गुजरात में नरेन्द्र मोदी की विजय के ठीक पहले दिल्ली में चलती बस में बलात्कार को लेकर युवा वर्ग का आंदोलन शुरू हुआ। और इधर सचिन तेन्दुलकर ने एक दिनी क्रिकेट से संन्यास लेने का फैसला किया। तीनों घटनाएं मीडिया की दिलचस्पी का विषय बनी हैं। तीनों विषयों का अपनी-अपनी जगह महत्व है और मीडिया इन तीनों को एक साथ कवर करने की कोशिश भी कर रहा है, पर इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है कि हम सामूहिक रूप से विमर्श को ज़मीन पर लाने में नाकामयाब हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से एक ओर हम मीडिया की अत्यधिक सक्रियता देख रहे हैं वहीं इस बात को देख रहे हैं कि लोग बहुत जल्द एक बात को भूलकर दूसरी बात को शुरू कर देते हैं। बहरहाल सी एक्सप्रेस में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ें:-
फेसबुक
पर वरिष्ठ पत्रकार चंचल जी ने लिखा, “दिल्ली में अपाहिज मसखरों
का एक संगठित गिरोह है। बैंड पार्टी की तरह, उन्हें किराए पर
बुला लो जो सुनना चाहो उन लो। बारात निकलते समय, बच्चे की पैदाइश
पर, मारनी पर करनी पर,
खतना पर हर जगह वे उसी सुर में आएंगे जो प्रिय लगे। और यह जोखिम का काम
भी नहीं है। बस कुछ चलते फिरते मुहावरे हैं उसे खीसे से निकालेंगे और जनता जनार्दन
के सामने परोस देंगे। गुजरात पर चलेवाली बहस देखिए। मोदी को जनता ने जिता दिया। इतनी
सी खबर मोदी को जेरे बहस कर दिया। वजनी-वजनी शब्द, जीत के असल कारण, उनका नारा, वगैरह-वगैरह इन बुद्धिविलासी बहसी आत्माओं
का सोहर बन गया है। और अगर मोदी हार गया होता तो यही लोग ऐसे-ऐसे शब्द उसकी मैयत पर
रखते कि वह तिलमिला कर भाग जाता।” उन्होंने यह बात गुजरात के
चुनाव परिणामों की मीडिया कवरेज के संदर्भ में लिखी है, पर इस बात को व्यापक संदर्भों
में ले जाएं तो सोचने समझने के कारण उभरते हैं।
कोई
सामाजिक गतिविधि, सामाजिक विमर्श के बगैर सम्भव नहीं है। कम से कम आज के समाज में सम्भव
नहीं है। यह सामाजिक विमर्श हम किसी संवैधानिक व्यवस्था के तहत नहीं करते, यह हमारी
प्रकृति है। यही संवाद किसी समाज की प्रकृति को दर्शाता है। हिटलर के जर्मनी के बंद
समाज में या स्वीडन और नॉर्वे के खुले समाज में यह संवाद किसी न किसी रूप में चला और
सारी दुनिया में चलता रहेगा। बदलाव का सबसे बड़ा सहारा ही यह संवाद है। पर संवाद कारोबार
भी है। चंचल जी ने ऊपर जिस टीवी बहस का जिक्र किया है, वह जन संचार के साधनों की कारोबारी-वृत्ति
का एक नमूना है। जर्मन समाज विज्ञानी जर्गन हैबरमास ने इस पब्लिक स्फीयर की बदलती प्रवृत्ति
पर काम किया है। पिछले साल इन दिनों हम अन्ना हजारे के आंदोलन के संदर्भों में चर्चा
कर रहे थे। पिछले हफ्ते गुजरात चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले राजधानी का समूचा मीडिया
बलात्कार पर विमर्श कर रहा था। अगले दिन अचानक गुजरात उसके केन्द्र में आ गया। हमारी
संसद ने एफडीआई पर बहस की पूरे देश ने उसे देखा। पर प्रोन्नति में आरक्षण पर बहस नहीं
हुई। अनेक सवालों पर नहीं होती। कौन तय करता है इस बहस का एजेंडा? चैनलों की बहस के विषय मार्केट तय करता है। वास्तव में जनता के मन में जो
विचार हैं, वे अनिवार्य रूप से इस चर्चा में व्यक्त नहीं होते। विज्ञापन हासिल करने
की होड़ में लगा मीडिया इन विषयों को तय करता है। गाँवों की चौपालों, कस्बों के नुक्कड़ों
या कुछ बड़े शहरों के टाउनहॉल और इन चर्चाओं में फर्क है। फिर भी इनमें कोई बहस तो
होती ही है।
हैबरमास
के ‘पब्लिक स्फीयर’ को हम तकनीकी शब्दावली में सार्वजनिक
प्रक्षेत्र कह सकते हैं, पर इसके लिए बेहतर शब्द पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सुझाया है लोक-वृत्त।
किसी ने इसे जनवास भी कहा है, पर शादी के जनवासों
के कारण यह शब्द कहीं रूढ़ हो गया है। इसी तरह जनपद डिस्ट्रिक्ट के अर्थ में रूढ़ है।
लोक-वृत्त बेहतर शब्द है। यों लोक-मानस भी उपलब्ध था। अन्यथा हमारे पास चौपाल परम्परा
से अच्छा शब्द है। लोक-धर्म और लोक-मंगल शब्द भी अतीत में इस्तेमाल हुए हैं। महत्वपूर्ण
है यह समझना कि क्या हमारा कोई लोक या पब्लिक स्फीयर है? क्या
उसे होना चाहिए? क्या उसमें पब्लिक से ज्यादा महत्वपूर्ण उसका
स्फीयर है? मसलन इन विमर्शों में शामिल लोग क्या सामान्य-जन के
मत को व्यक्त कर पाते हैं या अपने विचारों को दूसरों पर आरोपित करते हैं? तीसरे क्या वास्तव में हम अपने व्यक्तिगत मसलों से ऊपर उठकर समूचे देश या
समूचे संसार के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं? 26 जनवरी और
पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा
राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। इसी तरह चुनाव के दौरान हम अपने प्राइवेट स्फीयर से बाहर
आकर पब्लिक स्फीयर में सोचने-विचारने का काम करते हैं। टीवी की बहसों के नकारात्म और
सकारात्मक पहलू दोनों हैं। जिस तरह व्यक्तिगत जीवन में हम शोक के समय किराए की रुदालियों
और खुशी के समय किराए के बैंडबाजों का इस्तेमाल करते हैं, वह कितना ही कृत्रिम हो,
माहौल को बनाता है। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया है। इस अर्थ में यह विमर्श
भी कितना ही कृत्रिम हो, कुछ न कुछ सार्थक होता है।
हमारा
सामुदायिक जीवन क्या है?
सोशल नेटवर्किंग में हम काफी आगे चले गए हैं। पर सारी नेटवर्किंग अपने
व्यावसायिक हितों और स्वार्थों के लिए है। शाम को दारू पार्टी पर बैठने और गॉसिप करने
को हम सोशल होना मानते हैं। जो इसमें शामिल नहीं है, वह अन-सोशल
है। पर दरअसल सोशल होना व्यावहारिक रूप में ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ तलाशना है। सामाजिक
जीवन की गुत्थियों को सुलझाना या सामूहिक एक्शन के बारे में सोचना सोशल नेटवर्किंग
का अंग नहीं है। लोग चाहें तो अपने घरों के आसापास की तमाम खराबियों को आपसी सहयोग
से दूर कर सकते हैं। पर लोग ऐसा क्यों नहीं करते? हम वैचारिक
कर्म से भागते हैं। उसे भारी काम मानते हैं। मामूली सी बात को भी समझना नहीं चाहते।
रास-रंग हम पर हावी हो गया है। आपने गौर किया होगा नई कॉलोनियों की योजनाओं में जीवन
की सारी चीजें मुहैया कराने का वादा होता है। मॉल होते हैं, मेट्रो
होती है, ब्यूटी सैलून, जिम और स्पा होते
हैं। मल्टी प्लेक्स, वॉटर स्पोर्ट्स होते हैं। जमीन पर अवैध रूप
से कब्जा करके चार-छह धर्म स्थल भी खड़े कर दिए जाते हैं। पर इस योजना में लाइब्रेरी
नहीं होती, कम्युनिटी सेंटर होते हैं तो वे शादी-बारात के लिए होते हैं, बैठकर विचार
करने के लिए नहीं। ऐसे सामुदायिक केन्द्र की कल्पना नहीं होती, जो पब्लिक स्फीयर का केन्द्र बने। छोटा सा ऑडीटोरियम। पढ़ने, विचार करने, सोचने और उसे अपने एक्शन में उतारने को कोई
बढ़ावा नहीं।
चौपाल, चौराहों और कॉफी हाउसों की संस्कृति खत्म हो रही है। इस विमर्श की जगह वर्चुअल-विमर्श
ने ले ली है। यह वर्चुअल-विमर्श ट्विटर और फेसबुक में पहुँच गया है। यहाँ वह सरलीकरण
और जल्दबाज़ी का शिकार है। अक्सर अधकचरे तथ्यों पर अधकचरे निष्कर्ष निकल कर सामने आ
रहे हैं। एकाध गम्भीर ब्लॉग को छोड़ दें तो नेट का विमर्श अराजक है। टीवी का विमर्श
एक फॉर्मूले से बँध गया है तो उससे बाहर निकल कर नहीं आ रहा। यों भी टीवी की दिलचस्पी
इसमें नहीं है। वह सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को ही कौशल मानता है। उसके कंटेंट
की योजना पत्रकार नहीं बनाते। मार्केटिंग-मैनेजर बनाते हैं। उनकी दिलचस्पी समाज के
व्यापक हित में न होकर संस्था के व्यावसायिक हित तक सीमित है। ऐसी तमाम वजहों से विमर्शकार
एक-दूसरे से दूर हो गए हैं। दूरदर्शन यानी डीडी ऐसा मंच हो सकता है, जो गम्भीर विमर्श को बढ़ा सके और उन जानकारियों को दे, जिनसे प्राइवेट चैनल भागते हैं। वह संज़ीदा दर्शकों का वैकल्पिक मार्केट खड़ा
कर सकता है। उसके दबाव में प्राइवेट चैनल भी अपने को बदलने की कोशिश करेंगे। ऐसा करने
के लिए उसके पास वैचारिक अवधारणा होनी चाहिए। पर डीडी तो सरकारी अफसरों के मार्फत काम
करता है। और वे प्राइवेट चैनलों को अपना आदर्श मानते हैं। अखबारों में पाठकों के पत्रों
की परम्परा खत्म हो रही है। चूंकि उसमें इंसेटिव नहीं है, इसलिए संजीदा पाठकों ने चिट्ठियाँ
लिखना बन्द कर दिया है। वे अखबारों या मीडिया से नाराज़ या असहमत भी हैं तो उन्हें
पत्र नहीं लिखते। पर अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति, समाज, पर्यावरण,
विज्ञान, तकनीक यहाँ तक कि बाज़ार के बारे में
सोच-विचार का कोई मंच तो होना चाहिए। कौन देगा वह मंच?
आप
किसी से भी बात करें तो वह सरकार, व्यवस्था और सिस्टम को कोसता नज़र
आएगा। उसकी बात एक हद तक सही है, पर यह लोकतांत्रिक व्यवस्था
है। यदि खराब है तो हमारी अनुमति से ही है। सरकारी व्यवस्था के दोषों पर हम सालहों-साल
चर्चा करते हैं। क्यों न हम नागरिक के रूप में अपने बारे में विचार करें? हम हिन्दी, अंग्रेजी, गणित,
इतिहास, भूगोल, फिजिक्स और
केमिस्ट्री पढ़ते हैं। नागरिकता के बारे में कहीं भी कुछ भी नहीं पढ़ते। क्या नागरिकता
की शिक्षा दी जा सकती है? हमने बचपन में नागरिक शास्त्र पढ़ा
है। पर वह शिक्षा एक सीमा तक देश की संवैधानिक और प्रशासनिक जानकारी देने भर तक की
शिक्षा है। हमें सिर्फ अपेक्षाएं हैं। इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए हमें सोचना
होगा। और सोचने के लिए एक-दूसरे के करीब आना होगा। यह कैसे होगा? आपके पास समाधान हों तो बताइए।
सैकड़ों
नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद
दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।
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