देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे
जाने को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं हैं। इसका समर्थन करने वालों को लगता है
कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए।
वे यह भी मानते हैं कि राजनीतिक दल सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधाएं पाते हैं
तो उन्हें ज़िम्मेदार भी बनाया जाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों
ने विरोध किया है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि पार्टियां
किसी कानून से नहीं बनी हैं। वे सरकारी सहायता से नहीं चलती हैं।
सूचना आयुक्त ने अनुमान लगाया है कि केवल दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस
और भारतीय जनता पार्टी को सरकार तकरीबन 255 करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है। इस फैसले
का विरोध करने वाले यह भी कहते हैं कि इसके पहले राजीव गांधी फाउंडेशन को आरटीआई के
दायरे में लाने की माँग को आयोग यह कहकर अस्वीकार कर चुका है कि सरकारी मदद फाउंडेशन
की कुल आय का 4 फीसदी है। यानी सरकारी मदद इतनी नहीं है कि फाउंडेशन को आरटीआई के दायरे
में रखा जाए। सरकारी मदद के कम और ज्यादा होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है राजनीतिक दलों
की भूमिका। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि वे जनता के प्रति सीधे-सीधे उत्तरदायी
होते हैं, इसलिए उन्हें नौकरशाही के दायरे में लाना अनुचित होगा। पर प्रश्न व्यापक
पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते
हैं। क्या यह ठीक है?
हिसाब-किताब को सार्वजनिक करना किसी की अवमानना नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने शुरू
में अपने ऊपर आरटीआई लागू करने का विरोध किया था। अपने से नीचे की अदालत में मामला
भी दायर किया। पर इसके बाद जजों के बारे में विवरण सार्वजनिक डोमेन में रख दिया। यह
पारदर्शिता की पहली परीक्षा है। एक तर्क है कि आरटीआई का उद्देश्य सरकारी सूचनाओं को
सामने लाना है। निजी क्षेत्र को इसके दायरे से बाहर होना चाहिए। यह तर्क अनुचित है।
बदलते वक्त के साथ निजी और सार्वजनिक का फर्क क्या रह गया है? एक ओर हम ज्यादातर
काम निजी क्षेत्र को दे रहे हैं। उसे सार्वजनिक भूमिका में ला रहे हैं। तो उसकी जवाबदेही
भी होनी चाहिए।
दुनिया के 70 से ज्यादा देशों में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार है। इनमें
से 19 देशों में इस अधिकार का दायरा निजी संस्थाओं तक है। अमेरिका का फिज़ीशियंस पेमेंट
सनशाइन एक्ट इसी साल लागू हुआ है। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में पारदर्शिता
लाना है। दवा बनाने वाली कम्पनियाँ अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों की
मदद लेती है। अमेरिकी कानूनी व्यवस्था के तहत अब 15 कम्पनियों ने इस जानकारी को सार्वजनिक
करना शुरू किया है। स्वास्थ्य सेवाएं सेंटर्स फॉर मेडिकेयर और मेडिकेड सर्विसेज़ को
जानकारियाँ देंगी, जो सितम्बर 2014 से शुरू होने वाली वैबसाइट पर इसे सार्वजनिक रूप
से डाल देंगी। ऐसी सेवाएं पारदर्शी माहौल बनाती हैं, जिससे नागरिक का विश्वास बढ़ता
है।
भारत जैसे देश में राजनीति से ज्यादा सार्वजनिक और क्या हो सकता है? अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना
की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी
तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। ‘राइट टु इनफॉरमेशन’ ही नहीं हमें ‘फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन’ चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक
महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है
कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी व्यवस्था अनुचित है।
सरकार की तमाम नीतियों को राजनीतिक दल परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। वे सत्ता
में हिस्सेदारी चाहते हैं तो उन्हें पारदर्शिता को भी अपनाना चाहिए। अभी तक का अनुभव
है कि पार्टियों ने राजनीतिक पारदर्शिता का स्वागत नहीं किया। उदाहरण के लिए हलफनामे
की व्यवस्था को देखें। लम्बे समय से प्रत्याशियों की आपराधिक और वित्तीय पृष्ठभूमि
की जानकारी उजागर करने की माँग होती रही है। जून 2002 में मुख्य चुनाव आयुक्त ने अधिसूचना
जारी कर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए अपनी आपराधिक और वित्तीय जानकारियाँ
देना अनिवार्य किया तो लगभग सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया। जबकि यह पहल सुप्रीम
कोर्ट की मंशा के अनुरूप थी। उधर सरकार ने 16 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत
एक अध्यादेश ज़ारी कर दिया। और संसद ने इस अध्यादेश के स्थान पर जन प्रतिनिधित्व(तीसरा
संशोधन) अधिनियम 2002 पास कर दिया, जिससे सरकार और समूची राजनीति की मंशा ज़ाहिर हो
गई। इस संशोधन के मार्फत जनप्रतिनिधित्व कानून में 33बी को जोड़ा गया, जो वोटर के जानकारी
पाने के अधिकार को सीमित करता था। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 13 मार्च 2003 के अपने
ऐतिहासिक फैसले में वोटर को प्रत्याशी के बारे में जानकारी पाने का मौलिक अधिकार दिया
और चुनाव आयोग की अधिसूचना को वैधता प्रदान की।
आरटीआई के दायरे में आने पर राजनीतिक दलों को दो दिक्कतें होंगी। प्रत्याशियों
के चयन की पद्धति और अपनी आमदनी और खर्च के ब्यौरे देना मुश्किल होगा। पार्टियों की
आय का ज़रिया कॉर्पोरेट हाउसों से मिलने वाला चंदा है। इस चंदे पर नज़र किसी न किसी
को तो रखनी होगी। सिद्धांततः संसद या विधानसभाओं की सदस्यता लाभ का पद नहीं है। पर व्यवहार में बड़ी
संख्या में जन प्रतिनिधियों की उस दौरान काफी तेजी से बढ़ती है, जब वे जन प्रतिनिधि
होते हैं। माना जाता है कि विधान सभा का चुनाव लड़ने के लिए भी कई प्रत्याशी पाँच-दस
करोड़ से लेकर बीस करोड़ रुपए तक खर्च कर देते हैं। यह वैध सीमा से बाहर है। कहाँ से
आता है यह पैसा?
लोकसभा के एक चुनाव
में 8000 से अधिक उम्मीदवार होते हैं। इस तरह करीब 20,000 करोड़ रुपए की राशि प्रचार
पर खर्च होती है। आधिकारिक तौर पर निर्वाचन आयोग के समक्ष 2009 में दिए गए खर्च के
ब्योरे से तो यही लगता है कि इनमें से किसी ने 25 लाख रुपए की तय सीमा पार नहीं की।
ज्यादातर प्रत्याशियों का आधिकारिक ब्योरा 25 लाख रुपए 10-12 लाख तक भी नहीं पहुंचता।
यानी चुनाव खर्च छिपाया जाता है। जिस काम की शुरूआत ही छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा
होगा?
घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं
के मूल में जाएं तो इनका रिश्ता देश की चुनाव व्यवस्था से जुड़ेगा। अधिकतर रकम राजनीति
से जुड़े लोगों तक जाती है। चुनाव-खर्च दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने
चुनौती है। यह रकम काले धन के रूप में होती है, जो अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है।
इसके कारण गलत प्रशासनिक निर्णय होते हैं। तमाम दोषों के मूल में यह बैठी है। लोकतंत्र का मतलब चुनाव लड़ने वाली व्यवस्था मात्र नहीं है। चुनाव की पद्धति को
दुरुस्त करना भी उसमें निहित है। इसके लिए दरवाज़े खोलने होंगे, ताकि रोशनी भीतर आए।
हरिभूमि में प्रकाशितसतीश आचार्य का कार्टून |
हिन्दू में केशव का कार्टून |
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