Tuesday, December 25, 2012

दिल्ली रेप कांड के दूसरे सामाजिक पहलू भी हैं


दिल्ली रेप कांड को केवल रेप तक सीमित करने से इसके अनेक पहलुओं की ओर से ध्यान हट जाता है। यह मामला केवल रेप का नहीं है। कम से कम जैसा पश्चिमी देशों में रेप का मतलब है। हाल में एक रपट में पढ़ने को मिला कि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में रेप कम है। पर उस डेटा को ध्यान से पढ़ें तो यह तथ्य सामने आता है कि रिपोर्टेड केस कम हैं। यानी शिकायतें कम हैं। दूसरे पश्चिम में सहमति और असहमति के सवाल हैं। वहाँ स्त्री की असहमति और उसकी रिपोर्ट बलात्कार है।हमारे यहाँ के कानून कितने ही कड़े हों, एक तो उनका विवेचन ठीक से नहीं हो पाता, दूसरे पीड़ित स्त्री अपने पक्ष को सामने ला ही नहीं पाती। इसका कारण यह है कि हमारे देश में स्त्रियाँ पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में कमज़ोर हैं। इसके अलावा हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था स्त्रियों के प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है। रेप का मतलब उनके जीवन को तबाह मानती है, उन्हें ठीक से रहने का प्रवचन देती है वगैरह।

दिल्ली में जो हुआ वह करने वाले काफी गरीब तबके से आते हैं। उनके जीवन में सांस्कृतिक, सामाजिक, मानवीय मूल्यों का मतलब वह है ही नहीं है जो हम समझते हैं। जिस हिंसक तरीके से उन्होंने यह कार्य किया, उससे उनकी मानसिकता दिखाई पड़ती है। हाँ उनमें इतनी हिम्मत कहाँ से आई? इसके लिए गवर्नेंस पर निगाह भी डालनी होगी। दिल्ली-एनसीआर के इलाके में किडनैपिंग का कारोबार चलता है। कुछ बड़े गिरोह अनपढ़ गरीब और बेरोज़गार नौजवानों को किसी को भी किडनैप करने का काम देते हैं। एक से दूसरे तक होते हुए बंधक बनाया गया व्यक्ति किसी बड़े अपराधी गिरोह तक पहुँचा दिया जाता है।


यह गिरोह किस स्पेस में रहता है, इसे देखने की ज़रूरत भी है। ज्यादातर बड़े गिरोहों का रिश्ता राजनति और सामाजिक शक्तियों से है। यह सामंती व्यवस्था है। इस लिहाज से दिल्ली आधुनिक शहर नहीं है। यह सामंती वृत्तियों से घिरा शहर है, जिसे लोग आधुनिक मानकर आते हैं। जिन दिनों आनन्द विहार के पास वैशाली, इंदिरापुरम और वसुन्धरा जैसी कॉलोनियाँ बस रहीं थीं, अक्सर रात में लोगों को लूट लिया जाता था। अनेक बार लूट के साथ-साथ हिंसा भी होती थी। हत्याएं भी हुईं। टैक्सी ड्राइवरों को रोककर उनकी गाड़ियाँ छीन ली जाती थीं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रिय कई तरह के अपराधी गिरोह दिल्ली में सक्रिय रहते हैं। आज भी आए दिन चेन स्नैचिंग होती है। ऐसा नहीं कि पुलिस निष्क्रिय है। पर उसकी सीमाएं हैं। उसकी ट्रेनिंग में कमी है, अनुशासन नहीं है और काम की सेवा-शर्तें भी खराब हैं। एक सामान्य पुलिस वाले की मनोदशा या तो कुंठित व्यक्ति की होती है या फिर इस अपराध वृत्ति में शामिल होकर लूटने और कमाने की।

दिल्ली कांड में पुलिस ने ही इतनी तेजी से अपराधियों का पता लगाया। इसके लिए हम उनकी तारीफ करना नहीं चाहते, क्योंकि पुलिस नौजवानों पर डंडे चलाती नज़र आती है। पर यह भी देखें कि आंदोलनकारियों के बीच भी असामाजिक तत्व घुसते हैं। हमारे आंदोलन और उनसे निपटने की व्यवस्थाएं सामंती हैं। इसकी कवरेज करने वाला मीडिया भी जिस सनसनीखेज तरीके से सारी बात को देखता है, वह भी समझदारी की बात नहीं है। मीडियाकर्मियों के प्रशिक्षण में कोई कमी है।

मीडिया की कवरेज के कारण छोटे बच्चों के मन में रेप को लेकर एक अदृश्य भय बैठ गया है। बेटियों की माताएं डरी रहती हैं। ऐसा लगता है कि हर बस में बलात्कारी बैठे हैं। आज के हिन्दू में स्मृति काक रामचन्द्रन ने इस भय पर अच्छा आलेख लिखा है। प्रधानमंत्री के संदेश के बावजूद स्त्रियों के मन में बैठा भय समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि हम सबको सरकार के दावों पर भरोसा नहीं है। व्यवस्था के प्रति इस अविश्वास को समझने की ज़रूरत है जिसे हिन्दू के इस सम्पादकीय में उठाने की कोशिश की गई है।

अचानक बलात्कारियों को फाँसी देने या बधिया करने की माँग उठने लगी है। यह आधुनिक समझ नहीं है। अपराध इस तरह खत्म नहीं होते। अपराधों को रोकने के लिए बेशक एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत है, पर इसका हल फाँसी नहीं है। पर सरकार ने भी कार्रवाई करने में सुस्ती दिखाई। सबसे बड़ी बात यह है कि आज़ादी के 66 साल पूरे होने को आ रहे हैं और सरकार के पास अपने नागरिकों से संवाद की कोई क्रिया-विधि नहीं है। आज के इंडियन एक्सप्रेस में रमा बीजापुरकर ने इस सवाल को उठाया है। पिछले साल रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के अनुयायियों पर लाठी बरसा कर सरकार ने अपनी नासमझी को ज़ाहिर कर दिया था।

दिल्ली में स्थिति बिगाड़ने के पीछे असामाजिक तत्वों का हाथ भी होगा, पर सरकार ने जिस तरह से मेट्रो स्टेशनों को बन्द किया है उससे ज़ाहिर है कि उसे यह बात समझ में नहीं आ रही कि अराजकता वह खुद पैदा कर रही है। जिस शहर के लाखों लोग हर सुबह काम के लिए मेट्रो पर सवार होकर निकलते हैं उसमें मेट्रो के नौ स्टेशनों को बन्द कर देना क्या गजब ढाएगा, इसका सरकार को इमकान नहीं है। यही नहीं पुलिस ने मशीन की तरह प्राइवेट बसों पर से टिंटेड स्क्रीन हटाने का काम शुरू कर दिया। बस सेवाएं भी ठप हो जाएंगी तो क्या होगा?

और यह जो आंदोलन है, वह फौरी गुस्सा है तो उसे व्यक्त होने के बाद वापस लिया जाना चाहिए। यदि इसका कोई व्यापक राजनीतिक, सामाजिक-सास्कृतिक प्रतिफल भी है तो उसपर सौम्य तरीके से कांस्टीट्यूशन क्लब या इंडिया हैबीटैट सेंटर के किसी हॉल में बैठकर समझना चाहिए। लोकतंत्र समझदार नागरिकों की व्यवस्था है, जंगलराज नहीं है। यदि सरकार गलती पर है तो समय आने पर उसे सजा दीजिए। फिलहाल यह तय कीजिए कि आप चाहते क्या हैं। एक बात अरुंधती रॉय ने कही है कि हम कश्मीर, छत्तीसगढ़ और पूर्वी भारत में होने वाले बलात्कारों के प्रति इतने संवेदनशील नहीं हैं। उन्हें लेकर नाराज़गी व्यक्त नहीं करते, पर दिल्ली में कुछ होता है तब ऐसा लगने लगता कि आसमान टूट पड़ा। क्या यह बात पूरी तरह गलत है? 

9 comments:

  1. in india most rape cases happen in close relations and always are "closed" for ever

    these 6 rapist are just a sample but molestation , rape , criminal assualt happens with almost every woman every day

    dont please defend by saying that the background of these rapist is bad , even in elite classes , middle classes same things happen

    indian man think they are premeshwars / god and woman is made only to please them

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  2. ६६ साल में सरकार पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकी ... सामंती व्यवस्था को राजनेता जिन्दा रखना चाहते हैं ... राजाओं की जगह अब वो आ गए हैं ...
    देश की हर समस्या के मूल में राजनेता को इस्लिये देखते हैं लोग क्योंकि अच्छा करे न करें वो खराब जरूर करते हैं ... देश को बांटे हैं ... घडियाली आंसू बहाए हैं ... सनाज के सभी बुद्धिजीवी, इन नेताओं को छोड़ के ... क्यों नहीं बाहर आते २ साल देश के लिए कुओं नहीं निकलते ओर समाज की दिशा बदलते ...

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  3. एक पढ़ने योग्य आलेख इसे शेयर कर रह हूँ फेसबुक पर !

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  4. विचारणीय आलेख

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  5. बेहतर लेखन,
    जारी रहिये,
    बधाई !!

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  6. कई जरूरी बात ध्यान देने योग्य है...

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  7. अच्छा लिखा है |उम्दा रचना

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  8. वास्तव में इस दुखद घटना के बड़े मनोवैज्ञानिक पहलू है...अच्छा विश्लेषण|

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  9. लेख विचारोत्तेजक है. इसमें रेप से जुड़े कई पहलुओं को उठाया गया है. मेरी समझ से इस समस्या से सामाजिक संगठनों को जूझना चाहिए. लेकिन बिडंबना यह है कि ये संगठन भी राजनीति का एक हथियार भर बन कर रह गए हैं. राजनीतिक पार्टियाँ एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए इनका भरपूर उपयोग करती हैं और ये अपना उपयोग होने देते हैं. गौर करें कि राजनीति ने इस रेप कांड को भी डायल्यूट करने का प्रयास शुरू कर दिया है. जो भी सामाजिक संगठन इस कांड के विरोध में आए हैं उनका स्वर बहुत धीमा है. औवल तो यह इस सामाजिक को लेकर बहुत व्यथित भी नहीं दिखते.

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