Sunday, June 30, 2013

यह तो राष्ट्रीय शर्मिंदगी की घड़ी भी है

उत्तराखंड आपदा ने हमारी अनेक खामियों को उजागर किया है। हमारे पास आधुनिक मौसम विभाग है, आपदा के समय काम करने वाली मशीनरी है, प्रकृति से जुड़ी सुविचारित इंजीनियरी का बंदोबस्त है, काफी बड़ा वैज्ञानिक समुदाय है, जनता से जुड़ी राजनीति है, धार्मिक आस्था से जुड़ी बड़ी जनसंख्या है जो तीर्थ-प्रबंध के लिए साधन जुटाने में पीछे नहीं रहती और इन सबके ऊपर है एक ऊर्जावान मीडिया और संचार व्यवस्था। उत्तराखंड ने इन सबकी पोल एक साथ खोल दी। अब यह हम सब पर है कि इससे कोई सबक लेते हैं या नहीं। भला हो सेना के जवानों का और व्यक्तिगत रूप से राहत में शामिल उन नामालूम लोगों का जिनमें से कई ने दूसरों को बचाने में अपनी जान गँवा दी। पर जो बात परेशान करती है वह है श्रेय लेने की होड़, जो राष्ट्रीय शर्मिन्दा का विषय है। इक्कीसवीं सदी के भारत में ऐसा दिन देखने को मिला जब हमारे भाई-बहनों, माता-पिताओं की लाशें मिट्टी में लिथड़ गईं। बचे लोग भूखे-प्यासे जंगलों में भटकते रहे और हम कुछ नहीं कर पाए।
कहानी का दूसरा पहलू भी है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के एक विधायक संजय पाठक ने दावा किया कि उन्होने उत्तराखंड में लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपने निजी हेलीकाप्टर का प्रयोग किया और 43 लोगों की जान बचाई। देहरादून के जॉली ग्रांट हवाई अड्डे पर कांग्रेस के एक और तेलगु देशम के दो सांसद आपस में इस बात पर भिड़ पड़े कि आपदा में फँसे लोगों को बचाकर कौन अपने साथ अपने प्रदेश ले जाएगा। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के बारे में दावा किया गया कि दो दिन के भीतर 15,000 यात्रियों को बचाकर उन्होंने गुजरात पहुँचा दिया। हालांकि मोदी की तरफ से ऐसा दावा नहीं किया गया था, पर सम्बद्ध रिपोर्टर का दावा है कि यह खबर भाजपा के हवाले से मिली थी। आश्चर्य है देश के अग्रणी अखबार में तथ्यों की पड़ताल किए बगैर खबर छप सकती है। दावे ही दावे हैं। न्यूज़ चैनलों के दावे हैं सबसे पहले हम।

आश्चर्य अनेक हैं। नरेन्द्र मोदी ने दो दर्जन हैलिकॉप्टर देने और मंदिर के पुनरोद्धार में मदद की पेशकश की तो उसे उत्तराखंड सरकार ने अस्वीकार कर दिया। सम्भव है मदद की पेशकश में राजनीति हो, तो उसे अस्वीकार करने केपीछे भी राजनीति है। नरेन्द्र मोदी को हैलिकॉप्टर से आपदा क्षेत्र में जाने की अनुमति नहीं मिली, राहुल गाँधी को मिली। इधर उत्तराखंड से एक नया शब्द जुड़ा है आपदा-पर्यटन का। यह हमारी राजनीति का सत्य है, पर जीवन का सत्य क्या है?

मार्च 2011 में जापान में सुनामी आई। जापान से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, खासतौर से आपदाओं से लड़ने के साहस और कौशल का पाछ हमें जापान से सीखना चाहिए। दुनिया का अकेला देश जिसने एटम बमों का वार झेला। तबाही का सामना करते इस देश के बहादुर और कर्मठ नागरिकों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद सिर्फ दो दशक में जापान को आर्थिक महाशक्ति बना दिया। तबाहियों से खेलना इनकी आदत है। यह देश हर साल कम से कम एक हजार भूकम्पों का सामना करता है। सुनामी की पहली खबरें मिलने के बाद जापान सरकार की पहली प्रतिक्रिया थी, हम माल के नुकसान को गिन ही नहीं रहे हैं। हमें सबसे पहले अपने लोगों की जान की फिक्र है।

पिछले पचास साल में जापान ने भूकम्प का सामना करने के लिए अद्भुत काम किए हैं। उनसे हमें कुछ सीखना चाहिए। 1960 के बाद से जापान हर साल 1 सितम्बर को विध्वंस-निरोध दिवस मनाता है। 1923 में 1 सितम्बर को तोक्यो शहर में वह विनाशकारी भूकम्प आया था। इस रोज जापानी लोग प्रकृतिक आपदा से बचने का ड्रिल देश भर में करते हैं। यों भी यह ड्रिल उनके दिल-दिमाग पर काफी गहराई से छपा है। स्कूल में जाते ही बच्चों को सबसे पहले दिन यही सिखाया जाता है। जापान के पास इमारतों के निर्माण की सर्वश्रेष्ट टेक्नॉलजी है। 1995 के कोबे भूकम्प के बाद वहां गगनचुम्बी इमारतें इस तरह की बनने लगीं जो भूकम्प के दौरान लहरा जाएं, पर गिरें नहीं। फाइबर रिइनफोर्स्ड पॉलीमर की भवन सामग्री का इस्तेमाल बढ़ रहा है जो कपड़े की तरह नरम और फौलाद जैसी मजबूत होती है। इन्हें पुलों और बहुमंजिला इमारतों के कॉलमों में इस्तेमाल किया जा रहा है।

जापान मेटियोरोलॉजिकल एजेंसी के छह क्षेत्रीय केन्द्र भूकम्पों को निरंतर दर्ज करते रहते हैं। जैसे ही वे जोखिम की सीमा का कम्पन दर्ज करते हैं, पूरे देश को अलर्ट हो जाता है। बुलेट ट्रेन, बसों, कारों और तमाम सार्वजनिक स्थानों पर लगी डिवाइसें ऑटोमेटिक काम करने लगतीं हैं। बुलेट ट्रेन के ब्रेक अपने आप लगते हैं। एनएचके के राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क पर अपने आप वॉर्निंग फ्लैश होती है। शहरों में लगीं वेंडिंग मशीनें खुल जाती हैं मुफ्त पानी, ड्रिंक या खाद्य सामग्री मिल सके। पूरा देश राहत में जुटता है। उन्हें हड़बड़ी मचाने के बजाय शांत रहने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। गूगल का पीपुल्स फाइंडर टूल बनने के काफी पहले जापान ने राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में लोगों को एक-दूसरे को खोजने में मदद देने वाला डेटा बेस तैयार कर लिया था। इसे देश की टेलीकॉम कम्पनियों का सहारा हासिल है। आप मोबाइल फोन से टेक्स्ट कर सकते हैं कि मैं सकुशल हूं या मुझे मदद चाहिए। सिर्फ सेल फोन नम्बर से किसी व्यक्ति के बाबत पता लगाया जा सकता है। आपदा प्रबंधन जापान में कॉटेज इंडस्ट्री है। वहाँ घड़ी जैसे उपकरण मिलते हैं, जिनसे पता लग सकता है कि भूकम्प की तीव्रता क्या है और अब क्या करना चाहिए। ऐसे जैकेट मिलते हैं, जो जरूरत होने पर तम्बू या स्ट्रेचर का काम कर सकें।

हमारे देश में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) है, जिसके पास आज भी मरने वालों और लापता लोगों की अनुमानित संख्या भी नहीं है। नेशनल डिजास्टर रेस्पांस फोर्स है (एनडीआरएफ) है, जिसके लिए उत्तराखंड में स्थायी जमीन आबंटित नहीं हो पाई है। एक मौसम विभाग है जिसने इस त्रासदी के दो दिन पहले सरकार को सचेत कर दिया था। उत्तराखंड में एक सरकार है। तमाम धर्मस्थलों के ट्रस्ट, बोर्ड, फाउंडेशन, संस्थाएं वगैरह हैं। इनके समानांतर है बिल्डिंग माफिया, लकड़ी माफिया, ज़मीन माफिया वगैरह-वगैरह। आपदा और अंदेशा हमेशा रहता है, पर इंतजाम कुछ भी नहीं है। हर जगह कमाई पर केन्द्रित निगाहें हैं, वह चाहे धार्मिक संस्था हो या राजनीतिक। सारे प्रबंध नाकारा साबित हुए।

उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा का सबसे बड़ा कारण है पर्यावरण के प्रति हमारी बेरुखी। बाँध बनें या न बनें इस बात को लेकर वैज्ञानिकों के बीच आमराय नहीं है। ऐसी कोई एजेंसी नहीं है, जो आमराय बनाने की कोशिश करे। नदियों के किनारे बनी इमारतों की अनुमति थी या नहीं इसे अब देखने की ज़रूरत है। अवैध इमारतें बनाना हमारा राष्ट्रीय शौक है। दिल्ली की अस्सी फीसदी इमारतों में दोष मिल जाएगा। कुछ समय तक सीलिंग वगैरह की कार्रवाई के बाद राजनीति को समझ में आ गया कि इस अवैधानिकता को वैधानिक बनाना बेहतर होगा। दिल्ली में यह अवैधानिकता चल जाएगी, पर उत्तराखंड में नहीं चलेगी, जहाँ प्रकृति नाराज़ हुई तो भागने की जगह नहीं मिलेगी जैसा कि इस बार हुआ। पर इसका नुकसान किसने उठाया? जिन्होंने झेला है अब उनकी जिम्मेदारी है कि इस लालची, अंधे धंधे को दुबारा न होने दें।    


हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. apne bilkul sahi ujagar kiya hai..bharat me humlog karne se jyada bolne me yakin rakhate hain aur shayad ye bhi ek bada karan hai hamare samajik khamiyon ka...Japan jaise sabhyatayen itni vikasit isliye hain ki wo karne me vishwas rakhate hain..Umeed karte hain ki is desh me bhi krantikari parivartan aayega!!!

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