संकट से बाहर हम किस तरह निकलेंगे? इसके लिए पहले समस्य़ा को समझना होगा। हमें अपने राजकोषीय घाटे को काबू में रखना होगा। साथ ही पूँजी निवेश को आसान बनाना होगा। आर्थिक गतिविधियाँ नहीं होंगी तो खाद्य सुरक्षा या मनरेगा के लिए पैसा भी नहीं होगा।

आज 1991 की स्थिति नहीं है। उस समय वैश्विक आर्थिक संकट नहीं था। आज यूरोप और अमेरिका आर्थिक संकटों से घिरे हैं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक के फैसलों के कारण डॉलर वापस जा रहा है, पर यह स्थिति जल्द बदलेगी। अमेरिका में बढ़ती डॉलर की माँग भी कम होगी। उस स्थिति में डॉलर की कीमत अपने आप कम होगी। हमें अपने पेट्रोलियम आयात को संतुलित बनाने की जरूरत है। चूंकि अर्थव्यवस्था सुस्त हो रही है, इसलिए ऊर्जा की जरूरत यों भी कम होगी, पर यह रास्ता गलत है। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि कोयले के स्वदेशी उत्पादन के रास्ते में दिक्कतें क्यों हैं? क्या कारण है कि कोयला खानों के मुक्त हस्त आबंटन के बावजूद कोयला उत्पादन नहीं बढ़ा? यह प्रशासनिक दोष भी तो है।

भारतीय पूँजी विदेश क्यों जाना चाहती है? सीधी सी बात है कि पूँजी वहाँ जाती है जहाँ उसे बढ़ावा मिलता है। हम पूँजी निवेश को बढ़ावा देने में विफल क्यों हैंभारतीय पूँजी को विदेश जाने के लिए भी डॉलर चाहिए। भारतीय लोग विदेश में सम्पत्ति क्यों खरीदना चाहते हैं? भारत में जमीन खरीदना इतना मुश्किल और इतना खर्चीला क्यों है? इन सवालों के जवाब खोजे जाने चाहिए। इसके पहले हमें अपने आयात को भी हतोत्साहित करना चाहिए। भारत के काफी कारोबारी सस्ता विदेशी माल मँगाकर बेचते हैं। इसकी जगह हमें अपने विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए। चीन के साथ व्यापार असंतुलन दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। भारतीय टेक्सटाइल का बड़ा बाजार यूरोप और अमेरिका में है। उनके बाजार में जाने के लिए हमें भी अपने बाजार को खोलना पड़ेगा। हमें अपनी सरकार पर भरोसा करना चाहिए कि वह देश हित में समझौते करेगी। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ कारोबार बढ़ाने का जैसे ही कोई मौका आता है, कोई न कोई राजनीतिक सवाल खड़ा हो जाता है।

आजादी के 66 साल बाद भी हम अपना रक्षा उद्योग तैयार नहीं कर पाए हैं। हम हथियारों के सबसे बड़े आयातक हैं, पर रक्षा-निर्यात के नाम पर शून्य हैं। ऐसा नहीं कि हमने निर्यात लायक तकनीक तैयार नहीं की है। तकनीक है भी तो सेनाएं विदेशी तकनीक को लेने पर जोर देती हैं। इसमें घोटाले होते हैं। यह हमारी समस्या है, किसी देश ने हमें मजबूर नहीं किया कि हम आयात ही करें। रक्षा उद्योग में विदेशी पूँजी निवेश से भी हम घबराते हैं। विदेशी निवेश के साथ-साथ हमें अपनी तकनीक विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। हमारे पास वैज्ञानिक और तकनीकी जानकार नहीं हैं तो यूरोप से लाइए। चीन ने यही किया।

खुदरा बाजार में एफडीआई की शर्तें उदार हो जाने के बाद भी विदेशी निवेश नहीं हो पा रहा है। विदेशी निवेश न भी हो तो हम अपने देश की पूँजी के निवेश का रास्ता तो खोलें। कई लाख करोड़ की इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं शुरू होने का इंतजार कर रही हैं। प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कहा कि बंद पड़ी परियोजनाओं को फिर से शुरू करने के सरकार के फैसले के अच्छे परिणाम मिलने लगेंगे। हम अपने देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाएंगे तभी विदेश पूँजी की दिलचस्पी हमारे देश में बढ़ेगी। संवृद्धि के उपायों से विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में उच्च वृद्धि दर प्राप्त होगी। बाकी दुनिया की अर्थव्यवस्था में सुधार के कारण निर्यात भी बढ़ेगा। प्रधानमंत्री का कहना है कि राजकोषीय घाटे को चार दशमलव आठ प्रतिशत तक ही बनाए रखने के लिए सरकार हर संभव उपाय करेगी। रिजर्व बैंक, मुद्रास्फीति को कम करने पर विशेष ध्यान देता रहेगा। रूपये की कीमत में तेजी से हो रही गिरावट पर चिन्ता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि कुछ ऐसे बाहरी कारणों से इसमें गिरावट आ रही है, जिसकी उम्मीद नहीं थी। सीरिया में तनाव और अमेरिका में रियायतें कम करने की फेडरल रिजर्व की नीति का असर विकासशील देशों की मुद्रा पर पड़ रहा है। खासतौर पर रूपया इससे प्रभावित हुआ है।

पर शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था के बुनियादी सवालों से ज्यादा इस बात पर जोर दिया कि राजनीतिक आम सहमति की कमी की वजह से कई आवश्यक कानून रुके पड़े हैं। उन्होंने कहा कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि देश कई चुनौतियों का सामना कर रहा है, लेकिन हम इन से निबटने में सक्षम हैं। विपक्ष के नेता अरूण जेटली का ज़ोर इस बात पर था कि सरकार लकवे की शिकार है। आज नहीं पिछले कई साल से है। पॉलिसी पैरेलिसिस क्या है? सरकार का निष्क्रिय होना या विपक्ष का संसदीय कार्यों में असहयोग करना?

अंदरूनी अर्थव्यवस्था के लिहाज से सरकारी आमदनी को बढ़ाने और खर्च घटाने के बारे में सोचना चाहिए। आमदनी बढ़ाने का तरीका है कर राजस्व को बढ़ाना। भारत में जीडीपी का दस फीसदी से कुछ ज्यादा कर राजस्व मिलता है, जो बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ कुछ कानूनी सुधारों की जरूरत भी है। पर जीएसटी और डायरेक्ट टैक्ट कोड दोनों पर संसद ध्यान नहीं दे पा रही है। राजनीतिक दल और मीडिया या तो जानकारी की कमी से या गैर-जिम्मेदारी के कारण इन प्रश्नों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। उदारीकरण हमारे देश में गाली बन गया है। उदारीकरण का मतलब कॉरपोरेट हाउसों को मुक्त हस्त देना नहीं है, बल्कि उन ताकतों को बढ़ने का मौका देना है जो इनोवेशन के सहारे आगे बढ़ना चाहती हैं। सच यह है कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी आर्थिक संवृद्धि में सुधार होने का कारण उदारीकरण है। अर्थ-व्यवस्था को खोलना गाली क्यों है? विदेशी निवेश को लेकर हमारे यहाँ संशय रहता है। हम ईस्ट इंडिया कम्पनी की याद करते हैं। बेशक अंग्रेज हमारे देश में व्यापार करने आए थे। वे व्यापार ही करते रहते। उन्हें राज करने की बात किसने समझाई? और किसके सहारे उन्होंने राज किया? हम अपनी कमियों के बारे में बात नहीं करते। दूसरों की खामियाँ देखते हैं। ग्रोथ पर भी ध्यान दीजिए और अकुशलता को दूर कीजिए। समस्याएं सुलझ जाएंगी।


रुपए की गिरावट पर इंडियन एक्सप्रेस में सुरजीत भल्ला के दो लेख 

अरविन्द विरमानी
The real appreciation of the rupee had been fully corrected by the time it crossed Rs.65/$. Further movements are due to the lack of confidence in government’s ability to restore economic growth. I would recommend a Macro Pivot: a reduction in government consumption/subsidies and a loosening of monetary policy (through an interest rate twist) to raise government saving and promote private investment.
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आशिमा गोयल
International reserves are high enough to smoothen even an extended period of volatility. All reserves except about half that cover short-term debt can be used. That is what they are accumulated for, and can be built up again later. The IMF, for example, thinks India holds too much of reserves. It stands ready to help moderate spillovers from systemic countries.
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अजित रानाडे
Stabilise the rupee
The first option is to offer swap facility to oil companies, who are large dollar buyers. The RBI has done well in giving them direct access, so that they bypass the spot market; thereby taking some pressure off. In a panic situation even thin trading can cause the rupee to fall steeply.
The second option concerns China. India’s biggest trading partner, China alone accounts for half of the non-oil trade deficit. This bilateral deficit can be offset by capital inflows from China into India’s infrastructure, such as metro or road projects. Such sovereign investment is already forthcoming from Japan, Singapore and the UAE.
The third option is to increase import of oil from Iran, which accepts total payment in rupees.
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सुरजीत भल्ला
Growth is key
What you have playing out is that growth has collapsed and that is why investors are not finding Indian assets attractive. If you communicate that there is growth, there is a way out. We are not encouraging investors to invest in India. This is tragic. The only way to attract investment was to focus on economic growth.
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डीके जोशी
Push reforms as in1991
hen the market will look very attractive. The reforms agenda needs to be pushed at any cost and the most binding constraints for the economy need to be relieved. First and foremost is the mining issue. Having sufficient coal and iron ore reserves, the country can’t afford increased import dependence on these as they not only add to the CAD but also create headwinds for domestic growth. The pending projects need to be cleared at a faster pace.
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जयति घोष

Reduce unnecessary imports
The current account deficit has ballooned partly because court orders have closed Indian mines for iron ore and coal, reducing exports and necessitating imports of those products. Non-essential imports, particularly those imports that have affected employment and livelihood, and gold imports have to be reduced. This is why the food security bill is good as it releases people with incomes for other spending.
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अरुण मायरा
Focus on manufacturing sector
Manufacturing may be the Achilles Heel of India’s economy. Twenty years after the momentous economic reforms of the 1990s -- the removal of controls on industry and the reduction of import tariffs — Indian consumers are enjoying a great variety of products, many imported. But India’s manufacturing sector has been languishing at 16 per cent of its GDP, whereas China’s is 35 per cent. And a lot of what passes as manufacturing in the country is assembly of imported components. Freedom to import with low or no duties has created a class of traders who masquerade as industrialists, quite different to the genuine industry builders like Jamsetji Tata and JRD Tata, who took pride in creating Indian capabilities to compete with the world.
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