पिछले हफ्ते देश के मीडिया पर दो खबरें हावी रहीं। पहली आईपीएल
और दूसरी नक्सली हिंसा। दोनों के राजनीतिक निहितार्थ हैं, पर दोनों मामलों में राजनीतिक
दलों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही। शुक्रवार को शायद राहुल गांधी और सोनिया गांधी की
पहल पर कांग्रेसी राजनेताओं ने बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के खिलाफ बोलना शुरू
किया। उसके पहले सारे राजनेता खामोश थे। भारतीय जनता पार्टी के अरुण जेटली, नरेन्द्र
मोदी और अनुराग ठाकुर अब भी कुछ नहीं बोल रहे हैं।
शायद क्रिकेट के मामले में दोनों पार्टियों के नेताओं का दृष्टिकोण
एक जैसा है। पर यह विचार-साम्य छत्तीसगढ़ की माओवाद-जनित समस्या पर नज़र नहीं आता।
पहले दिन से कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि सुरक्षा-व्यवस्था नहीं थी, इंटेलिजेंस
की विफलता है वगैरह। इधर भक्त चरण दास ने कहा है कि कांग्रेस तो सलवा जुडूम के खिलाफ
थी। यह तो रमन सिंह की देन है। वे इस्तीफा दें। मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल
भूरिया ने कहा है कि इस हमले की जानकारी मुख्यमंत्री को थी, पर जान-बूझकर सुरक्षा बलों
को हटाया गया। गॉसिप यह भी है कि कांग्रेस के भीतर ही कोई चाहता है कि हमला हो। लगता
है कि माओवादियों का निशाना महेन्द्र कर्मा थे। यदि कांग्रेस सलवा जुडूम के खिलाफ थी
तो महेन्द्र कर्मा को अपने साथ लेकर क्यों चलती थी? इस
कार्यक्रम पर होने वाले खर्च का 80 फीसदी धन केन्द्र सरकार देती थी। क्यों देती थी? इन बातों पर तल्ख बयानी माओवादियों का काम आसान करती है। क्यों नहीं इस सवाल पर देश के सारे राजनीतिक दल एक
राय बनाते हैं?
माओवादी क्या चाहते हैं? यही कि राजनीतिक
दलों के बीच तू-तू, मैं-मैं हो। वे चाहते हैं कि सुरक्षा बल ऐसी कार्रवाई करें जिसमें
बच्चे और महिलाएं मरें। इससे सरकार के प्रति आदिवासियों का गुस्सा भड़केगा। विकास न
हो पाने के कारण समस्या पैदा हुई। पर वे अब विकास होने नहीं देंगे। वे नहीं चाहते कि
बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएं। अस्पताल बनें, सड़कें आएं। कई इलाकों में हमारा सरकारी
अमला घुसने की हिम्मत नहीं करता। अरुंधती रॉय ने लिखा है कि कई इलाके ऐसे हैं जहाँ
पुलिस वाला अपनी वर्दी में जाते डरता है। वह सादी वर्दी में जाता है और माओवादी वर्दी
में रहता है। समांतर सरकार नहीं, उनकी वहाँ बाकायदा सरकार चलती है।
उनकी निगाह में देश की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था निरर्थक
है। इसे खत्म होना चाहिए। वे इस इलाके के लोगों का मन जीतने में कामयाब हुए हैं। वे
इस तू-तू, मैं-मैं का फायदा उठाएंगे। यह आदिवासी समस्या है। इलाके की उपेक्षा से पनपी
है। कॉरपोरेट हाउसों को औद्योगिक विस्तार के लिए ज़मीन चाहिए। इसके लिए आदिवासियों
को उजाड़ा जा रहा है। भारतीय राष्ट्र राज्य ने इनके लिए कुछ नहीं किया, बल्कि इनका
दोहन और शोषण किया और जब इन्होंने शिकायत की तो पुलिस ने हमला बोल दिया। इन्होंने आत्मरक्षा
में हथियार उठाए हैं। इन बातों में सच का पुट है, पर सच यह भी है कि नक्सली रणनीतिकारों
के दिमाग में अराजकता पैदा करने की योजना है, किसी व्यवस्था की स्थापना का सपना नहीं
है। वे आदिवासियों की बदहाली का फायदा उठाते हैं। इनके पास आधुनिक हथियार कहाँ से आते
हैं और कौन ट्रेनिंग देता है? क्या इनके पीछे विदेशी
ताकतें भी हैं? उनके साथ संवाद सम्भव नहीं है। उन्हें उदार वामपंथियों
और मानवाधिकारियों की आड़ मिलती है। उदार वामपंथी उन्हें तो बदल नहीं पाते, पर सरकारी
छवि बिगाड़ने में कामयाब होते हैं। स्त्रियों और बच्चों को आगे रखकर वे बंदूक चलाते
हैं। उनके पास राजव्यवस्था की कोई योजना नहीं है। कुल मिलाकर वे हमारी राजव्यवस्था
की विफलता की देन हैं और उसे विफल बनाए रखना उनका लक्ष्य है।
माओवादी संकट अब निर्णायक मोड़ पर है। अब या तो उसपर अंकुश लगेगा,
नहीं तो वह पूरे देश में अराजकता पैदा करेगा। उसकी सफलता केवल अराजकता पैदा करने तक
सीमित है। इस समस्या पर सोचने-विचारने के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं :-
मूलतः यह राजनीतिक समस्या है। भारतीय राष्ट्र
राज्य का मुकाबला किसी विदेशी ताकत से नहीं अपने ही लोगों से है। इसलिए सावधानी से
सोच-विचार कर रास्ता निकाला जाना चाहिए। देश की जनता की भागीदारी इस समाधान में होनी
चाहिए।
हजारों साल से आदिवासी जंगलों में रहते आए हैं।
उन्हें उजाड़ कर हमारा आर्थिक विकास नहीं हो सकता। इस विकास में उन्हें भी भागीदार
बनाया जाना चाहिए। सलवा जुडूम उन्हें अपने ही लोगों से युद्ध करने को प्रेरित करता
था। पर युद्ध की नहीं विश्वास जीतने की ज़रूरत है।
हथियारबंद आंदोलन से निपटने के लिए हथियार की
ज़रूरत भी होगी। कोई ज़रूरी नहीं कि फौज़ लगाई जाए। इस किस्म के युद्ध अब तकनीक के सहारे भी लड़े जाते हैं। दर्भा के हमले के पहले वायुसेना के ड्रोन विमानों ने जानकारी
दी थी कि बड़ी संख्या में लोग जमा हो रहे हैं। इस जानकारी का समय से इस्तेमाल नहीं
हो पाया। इसकी वजह किसी केन्द्रीय कमान का न हो पाना है।
महेन्द्र कर्मा की हत्या करके माओवादियों ने
संदेश दिया है कि हमसे टकराने की कोशिश जो भी करेगा उसका हश्र यही होगा। राजनीतिक दलों
के बीच ऐसे लोग सक्रिय हैं जो आदिवासियों और सरकार के बीच बिचौलियों का काम करते हैं।
ऐसे लोगों की ज़रूरत होती है, पर उनके अपने हित भी होते हैं। माओवादियों के नाम पर
वसूली करने वाले भी बड़ी तादाद में हैं। इन सब पर लगाम तभी लगेगी जब हम समन्वित तरीके
से काम करेंगे।
माओवादी चुनौती से ज्यादा बड़ी चुनौती एक जिम्मेदार राजनीतिक
व्यवस्था को विकसित करने की है। देश के एक तिहाई जिले हिंसा की गिरफ्त में हैं। इसे
हल्के-फुल्के तरीके से न लें। इसका हल फौजी कार्रवाई से नहीं निकाला जा सकेगा। पर माओवादियों
को अलग-थलग भी करना होगा। इसमें राजनीतिक, आर्थिक, फौजी और भावनात्मक कदमों की ज़रूरत
होगी। उससे ज्यादा जन संचार की। जल, जंगल और ज़मीन के मसलों के हल जटिल हैं, असम्भव
नहीं।
हिन्दू में केशव का कार्टून |
मंजुल का कार्टून |
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