हिन्दू में केशव का कार्टून |
राजनीतिक लड़ाई और कानूनी बदलाव
दिल्ली की कुर्सी की लड़ाई कैसी होगी इसकी तस्वीर धीरे-धीरे साफ हो रही है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी का भविष्य ही दाँव पर नहीं है, बल्कि भावी राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल भी दाँव पर है। मोदी क्या 92 से ज्यादा सीटें जीतेंगे? ज्यादातर लोग मानते हैं कि जीतेंगे। क्या वे 117 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2007 का बेंचमार्क है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी की जीत है। तब अगला सवाल होगा कि क्या वे 129 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2002 का बेंचमार्क है। गुजरात और हिमाचल के नतीजे 20 दिसम्बर को आएंगे, तब तक कांग्रेस पार्टी को अपने आर्थिक उदारीकरण और लोकलुभावन राजनीति के अंतर्विरोधी एजेंडा को पूरा करना है।
लोकसभा चुनाव यदि 2014 में होंगे तो उससे पहले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान और त्रिपुरा विधानसभाओं के चुनाव हो चुके होंगे। इन चुनावों के मार्फत कई प्रकार के राजनीतिक प्रयोग और परीक्षण भी होंगे। छत्तीसगढ़ विधान सभा का कार्यकाल जनवरी 2014 तक, सिक्किम का मई और आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा की विधान सभाओं का कार्यकाल जून 2014 तक है। क्या वहाँ लोकसभा के साथ विधान सभा चुनाव भी होंगे? यानी कि पूरे देश में किसी न किसी रूप में अब राजनीतिक गतिविधियाँ चलती रहेंगी। तमाम जातीय-धार्मिक और सामाजिक समीकरण बनने और उनमें करेक्शन का काम होगा। इसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए बड़ी चुनौतियाँ हौं, क्योंकि आसार इस बात के हैं कि 2014 में राष्ट्रीय दलों की लोकप्रियता में कमी आएगी। कर्नाटक में येदुरप्पा ने दक्षिण भारत में भाजपा की पहलकदमी रोकने का इंतजाम कर दिया है। उधर आंध्र में जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस के येदुरप्पा बन चुके हैं।
राहुल गांधी क्या करेंगे?
राहुल गांधी कांग्रेस के नम्बर दो नेता के रूप में घोषित हो गए हैं, पर लगता नहीं कि वे सरकार का नेतृत्व करने को तैयार है। वर्ना यह बात क्यों कही जा रही है कि पी चिदम्बरम प्रधानमंत्री बनाए जा सकते हैं? राहुल गांधी गुजरात में प्रचार के लिए सबसे देर में क्यों पहुँचे यह बात समझ में नहीं आई। बहरहाल देर ही सही, पर इन रैलियों में उन्होंने जो कहा, क्या वह कांग्रेस की किसी सायास रणनीति का हिस्सा है या योंही कुछ बोल दिया? उन्होंने एक साथ कई बातें कहीं, जिनमें खराबी कोई नहीं थी, पर फोकस कुछ नहीं था। सन 2007 के चुनाव में सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कहने के बाद उसका असर देखा तो इस बार दूध के जले जैसा बर्ताव शुरू कर दिया। अब सभाओं में नरेन्द्र मोदी का नाम नहीं लिया जाता, भले ही परोक्ष में इशारा उधर ही किया जाता हो। यानी मोदी को पहले से और ज्यादा सम्मान देना शुरू कर दिया।
गुजरात में राहुल गांधी ने सबसे पहले वोटर की हमदर्दी जीतने की कोशिश की। उन्होंने कहा, मेरे पिता और मेरी दादी की हत्या आतंकवादियों ने की। फिर उन्होंने नेल्सन मंडेला और लूला ड सिल्वा के गुरु महात्मा गांधी को अपना गुरु बताया। केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों की ओर से निगाहें फेरते हुए उन्होंने श्रोताओं को बताया कि गुजरात में बनने वाली एक नैनो कार आपके 60,000 रुपए ले जाती है। इनसे आपके न जाने कितने काम होते। उन्होंने श्रोताओं से पूछा आपको पता है कि आपको मिलने वाले पानी में कितना फ्लुओराइड और नाइट्राइट है। राहुल गांधी को मँजे हुए नेता के रूप में भाषण देने के लिए अभी लोकप्रिय नेताओं के भाषणों का अध्ययन करना चाहिए। 3 नवम्बर की रामलीला मैदान की रैली में उन्होंने जो घसीट मारी थी, वह गुजरात में नहीं दिखाई दी। कम से कम वे अब पॉज़ दे रहे हैं, शब्दों पर ज़ोर देकर बात कर रहे हैं, पर उन्हें यह देखना चाहिए कि उनका श्रोता कौन है, वह क्या सुनना चाहता है।
गुजरात में खेल खुला है। नरेन्द्र मोदी ने सर क्रीक का जो मामला उठाया है, वह चुनाव में बड़ा मुद्दा बने या न बने, पर उचित नहीं लगता। विदेश नीति से जुड़े मसलों को राजनीति का विषय बनाना उचित नहीं। अपनी सरकार पर भरोसा करना चाहिए। वह ऐसा कोई फैसला क्यों करेगी, जिससे देश को नुकसान हो?
गुजरात के बाद
अजा, जजा कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने का मसला सरकार के सामने अगली चुनौती है। ऐसा लगता है कि सपा और बसपा के बीच का यह राजनीतिक संग्राम भी एक स्क्रिप्ट के अनुसार चल रहा है। सरकार जानती है कि यह संशोधन पास नहीं होगा, पर चूंकि मायावती इसकी पूरी माइलेज लेना चाहेंगी, इसलिए यह अभी चलेगा। इस बिल का हश्र भी महिला आरक्षण और लोकपाल बिल जैसा होगा। इन सब की आड़ में सरकार का आर्थिक उदारीकरण का काम चल रहा है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 13 दिसम्बर को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में दिल्ली और मुंबई सहित शेष बचे चार सर्किलों में स्पेक्ट्रम नीलामी के लिये आधार मूल्य में 30 प्रतिशत कटौती के प्रस्ताव को भी मंजूरी दे दी गई। 1,000 करोड़ रुपये अथवा इससे अधिक की बड़ी परियोजनाओं के निवेश प्रस्ताव को मंजूरी देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की निवेश संबंधी समिति के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई है। इस समय 1,000 करोड़ रुपये से अधिक निवेश वाली करीब 100 निवेश परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं।
वित्त मत्री पी. चिदंबरम ने सबसे पहले इस तरह के एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का प्रस्ताव किया था। उन्होंने इसे राष्ट्रीय निवेश बोर्ड (निब)का नाम दिया था। मंत्रिमंडल ने प्रस्तावित एनआईबी का नाम मंत्रिमंडल की निवेश समिति करने का निर्णय किया। समिति में बुनियादी ढांचा क्षेत्रों से जुड़े विभागों के मंत्री इसके सदस्य होंगे। पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर एनआईबी गठित करने को लेकर अपनी आपत्ति जतायी थी। उन्होंने कहा था कि ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे बड़ी परियोजनाओं के लिए जरूरी हरित मंजूरी को नजअंदाज किया जाए।
भूमि अधिग्रहण विधेयक में निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण होने पर क्षेत्र के 80 प्रतिशत लोगों की सहमति लेने का अनिवार्य प्रावधान किया गया है। सार्वजनिक.निजी साझीदारी परियोजनाओं के मामले में क्षेत्र के 70 प्रतिशत लोगों की सहमति लेने का प्रावधान किया गया है। विधेयक के प्रारूप के अनुसार क्षेत्र के जिन लोगों की जमीन का अधिग्रहण किया जाएगा उनमें से 70 प्रतिशत की सहमति जरुरी होगी। उद्योग जगत ने तो इस निर्णय का स्वागत किया है पर रीयल एस्टेट कंपनियों ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। रीयल एस्टेट कंपनियों का कहना है कि सहमति का प्रावधान कड़ा है और इससे जमीन की कीमत बढ़ेगी।
अपने मूल रूप में विधेयक 'भू अधिग्रहण विधेयक में उचित मुआवजा, पुनर्वास, पुनर्स्थापन और पारदर्शिता के अधिकार' में न सिर्फ 80 फीसदी भू मालिकों की सहमति जरूरी थी बल्कि इस जमीन पर काम करने वाले मजदूरों की सहमति भी आवश्यक थी। उद्योग और बुनियादी ढांचा क्षेत्र की लॉबी द्वारा आपत्ति जताने के बाद इस प्रावधान को विधेयक से हटा दिया गया। सीआईआई के डीजी चंद्रजीत बैनर्जी का कहना है कि जमीन अधिग्रहण में दिक्कत होगी। 70-80 फीसदी लोगों की मंजूरी लेने में दिक्कत होगी। सरकार को मुआवजा देने में परेशानी नहीं है लेकिन 80 फीसदी लोगों की मंजूरी मिलना मुश्किल हो सकता है। इंडस्ट्री 60 फीसदी लोगों की मंजूरी की उम्मीद कर रही थी।
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 के मसौदे को अक्तूबर में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स से स्वीकृति मिली थी। पिछले साल यानी 2011 में 7 सितम्बर को इसे लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इसे ग्रामीण विकास की स्थायी समिति के पास भेज दिया था, जिसने मई 2012 में इसे अपनी रपट के साथ वापस भेजा था। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने स्थायी समिति की सिफारिशों को शामिल करते हुए इसे अंतिम रूप दिया। 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए सन 2007 में एक विधेयक पेश किया गया था। इसके बाद भूमि अधिग्रहण से विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्स्थापन के लिए एक और विधेयक पेश किया गया। दोनों 2009 में लैप्स हो गए। इस बीच सिंगुर-नंदीग्राम से नोएडा और कूडानकुलम तक कई तरह के आंदोलन शुरू हुए जो अभी तक चल रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को तेजी से लागू करने के कारण सरकारी अलोकप्रियता बढ़ी है। इसलिए सरकार अब दूसरे विकल्पों की ओर जाएगी। उसके पास खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण के कानूनों के प्रस्ताव भी हैं, जो ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता बढ़ा सकते हैं।
देश की तमाम बड़ी समस्याओं की सूची में ज़मीन भी शामिल है। उद्योग जगत का मानना है कि कारखाने लगाने के लिए ज़मीन हासिल करना सबसे बड़ी समस्या है। मोटा अनुमान है कि 1951 से अब तक सरकार ने तकरीबन पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। इस अधिग्रहण के कारण तकरीबन पाँच करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से तकरीबन 75 फीसदी लोगों का पुनर्वास अभी तक नहीं हो पाया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आबादी के काफी बड़े हिस्से को न तो वैकल्पिक रोज़गार की जानकारी है, न रोज़गार का ढाँचा है और न आर्थिक निवेश है। जिन लोगों की ज़मीन ली गई, उनमें ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें क पैसा मुआवज़ा नहीं मिला। ज़मीन की मिल्कियत के दस्तावेज़ तक लोगों के पास नहीं हैं। हैं भी तो उनमें तमाम खामियाँ हैं। उद्योग लगाने वाले इसलिए खुद ज़मीन हासिल करने के बजाय चाहते हैं कि सरकार अधिग्रहण करके हमें सौंप दे।
इस समस्या के आर्थिक पहलुओं के साथ राजनीतिक पहलू भी हैं। बंगाल में वाममोर्चे की सरकार पर आर्थिक विकास और औद्योगीकरण में तेजी लाने का दबाव था। वामपंथी दलों की अपनी नीतियों के कारण बंगाल से कारोबारी दूर चले गए थे। जब सरकार ने अपनी नीतियाँ बदलीं तो ममता बनर्जी की पार्टी ने लगभग वामपंथी तरीके से आंदोलन खड़ा किया और वाममोर्चे को सत्ताच्युत कर दिया। इस वक्त भूमि अधिग्रहण कानून का सबसे बड़ा विरोध ममता बनर्जी ही कर रहीं हैं। वे किसी भी कीमत पर उद्योगों के लिए किसानों की ज़मीन लेने के खिलाफ हैं। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सामाजिक सवालों को लेकर जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई थी, उसकी सलाह पर ही यह कानूनी मसौदा तैयार किया गया है। इसमें एक महत्वपूर्ण व्यवस्था यह है कि जिन लोगों की ज़मीन ली जा रही है, उनमें से 80 फीसदी लोग ज़मीन देने से मना कर दें तो अधिग्रहण सम्भव नहीं होगा। यह काफी कड़ी शर्त नज़र आ रही थी। इसपर ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने सहमति देने वालों का प्रतिशत 80 से घटाकर 67 फीसदी करने का सुझाव दिया था। पर सोनिया गांधी ने इसे वीटो कर दिया और कहा कि 80 फीसदी की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए। इस कानून में ग्रामीण इलाकों में ज़मीन की कीमत बाज़ार भाव से चार गुना और शहरी इलाकों में बाज़ार भाव से दोगुना रखी गई है। विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास और अधिग्रहीत भूमि के निरुपयोग पर उसपर मिलने वाले लाभ में से 20 फीसदी मूल भूमि के स्वामी से साझा करने की शर्तें भी हैं।
भूमि अधिग्रहण के दो पहलू हैं। पहला उद्योग के लिए भूमि का सवाल है और दूसरा है छोटे भू-स्वामियों और भूमिहीनों के हितों की रक्षा। उद्योग लगने पर आसपास को लोगों को रोज़गार में वरीयता देने की शर्तें भी होनी चाहिए। क्या यह सम्भव होगा? कांग्रेस चाहती है कि इस कानून को किसानों की सफलता के रूप में पेश किया जाए। शायद इसीलिए सोनिया गांधी के वीटो की खबर को प्रचारित किया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भूमि अधिग्रहण कानून को लागू करने के पहले सात शर्तें पूरी करने की सलाह दी थी। इसमें मुआवज़े से ज्यादा मनुष्यों की सुरक्षा के अलावा खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण की रक्षा और मानवीय भागीदारी पर ज़ोर है। पर इसकी कीमत क्या हमारा उद्योग जगत दे सकेगा?
भारत में इस समय ज़मीन के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। शहरों में प्रॉपर्टी की कीमत असाधारण रूप से बहुत ज्यादा है। ज़मीन के दाम बढ़ने से भूस्वामियों को तो लाभ होगा, पर गाँवों में आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीनों की है। उनके लिए रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे या घटेंगे, यह समझने की बात है। ऐसे उद्योग लगें जिनमें स्थानीय मज़दूरों को काम मिले तो रोज़गार बढ़ सकता है, पर यदि प्रशिक्षित और कुशल लोगों को ही काम मिलेगा तो इसके दुष्प्रभाव भी सामने आएंगे। दरअसल अभी हमें उन उद्योगों की ज़रूरत है, जिनमें शारीरिक श्रम की ज़रूरत होती है। इसके लिए मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा मिलना चाहिए।
क्या सरकार इस कानून को संसद में पास करा पाएगी? यही सवाल बीमा और पेंशन कानूनों को लेकर है। कोयला प्रसंग को उछालने वाली भाजपा का रुख क्या होगा? मुलायम सिंह क्या करेंगे? कांग्रेस के भीतर काफी लोगों को लगता है कि यह बिल पास हो गया तो पार्टी की पकड़ ग्रामीण इलाकों में अच्छी हो जाएगी। जल, जंगल और ज़मीन को लेकर कड़वाहट लगातार बढ़ रही है। इससे निपटना तलवार की धार पर चलने जैसा है।
ताकि सनद रहे
ताकि सनद रहे
सरकार ने बताया कि देश में अभी 1,426 पंजीकृत राजनीतिक दल हैं जिनमें से 53 दल ही मान्यता प्राप्त हैं। लोकसभा में सैयद शाहनवाज हुसैन के प्रश्न के लिखित उत्तर में विधि एवं न्याय मंत्री डा. अश्विनी कुमार ने कहा कि निर्वाचन आयोग ने सूचित किया है कि 29 नवंबर 2012 को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 क के तहत आयोग से पंजीकृत 1,426 राजनीतिक दल हैं। उन्होंने कहा कि इन 1,426 दलों में से 53 दल मान्यता प्राप्त है जबकि शेष गैर मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल हैं। मंत्री ने कहा कि इन 53 दलों में से छह राष्ट्रीय स्तर के और 47 राज्य स्तरीय दल हैं। कुमार ने कहा कि 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में 363 राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। विधि मंत्री ने कहा कि राजनीतिक दलों का पंजीकरण समाप्त करने के लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में कोई उपबंध नहीं है। राजनीतिक दलों का पंजीकरण समाप्त करने के संबंध में निर्वाचन आयोग को सशक्त बनाने वाला आवश्यक उपबंध किए जाने का प्रस्ताव किया गया है लेकिन अभी इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं किया गया है। मंत्री ने कहा कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने सूचित किया है कि राजनैतिक दलों से उनका आयकर विवरण पेश करने की अपेक्षा की जाती है।
तुरुप का अगला पत्ताः-सरकार के पास तुरुप का अगला पत्ता है कंडीशनल कैश ट्रांसफर। जैसा सुना जा रहा है, यह योजना जनवरी में घोषित की जाएगी। सुनने में यह काफी रोचक लगती है, पर राजस्थान में केरोसीन वितरण की खबरें मिलने के बाद इसे लागू करने के बारे में अच्छी तरह सोचने की ज़रूरत लगती है। इधर एफडीआई पर जो चर्चा हुई उसके बाबत हिन्दी के बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित कुछ रोचक सामग्री मैने सँजोकर रखी है, पढ़कर देखें।
चुनाव भी एक पूर्ण विधा है, नवरसों की।
ReplyDeleteभूमि अधिग्रहण, खाद्य सुरक्षा, कैश ट्रांसफर और हर हाथ मेँ फोन की योजनाएँ 2014 मेँ UPA-3 के लिए पर्याप्त हैँ। गुजरात मेँ मोदी भले ही 151 का जादुई आँकड़ा ही क्योँ न छू लेँ।
ReplyDeleteआपने ठीक कहा कि लोकपाल, महिला आरक्षण और प्रोन्नति मेँ आरक्षण की आड़ मेँ UPA अपने आर्थिक कार्यक्रम को बढ़ाए रखने मेँ सफल रहेगी। द्वितीय आर्थिक सुधारोँ के नाम पर देश भले ही बिक जाए, लेकिन विपक्ष की क्या मजाल कि सत्ता की कुर्सी भी छू पाए। सोनिया जी ने राजनैतिक चालोँ मेँ चाणक्य को भी पीछे छोड़ दिया.!!